जिस दुनिया में आज हम जी रहे हैं क्या ये दुनिया सदैव ऐसी ही रही है? या फिर इसमें बदलाव आया? अगर आया तो इस बदलाव को किसने लाया? और किस तरह? अगर पीछे मुड़कर देखें तो मालूम होता है कि हमने एक लंबी यात्रा तय की है। हमारे पुरखों ने उस समय की चुनौतियों से मुठभेड़ की ताकि कोई ठोस हल निकाला जा सके। उनके त्याग और तपस्या की बदौलत ही आज हम ‘वर्तमान’ को जी पा रहे हैं। ऐसे में उनके योगदान को नजरंदाज ही नहीं किया जा सकता।
शुरुआती जीवन
ऐसे ही कई लोगों में एक नाम है डॉ. सत्यवती मोतीराम सिरसट का। इनका जन्म 7 अक्टूबर, 1925 को कराची में हुआ था। उन्होंने अपने जीवन में करीब 50 साल कैंसर के क्षेत्र में अनुसन्धान करने में लगा दिये। इनके पिता, जहाजों का उद्यम चलाते थे, जिसके कारण उन्होंने अलग-अलग देशों में उनके साथ यात्रा बहुत छोटी उम्र में ही करनी शुरू कर दी थी। यात्राओं से भरे शुरुआती जीवन में सत्यवती को कई संस्कृतियों से जुड़ने का मौका मिला। कई भाषाएं सीखने का मौका मिला; अपनी मातृभाषा गुजराती के साथ-साथ वह तमिल, कन्नड़, हिंदी मराठी और अंग्रेजी और फ्रेंच भाषा भी जानती थीं।
उनके पिता अंग्रेजी के प्रोफ़ेसर भी थे। वे सेंट जेवियर्स कॉलेज, मुंबई में पढ़ाते थे और संस्कृत के विद्वान थे। माता और पिता, दोनों हिंदू धर्म की ‘ब्रह्मविद्या’ के अनुयायी थे। इसका असर बच्चों पर भी पड़ा। सत्यवती ने अपने जीवन के आखिरी पड़ाव में प्राचीन भारतीय ज्ञान को आधुनिक विज्ञान के साथ जोड़कर देखा। सत्यवती की माता चेन्नई में बसी गई ताकि बच्चों की शिक्षा बाधित ना हो। सत्यवती को डॉ. का. जॉर्ज और रुक्मिणी अरुंडेल के बेसेंट मेमोरियल स्कूल भेज दिया गया। रुक्मिणी अरुंडेल के पास ही उनका दक्षिण भारत के नृत्य और शास्त्रीय संगीत से परिचय हुआ था।
कैंसर अनुसंधान संस्थान में संस्थापक की भूमिका
साल1947 में उन्होंने सेंट जेवियर्स से माइक्रोबायोलॉजी में बी.एस.सी की डिग्री हासिल की। ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी करने के बाद वह डॉ. वी.आर. खानोलकर से मिलने गई। खानोलकर, टाटा मेमोरियल अस्पताल में कैंसर और संबद्ध रोगों के लिए बने विभाग के प्रमुख थे। वर्ष 1948 में उन्होंने भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय ने टाटा मेमोरियल अस्पताल के पैथोलॉजी विभाग को पूरी तरह से कैंसर अनुसंधान संस्थान (सीआरआई) को समर्पित बनाने का निर्णय लिया। सत्यवती संस्थापक सदस्य के रूप में इस संस्थान के साथ जुड़ी। वर्ष 1958 में उन्होंने अपनी पीएचडी पूरी की। पीएचडी की उपाधि हासिल करने के बाद वह इलैक्ट्रान माइक्रोस्कोपी में आगे पढ़ने के लिए लंदन गई। वहां उन्होंने उस दौर के बड़े वैज्ञानिकों के काम को नजदीकी से देखा। इसके बाद भारत लौटने पर उन्होंने भारतीय कैंसर अनुसंधान केंद्र (सीआरआई) में इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी प्रयोगशाला की स्थापना की।
डॉ. सत्यवती ने कैंसर कोशिकाओं के प्लाज्मा झिल्ली के स्तर पर होने वाले परिवर्तनों को समझने के लिए ‘अल्ट्रास्ट्रक्चरल’ अध्ययन का बीड़ा उठाया। साथ ही मुंह और गले के कैंसर पर गहरा अध्ययन किया। उन्होंने यह उजागर किया कि तम्बाकू और पान का सेवन करने के कारण यह कैंसर हो रहा है। वही स्तन के कैंसर का अध्ययन करने के लिए आणविक पहलुओं पर अनुसन्धान की ज़रूरत थी। इसके लिए उन्होंने डैन मूर सहयोग लिया और बाद में टाटा इंस्टीट्यूट में एम. आर दास की मदद ली। सत्यवती देश-विदेश की कई नामी-गिरामी पत्रिकाओं की संपादक मंडल में शामिल रहीं। जिसमें बायोसाइंसेज और इंडियन जर्नल ऑफ एक्सपेरिमेंटल बायोलॉजी शामिल हैं।
शांति अवेदना आश्रम की स्थापना
कैंसर के मरीज असाध्य रूप से बीमारी ग्रस्त होते हैं। उनकी देखभाल, ठहरने के लिए बेहतर जगह की कमी थी। मरीज अस्पताल में इधर-उधर वक्त काटने की कोशिश करते थे। इसे देख सत्यवती ने इलाज से अलग मरीजों की मदद करने के लिए भी सोचा। डॉक्टर के साथ-साथ उन्होंने सामाजिक कार्यों में रूचि लेनी शुरू की। उन्होंने मुंबई में शांति अवेदना आश्रम (सदन) की स्थापना की। इस काम में ल्यूसिटो डिसूजा ने खासी मदद की थी। एक मायने में यह भारत की पहली धर्मशाला थी; जहाँ कैंसर के मरीजों की देखभाल की जाती थी। सत्यवती लम्बे समय तक इस धर्मशाला से जुड़ी रहीं।
भारतीय विद्या भवन आयुर्वेदिक केंद्र
साल 1985 में उन्होंने रिसर्च के क्षेत्र से रिटायमेंट होने के बाद वह पूरी तरह से सामाजिक कार्यों में शामिल हो गईं। हालांकि सेवानिवृत्ति के बाद भी वह लम्बे समय तक टाटा मेमोरियल अस्पताल से जुड़ी रही। टाटा मेमोरियल सेंटर की एथिक्स कमिटी के अध्यक्ष के रूप में काम किया। वह स्वास्थ्य के क्षेत्र में लगातार योगदान देती रही। साथ ही, उन्होंने 17 वर्षों तक प्राचीन अंतर्दृष्टि और आधुनिक खोज विषय पर विद्या भवन आयुर्वेदिक केंद्र के साथ काम किया। यहां काम करते हुए उन्होंने अपने संस्कृत के ज्ञान का इस्तेमाल किया। डॉ. सत्यवती ने शोध और समाजसेवा के कामों के अलावा लेखन कार्य भी किया। साल 1998 में उन्होंने डेथ, द फाइनल फ्रीडम में अपने कामों के बारे में लिखा।
विज्ञान के क्षेत्र में अनेक अनुसंधान, रिसर्च पेपर और भारतीय स्वास्थ्य सेवाओं के सुधार के प्रयास में उनके योगदान के लिए उन्हें कई पुरस्कार और सम्मानों से सम्मानित किया गया। डॉ. सत्यवती को भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के शकुंतला देवी अमीरचंद पुरस्कार, जैविक इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी के लिए ट्रांस एशियन पुरस्कार और विज्ञान और मानवता के लिए भारतीय विद्या भवन के प्रशस्ति पत्र फॉर लाइफटाइम पुरस्कार जैसे पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। 1975 में उन्हें भारतीय विज्ञान अकादमी का फेलो भी चुना गया था। डॉ. सत्यवती की पहचान एक पुस्तक प्रेमी की भी थी उन्हें पढ़ने का बहुत शौक था। साथ ही अलग-अलग तरह की कलाओं के प्रति उनके जुनून ने उनके व्यक्तित्व को एक अनोखा रंग दिया।
10 जुलाई 2010 को डॉ. सत्यवती ने इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया। विज्ञान, साहित्य, संगीत और नृत्य के क्षेत्र में मजबूत हस्तक्षेप रखने वाली डॉ.सत्यवती ने भारत में कैंसर की वैज्ञानिक जांच का मार्ग तैयार किया था, जिस पर चलकर देश आज खूब तरक्की की है। हम मुंह के कैंसर के प्रति अधिक जागरूक और तैयार हुए जो उनके शोध का यह प्रमुख विषय था। भारत के युवा अब तम्बाकू और उसके उत्पादों के दुष्प्रभावों के बारे में जानते हैं। आज भी दक्षिण एशियाई देशों के कई शोधार्थी उनके शोध से लाभ उठा रहे हैं। इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी के क्षेत्र में उनका काम भारतीयों की एक पूरी पीढ़ी के लिए उपयोगी बना हुआ है।
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