इंटरसेक्शनलजाति भारत में बाल मज़दूरी, जातिगत भेदभाव और गरीबी एक-दूसरे से गंभीर रूप से जुड़े हुए हैं: UN

भारत में बाल मज़दूरी, जातिगत भेदभाव और गरीबी एक-दूसरे से गंभीर रूप से जुड़े हुए हैं: UN

संयुक्त राष्ट्र की एक नयी रिपोर्ट के अनुसार, भारत में बाल मज़दूरी, जाति आधारित भेदभाव और गरीबी एक-दूसरे से गंभीर रूप से जुड़े हुए हैं। यह रिपोर्ट यह भी बताती है कि दक्षिण एशियाई देशों में दलित महिलाओं के खिलाफ़ गंभीर भेदभाव शामिल है, जिसके कारण उन्हें जीवन के सभी क्षेत्रों में व्यवस्थित रूप से जीवन जीने के विकल्पों और स्वतंत्रता से वंचित किया जाता है।

संयुक्त राष्ट्र की एक नयी रिपोर्ट के अनुसार, भारत में बाल मज़दूरी, जाति आधारित भेदभाव और गरीबी एक-दूसरे से गंभीर रूप से जुड़े हुए हैं। यह रिपोर्ट यह भी बताती है कि दक्षिण एशियाई देशों में दलित महिलाओं के खिलाफ़ गंभीर भेदभाव शामिल है, जिसके कारण उन्हें जीवन के सभी क्षेत्रों में व्यवस्थित रूप से जीवन जीने के विकल्पों और स्वतंत्रता से वंचित किया जाता है। भारत में दलितों के खिलाफ भेदभाव, हिंसा या जाति आधारित काम या बाल श्रम कोई नई बात नहीं है। हमारे देश में बाल श्रम जैसी सामाजिक समस्याएं ही नहीं, बच्चों के स्वास्थ्य से जुड़ी स्टंटिंग जैसी समस्याएं भी जाति, वर्ग और धर्म से प्रभावित हैं।

भारतीय समाज में सदियों से चली आ रही जाति व्यवस्था और काम के बीच का संपर्क बाल श्रम या मैन्युअल स्कैवेंजिंग जैसे कामों में दिखता है। भारतीय समाज के ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था में उन्हें सिर्फ जाति के आधार पर हाशिए पर रखा गया है, जिसमें महिलाएं और बच्चे और भी कमज़ोर स्थिति और निचले पायदान पर हैं। हाशिए पर रह रहे समुदाय में महज जन्म लेने से, आजीवन गरीबी, भेदभाव और हिंसा का सामना करते हुए एक अनिश्चित और कठिन जीवन जीने की संभावना बढ़ जाती

दलित-बहुजन समुदाय जीवन भर सामाजिक भेदभाव, उत्पीड़न और मानवाधिकार के उल्लंघन को झेलने को मजबूर होते हैं। ख़ासकर महिलाएं और बच्चें लैंगिक या जातिगत भेदभाव और आर्थिक अभाव के कारण सबसे ज्यादा प्रताड़ित होते हैं। अलग-अलग रिपोर्ट बताती हैं कि दलित समुदाय के बच्चे सबसे अधिक बाल मज़दूरी का शिकार होते हैं। बच्चों के स्कूल छूटने की संभावना और संख्या इनमें सबसे ज्यादा होती है। साथ ही शारीरिक, मानसिक और यौन हिंसा का सामना भी सबसे ज्यादा इन्हें करना पड़ता है।

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संयुक्त राष्ट्र की एक नयी रिपोर्ट के अनुसार, भारत में बाल मज़दूरी, जाति आधारित भेदभाव और गरीबी एक-दूसरे से गंभीर रूप से जुड़े हुए हैं। यह रिपोर्ट यह भी बताती है कि दक्षिण एशियाई देशों में दलित महिलाओं के खिलाफ़ गंभीर भेदभाव शामिल है, जिसके कारण उन्हें जीवन के सभी क्षेत्रों में व्यवस्थित रूप से जीवन जीने के विकल्पों और स्वतंत्रता से वंचित किया जाता है।

क्यों बाल मज़दूरी के ख़िलाफ़ नीतियां और कानून जाति के आधार पर बनाए जाने की ज़रूरत है

भारत में श्रम का विभाजन मूल रूप से जाति के आधार पर किया गया है। इसलिए, बाल मज़दूरी के मामले में भी दलित, आदिवासी और मुस्लिम समुदाय के बच्चों को सबसे अधिक बतौर बाल श्रमिक काम करना पड़ता है।  उन्हें अक्सर अपने परिवार की ख़राब स्थिति और विकल्पों की कमी के कारण काम करने के लिए मजबूर किया जाता है। ऐसे कई अलग-अलग उद्योग हैं, जहां दलित या मुस्लिम बाल श्रमिक बड़ी तादाद में पाए जाते हैं। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रमुख श्रम विशेषज्ञों ने भारत में गारमेंट फैक्ट्रियों में काम करनेवाले श्रमकि पर एक व्यापक अध्ययन किया और ‘टेंटेड गारमेंट्स: द एक्सप्लॉइटेशन ऑफ वीमेन एंड गर्ल्स इन इंडियाज होम-बेस्ड गारमेंट सेक्टर‘ नामक एक रिपोर्ट जारी की। इसके अनुसार इस क्षेत्र में 99 प्रतिशत श्रमिकों ने भारतीय कानून के तहत बंधुआ मजदूरी करते पाए गए। यह रिपोर्ट बताती है कि इन में 99 प्रतिशत से अधिकतर श्रमिक दलित या मुस्लिम थे। इस क्षेत्र में काम कर रहे बाल श्रमिकों की व्यापकता 15 प्रतिशत से अधिक थी और बंधुआ मजदूरी के कई मामले भी दर्ज किए गए। रिपोर्ट के मुताबिक 85 फीसदी श्रमिकों के बनाए गए कपड़ों को विभिन्न ग्लोबल ब्रांड्स को सप्लाई किए गए।

इसी तरह ग्लोबल मार्च अगेंस्ट चाइल्ड लेबर ने ‘चाइल्ड लेबर एंड इट्स जेंडर्ड डाइमेंशन्स इन द सुगरकेन सप्लाई चेन इन इंडिया‘ नामक एक रिपोर्ट जारी की, जिसमें गन्ना उद्योग में लगे बच्चों के हालत को उजागर किया गया। यह रिपोर्ट बताती है कि गन्ना सप्लाई चेन में, गन्ना के कटाई के दौरान, वैतनिक और अवैतनिक दोनों तरह से बाल श्रमिकों को काम पर लगे पाया जाता है। इस रिपोर्ट अनुसार बच्चों को ‘सीज़नल श्रमिक’ के रूप में चिन्हित किया जा सकता है। ये गन्ने के कटाई के मौसम में हर साल 5 से 6 महीने के लिए अपने माता-पिता के साथ पड़ोसी राज्यों और जिलों में रहने चले आते हैं। इन बच्चों में अधिकांश आदिवासी या दलित होते हैं, जिन्हें इस मुश्किल काम में धकेल दिया जाता है।   

इसी तरह भारत में मैन्युअल स्केवेंजिंग जैसे अमानविक काम को दलित समुदाय के लोगों के लिए तय कर दिया गया है। एसोसिएशन ऑफ रूरल, अर्बन एण्ड नीडी (अरुण), सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज (सीईएस) और वाटरऐड ने मैनुअल स्कैवेंजिंग में शामिल महिलाओं की स्थिति पर एक सर्वेक्षण किया। इस सर्वेक्षण में भाग लिए अधिकांश मैनुअल स्कैवेंजर्स ने बताया कि उन्होंने महज 6-14 वर्ष की आयु में पहली बार यह काम करना शुरू कर दिया था। यह गौर करने की बात है कि पीढ़ी दर पीढ़ी गरीबी का सामना करते मजदूरों और श्रमिकों के पास अपने बच्चों को ऐसे क्षेत्रों में काम के लिए भेजने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचता।       

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भारत में गारमेंट फैक्ट्रियों में काम करनेवाले श्रमकि पर एक व्यापक अध्ययन किया और ‘टेंटेड गारमेंट्स: द एक्सप्लॉइटेशन ऑफ वीमेन एंड गर्ल्स इन इंडियाज होम-बेस्ड गारमेंट सेक्टर’ नामक एक रिपोर्ट जारी की। इसके अनुसार इस क्षेत्र में 99 प्रतिशत श्रमिकों ने भारतीय कानून के तहत बंधुआ मजदूरी करते पाए गए। यह रिपोर्ट बताती है कि इन में 99 प्रतिशत से अधिकतर श्रमिक दलित या मुस्लिम थे।

बाल श्रम, गरीबी और अशिक्षा का संबंध

बाल श्रम एक बहुआयामी समस्या है। बच्चों को बाल श्रम में धकेलने के पीछे गरीबी एक बहुत बड़ी वजह के रूप में काम करती है। गरीबी, बाल श्रम और निरक्षरता आपस में जुड़े हुए हैं। जहां एक ओर चरम गरीबी से उबरने के लिए परिवार बच्चों को काम पर लगा देते हैं। वहीं इस फैसले से न सिर्फ उनका बचपन, बल्कि भविष्य भी खतरे में पड़ जाता है। बच्चों की शिक्षा होने से भविष्य में उनके वैतनिक क्षेत्रों में काम करने के आसार और भी कम हो जाते हैं। साथ ही, अलग- अलग खतरनाक क्षेत्रों में काम करने से उनके बीमार होने या हिंसा का सामना करने की संभावना अधिक होती है। टेलीग्राफ ग्रुप के एडुग्राफ में छपी एक खबर मुताबिक बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, लंदन के किंग्स कॉलेज और ब्रुनेल विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के एक अध्ययन से पता चलता है कि ऐसे बाल श्रमिक जिन्हें भावनात्मक शोषण का सामना करना पड़ता है, उनमें कई तरह के मानसिक विकार होने की संभावना होती है।

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) और यूनिसेफ की साल 2021 की रिपोर्ट के अनुसार, दुनियाभर में बाल श्रमिकों की संख्या बढ़कर 160 मिलियन हो गई जो पिछले चार वर्षों के बाल श्रमिकों के संख्या में 8.4 मिलियन की वृद्धि है। इसके अलावा, कोरोना महामारी के प्रभाव के कारण लाखों अन्य बच्चे बाल श्रम के तौर पर इस्तेमाल किए जाने के जोखिम में हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार 5 से 11 वर्ष के आयु के लगभग 28 प्रतिशत बच्चे और 12 से 14 वर्ष के आयु के 35 प्रतिशत बच्चे बाल श्रम के रूप में काम करने के वजह से स्कूल से बाहर हैं। भारत एक ऐसा देश है, जहां हर किसी को शिक्षा का अधिकार होने के बावजूद, शिक्षा तक हर समुदाय की पहुंच सुनुश्चित नहीं है। जाति और धर्म आज भी बच्चों के शिक्षा को प्रभावित करती है। शैक्षिक संस्थानों में भेदभाव और इस तक पहुंच में कमी के कारण, गरीब परिवारों के बच्चे बाल मज़दूरी के दुष्चक्र में फंस जाते हैं।

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किसी भी समस्या को दूर करने के नीतिगत उपाय तय करने से पहले समस्या की प्रकृति, प्रकार और उसके क्षेत्रीय या राष्ट्रीय कारकों पर गौर करने की जरूरत होती है। भारत में जहां एक ओर बाल श्रम के लिए कई आम कारण हैं, वहीं कुछ क्षेत्रीय और विशिष्ट कारक भी मौजूद हैं। गरीबी, कम आय, शिक्षा की कमी, सरकारी नीतियों और योजनाओं के शिक्षा अपर्याप्त पहुंच, जाति या समुदाय जैसे कई कारक बच्चों के श्रम बाजार में भागीदारी को प्रभावित करते हैं। भारत में बाल श्रम को समझने के लिए यह जरूरी है कि हम इसके विभिन्न प्रकार और पहलुओं को नज़रअंदाज़ न करें। बाल मज़दूरी के अंतर्गत सिर्फ किसी एक उद्योग में काम करनेवाला बच्चा नहीं बल्कि सिग्नल पर खिलौने बेचनेवाला या ढाबे पर काम करने वाला बच्चा या जबरन देह व्यापार में लगी बच्चियां भी आती हैं, जिन्हें तत्काल मदद और राहत की जरूरत है। आम तौर पर जब हम बाल मज़दूरी की बात करते हैं, तो हमारा दायरा गृह उद्योग या कारखानों तक सीमित हो जाता है। इसलिए बाल श्रम को समझने और इससे लड़ने के लिए हमें छोटी, बड़ी, प्रचलित या अप्रचलित सभी जगहों को अपने दायरे में रखने की जरूरत है।

अगर हम वास्तव में बाल श्रम को खत्म करना चाहते हैं, तो सबसे पहले इसे जाति, धर्म, वर्ग आदि के नज़रिए से देखना शुरू करना होगा और इस बात को मानना होगा कि दलित, बहुजन, आदिवासी या मुस्लिम समुदाय के परिवारों की वास्तविकता इस देश से सवर्णों से बेहद अलग है। हर समुदाय के लिए एक जैसी योजना से, हम जातिगत कारणों से हो रहे बाल श्रम को मिटा नहीं पाएंगे। यह सच्चाई कि आज भी देश में व्यवस्थित जातिवाद काम करता है, इसे मानने और इस पर काम करने की ज़रूरत है।   

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तस्वीर साभार: Humanium

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