स्वास्थ्यशारीरिक स्वास्थ्य पीरियड्स को लेकर महिलाओं के बीच एक चर्चा और उससे जुड़ी चुनौतियां!

पीरियड्स को लेकर महिलाओं के बीच एक चर्चा और उससे जुड़ी चुनौतियां!

पीरियड्स पर बात करने में एक हिचकिचाहट साफ तौर पर देखी जा सकती है लेकिन इसका एक ही समाधान है इस विषय पर खुलकर बातचीत करना।

पीरियड्स को लेकर भ्रांतिया, नकारात्मक व्यहार, अज्ञानता हमारे समाज की वास्तविकता है। यही वजह है कि एक बायोलॉजिक शारीरिक बदलाव को बीमारी, शर्म जैसी चीजों से जोड़ दिया जाता है। पीरियड्स पर बात करने में एक हिचकिचाहट साफ तौर पर देखी जा सकती है लेकिन इसका एक ही समाधान है इस विषय पर खुलकर बातचीत करना। पीरियड्स के दौरान होने वाले अनुभव, उससे जुड़ी समस्याओं और चुनौतियों पर बात करके ही पीरियड्स के बारे में जानकारी और सहजता को बनाया जा सकता है।

सीतामढ़ी प्रखण्ड, बिहार की रहने वाली रेखा (बदला हुआ नाम) को ग्यारह साल की उम्र में हुए पहली बार पीरियड्स के अनुभव पर वह बताती हैं, “सुबह स्कूल में ग्राउंड में समस्त छात्र-छात्राओं के साथ प्रार्थना कर रही थीं जब उन्हें पहली बार पीरियड हुआ और वह पूरी तरह इससे अंजान थी। सैकड़ों छात्रों की नज़रें उसे ऐसे घेरे हुए थीं जैसे उसने कोई जघन्य अपराध कर दिया हो। मैं डरी-सहमी दर्द से कराह रही थी और शून्य कर देने वाले सवाल उसके कानों में गुंजायमान हो रहे थे। जैसे “कितना खून निकल रहा है!”, “तुम्हें क्या हुआ है?, कहां चोट लगी है?”, “डॉक्टर बुलाओ, इतना सारा खून बह रहा है” आदि आदि। कई लोग चिंतित थे लेकिन कई लोग हँस तक कर रहे थे।”

मैं लगातार गर्दन नीचे किए हुए अपने सफ़ेद रंग के स्कर्ट पर लगे धब्बों और टांगों पर बहते खून को देखकर लगातार रोए जा रही थी। तभी स्कूल के कुछ पुरुष अध्यापक मुझे ये कहकर आश्वासन देते हैं कि हमें तो नहीं पता कि इस परिस्थिति में क्या करना चाहिए। हम दाईजी (सफ़ाई कर्मचारी) और मैम को बुलाकर लाते हैं वो आपकी मदद कर सकती हैं। दरअसल मेरे स्कूल में एक ही महिला शिक्षिका थीं जो उस समय कक्षा में जीरो पीरियड ले रहीं थीं।

तस्वीर साभारः The Hindu

चूंकि ग्रामीण हो या शहरी कहीं-कहीं क्षेत्रों के स्कूलों में महिला शिक्षिकाओं की संख्या पुरुष शिक्षकों के मुकाबले में कम है अथवा यूं कहें कि न के बराबर होती है। इसके साथ ही उस समय न ग्रामीण क्षेत्रों और स्कूलों में पीरियड्स की प्रक्रिया को लेकर किसी भी प्रकार की जागरूकता अथवा जानकारी नहीं दी जाती थी और न ही घर या परिवार में इसकी कोई चर्चा की जाती थी। आगे वह भावुक होकर कहती हैं कि इस घटना को वह जीवनभर नहीं भूल सकतीं, जब भी उन्हें यह याद आता है तो यह सब उन्हें दुःखी भी कर देता है।

कपड़े के इस्तेमाल के दौरान रहता था हमेशा भय

दरभंगा, बिहार की रहने वाली 67 वर्षीया सुनीता देवी अपने पहले पीरियड्स का अनुभव बताती हैं कि उन्हें भी अन्य महिलाओं की ही तरह पीरियड्स पर किसी भी प्रकार की कोई जागरूकता अथवा जानकारी प्राप्त नहीं थी। इसपर बातचीत करना तो असामान्य था। इसपर कुछ बात करनी भी हो तो कानाफूसी करके की जाती थी जिससे किसी और को विशेषकर पुरुषों को पता न चलने पाए। पीरियड्स को बहुत ही शर्म का विषय माना जाता था।

वह यह भी बताती हैं कि उनके समय में नैपकिन या पैड तो क्या पैंटी तक भी नहीं हुआ करती था उन्हें पुराने-गंदे कपड़े को किसी तरह से कमर से बांध कर अटकाना होता था जोकि अत्यंत मुश्किल भरा अनुभव था। इस तरह से कपड़े को रोकने का उन्हें लगातार भय लगा रहता था कि कहीं सार्वजनिक जगहों पर खुल न जाएं। इसके साथ ही उन्हें बड़े बुजुर्ग महिलाओं जैसे उनकी मां, दादी तथा नानी की कही बातों का सख़्ती से पालन करना पड़ता था जैसे- पेड़-पौधे, तुलसी, आचार आदि न छूना। धार्मिक स्थल और धार्मिक कार्यों को करने की मनाही, बाल न धोना, नृत्य न करना, मंदिर और रसोई में आने-जाने की भी मनाही थी। हालांकि शादी के बाद वह रसोई का काम पीरियड्स के दौरान भी करती थीं।

मैं डरी-सहमी दर्द से कराह रही थी और शून्य कर देने वाले सवाल उसके कानों में गुंजायमान हो रहे थे। जैसे “कितना खून निकल रहा है!”, “तुम्हें क्या हुआ है?, कहां चोट लगी है?”, “डॉक्टर बुलाओ, इतना सारा खून बह रहा है” आदि आदि। कई लोग चिंतित थे लेकिन कई लोग हँस तक कर रहे थे।”

स्कूल में भी नहीं मिली ज्यादा जानकारी

प्रीति, दिल्ली के सरकारी स्कूल में पढ़ीं हैं। वह बताती हैं कि पीरियड्स वास्तव में क्या है? क्यों होता है? उस समय उसे ठीक तरह से नहीं मालूम था। हालांकि स्कूल में उन्हें पीरियड पर आधारित कुछ मिनट का पीपीटी दिखाया गया था जिससे उन्हें थोड़ी बहुत जानकारी हो गई थी। लेकिन विस्तार से जानकारी नहीं दी गई। प्रीति की तरह अन्य छात्राएं आपस में झिझक महसूस कर रही थीं और खुलकर चर्चा नहीं कर पाई थीं। छात्राओं को हर महीने स्कूल प्रशासन द्वारा नैपकिन/पैड प्रदान किया जाता है और जब उन्हें पहली बार नैपकिन मिला था तो घर पंहुचकर उन्होंने मां और दादी से पूछा, “देखो तो! यह क्या है? इसका इस्तेमाल किसलिए किया जाता है?” लेकिन किसी के पास इस सवाल का कोई सही उत्तर नहीं था। वे केवल अनुमान लगा रहे थे कि इसका क्या-क्या इस्तेमाल हो सकता है?

पीरियड्स प्रोडक्ट्स तक समान पहुंच है सवाल

तस्वीर साभारः The Economist

पीरियड्स प्रोडक्ट्स या पैड्स तक पहुंच और इसका लाभ आज भी बड़ी संख्या में पीरियड्स होने वाले सभी लोगों को नहीं मिल पाता है। मध्यम-निम्न वर्गीय तथा निम्न-वर्ग में पीरियड्स होने वाले लोगों की आर्थिक अक्षमता, अज्ञानता और जागरूकता की कमी के कारण आज भी गंदे कपड़े या असुरक्षित तरीके का इस्तेमाल करने को मजबूर हैं। जिस वजह से वे उस कपड़े को धोकर एक से अधिक यानी बार-बार इस्तेमाल करते हैं। इसके अलावा इन कपड़ो को तथा महिलाओं के अन्य निजी इनरवियर्स को सबकी नजर से बच-बचाकर धोया जाता है और ऐसी जगह सुखाया जाता है जहां पर्याप्त धूप-हवा मिलना लगभग असम्भव होता है और इससे महिलाओं को स्वास्थ्य संबंधी गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

कई महिलाओं द्वारा पैड खरीदना पैसों की बर्बादी माना जाना है। इसपर सुनीता देवी कहती हैं कि हमारे पास इतना पैसा नहीं है कि जिसे पीरियड्स प्रोडक्ट्स या पैड पर खर्च किया जा सके। यह एक बार की बात नहीं है हर महीने पीरियड्स आता है और हर बार का यह खर्च हमारी पहुंच से बाहर है। कौन जायेगा इतना अतिरिक्त पैसे लगाने जब कपड़े के इस्तेमाल से ही काम हो जाता है।

पीरियड्स के दौरान दिनचर्या

इस लेख को लिखने के दौरान जब हमने इन महिलाओं से यह पूछा कि पीरियड्स के दौरान आप कैसा महसूस करती हैं, क्या आम दिनों की तरह पीरियड्स वाले दिनों के दिनचर्या में कोई अंतर महसूस करती हैं? तो इस पर अधिकतर महिलाएं बताती हैं कि पीरियड्स के दौरान बाकी दिनों की अपेक्षा अलग महसूस करती हैं लेकिन दिनचर्या में कोई खास अंतर नहीं पाती हैं। अन्य दिनों की ही भांति उन्हें नियत समय पर सभी घरेलू और बाहरी कार्यों को पूरा करना पड़ता है। लेकिन पीरियड्स के दौरान उनकी मन होता है कि वह थोड़ा समय ख़ुद के लिए निकाल सकें, आराम कर सकें। लेकिन वह ऐसा नहीं कर पातीं। शर्म-झिझक और लोकलाज के कारण घर के पुरुषों से न इस पर कोई बात नहीं कर पाते हैं और न ही मदद की कोई दरकार कर पाती हैं।

मध्यम-निम्न वर्गीय तथा निम्न-वर्ग में पीरियड्स होने वाले लोगों की आर्थिक अक्षमता, अज्ञानता और जागरूकता की कमी के कारण आज भी गंदे कपड़े या असुरक्षित तरीके का इस्तेमाल करने को मजबूर हैं। जिस वजह से वे उस कपड़े को धोकर एक से अधिक यानी बार-बार इस्तेमाल करते हैं।

वहीं नई पीढ़ी की लड़कियां बहुत हद तक जागरूकता के साथ रूढ़िवादी विचारों और ढांचों को चुनौती देती हुई नज़र आती हैं। यह उनके लिए मुश्किल है लेकिन फिर भी जहां कहीं भी इन विषयों पर बातचीत करने की मनाही है वहां पर नई पीढ़ी खुलकर पीरियड्स और उससे जुड़े विषयों पर चर्चा करती हैं। साथ ही चर्चा में अपने घर के बाकी सदस्यों विशेषकर पुरुषों को भी शामिल करने का भरसक प्रयास करते हैं।

इसपर प्रीति कहती हैं कि मैं तो आचार छू और खा लेती हूं और पौधों को पानी भी देती हूं न आचार खराब हुआ और न ही पौधे सूखे। वे आगेकहती हैं कि अज्ञानता को पढाई-लिखाई से चुनौती दे सकते हैं और इस तरह दकियानूसी सोच को निडरता से खारिज करना चाहिए।


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