यह हमारे पितृसत्तात्मक सामाजिक ढांचे का सच है कि यहां स्त्री को मजह उसकी लैंगिक पहचान की वजह से शोषण का सामना करना पड़ता है। इस पूरी व्यवस्था में पीढ़ी दर पीढ़ी महिलाएं असमानता, हिंसा को सहन करती आ रही हैं। यही वजह है कि इस उत्पीड़न को महिलाएं अपने जीवन का सच मान बैठती हैं। लेकिन कुछ महिलाएं होती हैं जो ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की संरचनाओं को चुनौती देकर अपनी जिंदगी की राह खुद बनाती हैं। ऐसी ही महिलाओं में से एक नाम है बेबी हलदर का। इनकी कहानी की शुरुआत भारत की लाखों-करोड़ों महिला की तरह होती है लेकिन उसके आगे के मोड़ वह खुद तय कर अपने जीवन का रास्ता चुनती हैं। आज बेबी हलदर एक जानी-मानी लेखिका हैं और विश्व की कई भाषाओं में उनकी किताबों का अनुवाद हो चुका है। आइए जानते हैं बेबी हलदर के जीवन संघर्ष की कहानी।
बेबी हलदर आज किसी पहचान की मोहताज नहीं हैं। उनका पूरा जीवन संघर्षरत रहा है और यह संघर्ष ही उनकी पहचान है। साल 1973 में बेबी का जन्म कश्मीर में हुआ था। बचपन में ही उनका अपनी मां से साथ छूट गया था। उन्हें कभी अपने पिता से भी प्यार-दुलार नहीं मिला। उनके पिता उनके साथ बुरा बर्ताव किया करते थे। पिता की मार, मां से दूर और मात्र 25 साल की अवस्था में तीन बच्चों की ज़िम्मेदारी। ये सब बेबी के जीवन का शुरुआती सारांश है।
बेबी बचपन से ही पढ़ने को इच्छुक थीं लेकिन बमुश्किल से उनकी पढ़ाई कक्षा छठवीं तक ही हो पाई। आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण और माता-पिता के झगड़े में महज चार साल की उम्र में उनकी मां से साथ छूट गया। उसके बाद उनके पिता ने दूसरी शादी कर ली। बेबी को नयी मां के साथ सामंजस्य बिठाने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। कुछ दिनों बाद बेबी के पिता का ट्रांसफर दुर्गापुर में हुआ। कुछ दिनों बाद बेबी भी अपने पिता के साथ कश्मीर से पश्चिम बंगाल आ गई। जहां उनकी दूसरी मां थीं। बेबी के बाद का बचपन कोलकाता में बीता और उसी दौरान उनकी पढ़ाई छूट गई।
छोटी उम्र में शादी और हिंसा
12 साल की उम्र में उनकी शादी एक ज्यादा उम्र वाले व्यक्ति के साथ कर दी गई। शादी के भी बेबी के हालात में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। पहले की तरह पिता की जगह अब वह पति से पिटती थीं। विवाह के बाद उनके पति ने उनका बलात्कार किया। शादी के रिश्ते में उनका शारीरिक और मानसिक शोषण होता रहा। 14 साल की उम्र में ही वह पहली बार मां बन गई। कई बार ससुराल की प्रताड़ना से बचने के लिए अपने माता-पिता के पास लौटीं लेकिन उन्हें यह समझाकर वापस भेज दिया जाता लड़कियों के साथ ऐसा ही होता है। आखिरकार मजबूर होकर उन्होंने हिंसा को स्वीकार भी कर लिया। लेकिन फिर एक घटना ने उन्हें झकझोर दिया। उन्होंने जब देखा कि उनकी की मौत हिंसा के कारण शादी के बाद हो जाती है तब उन्होंने पितृसत्ता की गुलामी से आज़ाद होने का फैसला किया।
12 साल की उम्र में उनकी शादी एक ज्यादा उम्र वाले व्यक्ति के साथ कर दी गई। शादी के भी बेबी के हालात में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। पहले की तरह पिता की जगह अब वह पति से पिटती थीं। शादी के रिश्ते में उनका शारीरिक और मानसिक शोषण होता रहा। 14 साल की उम्र में ही वह पहली बार मां बन गई।
25 साल की उम्र में वह अपने तीनों बच्चों के साथ घर छोड़ दिया। जब बेबी घर से निकलीं तो उनके पास न रहने को छत थी और न ही पेट भरने का ठिकाना था। वह केवल अपने साहस, जीवन जीने की चाह के बल पर निडर होकर निकल पड़ी थीं। उसके बाद उन्होंने घरेलू कामगार के तौर पर घरों में काम करना शुरू किया। इन परिस्थितियों में भी बेबी ने बच्चों की पढ़ाई का ध्यान रखा। वह शिक्षा के महत्व को जानती थीं और हर हाल में अपने बच्चों को शिक्षित करना चाहती थीं।
किताबों को निहारने से लेकर लिखने की शुरुआत
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इसी समय शुरुआत होती है बेबी की अपनी पहचान बनाने की। बेबी को बड़ी कठिनाइयों के बाद एक ऐसे घर में काम मिला जहां उनकी इज्ज़त होती थी। वहां उनके जीवन के संघर्षों को सुना गया। इसी के बाद बेबी का लिखने-पढ़ने का दौर शुरू होता है। उस घर के मालिक ने बेबी को लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। वह कोई और नहीं जाने-माने लेखक मुंशी प्रेमचंद के पोते प्रोफेसर प्रबोध कुमार थे। प्रोफेसर के घर में रखी किताबें बेबी को आकर्षित करती थीं और उनकी पढ़ने की इच्छा जागृत हुई।
बेबी की पहली पढ़ी जानेवाली किताब तस्लीमा नसरीन की आत्मकथा थी। इसके बाद उनका लगातार किताबों को पढ़ने का सिलसिला जारी रहा। उसी समय बेबी ने ‘अंधेरे का उजाला’ नाम की एक किताब लिखी। यह उनकी पहली रचना थी जो मूल रूप से बंगाली भाषा में लिखी गई थी। ‘आंलो-आंधारि‘ के शीर्षक के नाम से बेबी की आत्मकथा प्रकाशित हुई है जिसमें उन्होंने अब तक के पूरे जीवन को स्याहबद्ध कर दिया है।
बेबी की आत्मकथा का शीर्षक हुबहू बेबी को प्रस्तुत करता है अंधेरे का उजाला। किताब में उन्होंने बहुत ही सरल भाषा में अपनी कहानी को बयां किया। वह दिनभर अपना काम खत्म करके देर रात तक लिखा करती थीं। इस रचना को इतना सराहा गया की आज विदेशों में भी बेबी जानी जाती हैं। आलो-आंधारि का 13 विदेशी भाषाओं सहित 21 भाषाओं में अनुवाद किया गया है। साल 2008 में उनकी किताब का जर्मन भाषा में अनुवाद किया गया। इसी साल जर्मनी में प्रकाशित होने के अवसर पर वह जर्मनी की यात्रा पर गई। वहां भारत में वह महिलाओं की स्थिति पर बोली।
25 साल की उम्र में वह अपने तीनों बच्चों के साथ घर छोड़कर गुड़गांव के लिए निकल गई। जब बेबी घर से निकली तो न रहने को छत थी और न ही पेट भरने का ठिकाना था। वह केवल अपने अदम्य साहस, जीवन जीने की चाह के बल पर निडर होकर निकल पड़ी थी। उसके बाद उन्होंने घरेलू कामगार के तौर पर घरों में काम करना शुरू किया।
बेबी हलदर आज बहुत से लोगों के लिए प्रेरणास्रोत हैं। उनकी किताब का अंग्रेज़ी में अनुवाद उर्वशी बुटालिया द्वारा किया गया है। हिंदी में इसका अनुवाद खुद प्रबोध कुमार ने किया है। ‘आंलो-आंधारि‘ छपने के बाद बेबी की दृष्टि में व्यापकता आई है। जहां पहले वह अपने सुख-दुख तक सीमित थी, अब उनकी चिंता का विषय समाज है। समाज के गरीब, शोषित तबके के द:ख-दर्द के बारे में सोचती हैं। आलो-आंधरी के अलावा बेबी ने ईषत् रूपांतर, घोरे फेरार पथ जैसी अन्य किताबें बंगाली में लिखी है।
स्रोतः