भारतीय घरेलू कामगार महिलाओं का जीवन हमेशा ही संघर्षपूर्ण रहा है। हालांकि उसका रूप बदलता रहा है लेकिन हालात में बहुत ज्यादा परिवर्तन नहीं आया है। यह महिलाएं सदियों से अपने हक़ के लिए लड़ती आ रही हैं। कहने को भले ही उनके कई नाम हो, पर आज इन कामगार महिलाओं को अब कई गुना चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। आधुनिक समय में घरेलू कामगार महिलाएं अपने अधिकार के साथ-साथ सम्मान की भी मांग करती हैं। घरेलू कामगार महिलाओं का इस क्षेत्र में काम कभी भी आसान नहीं रहा है। विभिन्न खबरों में घरेलू कामगारों के साथ शारीरिक, मानसिक या यौन शोषण होना की खबरें सामने आती रहती है।
जबरदस्ती घर में कैद करना, अतिरिक्त काम का बोझ, समय पर वेतन न मिलना, कम वेतन या वेतन ही न मिलना, शारीरिक, मानसिक और यहां तक कि यौन शोषण की खबरें आम हैं। पिछले द हिन्दू में छपी एक खबर अनुसार गुरुग्राम में एक घरेलू कामगार के साथ शारीरिक, मानसिक और यौन शोषण किया गया जहां एक नाबालिक लड़की को परिवार के तीन लोगों ने मिलकर लगभग छः महीनों से बंधक बनाकर रखा गया था। आज हालांकि बड़े शहरों में ऐसे केंद्र हैं जहां कामगारों को रजिस्टर किया जाता है और सेंटर से घरों में काम के लिए भेजा जाता है। लेकिन यहां भी शोषण की कहानी खत्म नहीं होती। ऐसे सेंटर में बाकायदा कॉमिशन देने की जरूरत पड़ती है। हालांकि ये कुछ हद तक रोजगार की गारंटी देता है। लेकिन अधिकारों को सुनिश्चित करने के मामले में ऐसे सेंटर खुद बाधा बन जाते हैं।
जातिगत भेदभाव से लेकर शोषण है आम
कई आँकड़े बताते हैं कि घरेलू कामगार महिलाओं के साथ गाली-गलौज, मानसिक, शारीरिक एवं यौन शोषण, चोरी का आरोप, इनके साथ जातिगत भेदभाव जैसे, चाय के लिए अलग कप रखना सामान्य सी बात है। ऐसे में उनका शोषण होता रहता है। लेकिन अपनी समस्याओं और चुनौतियों की बात आधिकारिक रूप से वो नहीं बता पाती। उन्हें यह डर होता है कि उन्हें काम से निकाल दिया जाएगा। नैशनल डोमेस्टिक वर्कर्स मूवमेंट के अनुसार घरेलू कामगारों में बड़ी संख्या लड़कियों और महिलाओं की है। साल 2000 और 2010 के बीच, भारत में घरेलू कामगारों की कुल संख्या में वृद्धि में 75 प्रतिशत की हिस्सेदारी महिलाओं की थी।
पूरे दिन में तीन घरों में काम कर पाती हूँ क्योंकि अपने घर पर भी काम करना होता है। परिवार का भी ध्यान रखना होता है। जब काम करने जाती हूँ, वहां सबकुछ सही ही रहता है। लेकिन समय पर वेतन नहीं मिलता है। इसलिए, दिक्कत होती है क्योंकि वही जरिया है परिवार के पालन पोषण करने का।
महिलाओं के खिलाफ हिंसा को समाप्त करने, अधिकार और नेतृत्व विकास और नारीवादी चेतना को गहरा करने के मुद्दों पर काम कर रही गैर सरकारी संस्था जागोरी ने घरेलू कामकाज में महिलाओं के व्यावसायिक स्वास्थ्य और कल्याण को उजागर करने के लिए एक स्टडी किया। इस सर्वे के अनुसार सर्वे में शामिल 25 फीसद महिलाओं ने कहा कि उनके लिए अलग बर्तन रखे जाते हैं। वहीं 18 फीसद ने बताया कि उनके लिए पानी और खाने का कोई इंतजाम नहीं होता है।
13 फीसद महिलाएं ऐसी थीं जिन्होंने बताया कि बीमार पड़ने पर भी छुट्टी नहीं मिलती। हालांकि घरेलू कामगार महिलाओं ने अपने हक के लिए पहले कई आंदोलन किए हैं। पर आज भी हालात में बहुत ज्यादा सुधार नहीं हुआ है। 1980 के आंदोलन में घरेलू कामगार महिलाएं अपने हक़ के लिए सड़कों पर तब उतरी थी जब महाराष्ट्र के पुणे में एक घरेलू महिला कामगार को काम से निकाल दिया गया था क्योंकि महिला बीमार थी और काम पर नहीं जा सकी थी।
घरेलू कामगार महिलाओं की कम वेतन की समस्या
हालांकि किसी भी महिला के काम को समाज कमतर ही समझता है, लेकिन घरेलू महिलाएं पायदान के आखिर में खड़ी हैं। इन महिलाओं के काम को हमेशा ही कम महत्व दिया गया है जिनके ऊपर कई बार पूरा का पूरा परिवार टिका रहता है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संघठन के अनुसार, महिलाओं को घरेलू काम में पुरुषों के तुलना में कम महत्व दिया जाता है। हालांकि यह रूढ़िवादी सोच सालों से समाज पर हावी है। लेकिन हम पाते हैं कि घरेलू कामगार महिलाओं के जिम्मे जो काम होता है जैसेकि घर की साफ सफाई, बर्तन साफ करना, कपड़े धोना, खाना बनाना, बच्चे और बुजुर्ग का ख्याल रखना आदि यह सब देखने और सुनने में बहुत आसान प्रतीत होता है।
लेकिन इसे करते हुए महिलाएं अनेकों काम करती हैं। लेकिन फिर भी इनके वेतन में सालों साल कोई बढ़ोतरी नहीं होती। जागोरी के सर्वे में पाया गया कि 21 फीसद घरेलू कामगार महिलाएं महीने का 5000 रुपये से कम कमाती हैं। 46 फीसद महिलाएं 5-10 हजार रुपये महीना कमा पाती हैं। 15-20 हजार प्रतिमाह कमाने वाली महिलाएं 6.9 फीसद हैं और मात्र 1.9 फीसद महिलाएं ही 20 हजार से ज्यादा कमा पाती हैं। यानी 68 फीसद महिलाएं ऐसी हैं जो 10 हजार प्रति माह से कम कमा पाती हैं।
घरेलू कामगार महिलाओं के साथ जातिगत भेदभाव
भारतीय घरेलू कामगार महिलाओं के साथ जाति के आधार पर भेदभावपूर्ण व्यवहार सदियों से प्रचला आ रहा है। आज भी कहीं न कहीं यह कायम है। कई घरों में कामगार महिलाओं के लिए घरों में अलग से थालियों का प्रावधान है। उन्हें पूजा-पाठ वाले कक्ष में प्रवेश करने से मना किया जाता है। बहुत सी जगह तो शौचालयों में भी जाना मना है। इस तरह से घरेलू कामगार को अपमान करने के लिए कई और रूप उपलब्ध है जिसमें जाति बहुत बड़ी भूमिका निभाती है। घरेलू काम को आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण द्वारा ‘अनौपचारिक’ के रूप में वर्गीकृत किया गया है। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, भारत में 4.75 मिलियन घरेलू कामगार हैं। भारत के 31 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से केवल 10 ने घरेलू कामगारों को न्यूनतम मजदूरी अधिनियम की अनुसूची में शामिल किया है। ऑल इंडिया सेंट्रल काउंसिल ऑफ ट्रेड यूनियंस के अनुसार घरेलू कामगार में से दो तिहाई से अधिक महिलाएं हैं। इस संख्या का एक बड़ा हिस्सा दलितों का है। ग्रामीण क्षेत्रों से बढ़ते पलायन के परिणामस्वरूप आदिवासी महिलाओं की संख्या बढ़ रही है जो इस कार्यबल में शामिल हो रही हैं।
“मैं दो साल से इस पेशे में अपनी सेवा दे रही हूं। मैं कथित नीची जाति से आती हूँ। काम खोज पाना बहुत मुश्किल होता है। कई बार तो मुझे मेरी जाति के कारण काम पर नहीं रखा जाता है। हालांकि मेरे लिए इसकी संख्या बहुत कम रही है।”
जाति की वजह से नौकरी में परेशानी
जातिगत भेदभाव पर घरेलू कामगार रेखा बताती हैं, “मैं दो साल से इस पेशे में अपनी सेवा दे रही हूं। मैं कथित नीची जाति से आती हूँ। काम खोज पाना बहुत मुश्किल होता है। कई बार तो मुझे मेरी जाति के कारण काम पर नहीं रखा जाता है। हालांकि मेरे लिए इसकी संख्या बहुत कम रही है।” यह केवल एक उदाहरण है जो दिखाती है कि किस तरह घरेलू महिला कामगार को समस्याओं का सामना करना पड़ता है। रेखा के अनुसार इन्हें महीने में तीन दिन की छुट्टी मिलती है। कभी अगर इनकी तबियत खराब हो जाए, या किसी कारण वो काम पर नहीं जा पाए, तो इस बात पर भी काम से निकाल दिए जाने का खतरा होता है। कई बार तो निकाल भी दिया जाता है। इन विषयों पर कामगार महिला मधु कहती हैं, “महीने की तीन छुट्टी मिलती है। कभी किसी कारण अगर हम काम पर नहीं जा पाए तो वो लोग दूसरी कामगार रख लेते हैं या डांट के भेज देते हैं। बहुत लोग फिर से बुला लेते हैं। लेकिन अभी तक ऐसे बहुत कम लोग मिले हैं।” इस तरह से यह काम देखने में बहुत आसान लगता है लेकिन इसे करते हुए बहुत सी समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
इस विषय पर बिहार की रहने वाली घरेलू कामगार रेणु बताती हैं, “मैं दिल्ली में काफी समय से हूँ। घरेलू कामगार के तौर पर मैं आठ साल से काम कर रही हूँ। पूरे दिन में तीन घरों में काम कर पाती हूँ क्योंकि अपने घर पर भी काम करना होता है। परिवार का भी ध्यान रखना होता है। जब काम करने जाती हूँ, वहां सबकुछ सही ही रहता है। लेकिन समय पर वेतन नहीं मिलता है। इसलिए, दिक्कत होती है क्योंकि वही जरिया है परिवार के पालन पोषण करने का। कई बार काम में मन नहीं लगता है।” घरेलू कामगार महिलाओं का जीवन बहुत संघर्षपूर्ण होता है। उनके लिए कभी कोई ठोस कानून नहीं बना। अगर कानून है भी तो वह उनकी पहुँच में नहीं होता। इतनी मेहनत करने के बावजूद भी वे सम्मान का जीवन नहीं जी पाती हैं। समय और हालात के अनुसार कामकाजी माहौल में बदलाव, वेतन में बढ़ोतरी जरूरी है।