इंटरसेक्शनल क्यों पुरुषों को नारीवादी होना चाहिए?

क्यों पुरुषों को नारीवादी होना चाहिए?

लैंगिक भेदभाव के विचारों में पले-बढ़े होने के के कारण पुरुषों से समाज को और स्वयं को गैर ज़रूरी और अतिरंजित उम्मीदें हो जाती है। लड़कों से खास तरह से दिखने, व्यहवहार करने और रहने की अपेक्षा होती है।

पुरुष को नारीवादी क्यों होना चाहिए? ये उस बड़े सवाल का हिस्सा है कि किसी को भी नारीवादी क्यों होना चाहिए? जैसे ही नारीवाद के बारे में बात शुरू होती है, कई बार अचानक विषय बदल जाता है और हमें ‘नारीवाद की बुराइयों’ और ‘खराब किस्म के नारीवाद’ पर लेक्चर सुनने को मिल जाते है। इसके बाद इस बारे में बात होती है कि ‘किस तरह फेमिनिस्ट पुरुषों से नफरत करती है?’ ‘प्रकृति ने पुरुष को ज्यादा ताकतवर बनाया है और बराबरी की बात कर नारीवादी, प्रकृति के खिलाफ जा रहे हैं’, ‘आजकल महिलाएं सारी नौकरियां ले जा रही है, और एक सवर्ण पुरुष का जीना कितना मुश्किल हो गया है’ और ये भी कि ‘ये सब महिलाएं होमोसेक्शुअल होती है जैसी बातें सुनने को मिलती हैं।

जैसे ही उनसे पूछा जाये की आपने नारीवाद के बारे में कहाँ से पढ़ा या जाना तो पता लगेगा कि ज्यादातर इधर-उधर से ये सब सुना है। वे नारीवादी आंदोलन के सीधे तौर पर संपर्क में नहीं आये हैं और ना ही उन्होंने ये जानने की कोशिश कभी की आखिर नारीवादी चाहते क्या हैं। उनके हिसाब से नारीवादी, कुछ ऐसी गुस्सैल, लड़ती और नारे लगाती लड़कियां है जो पुरुषों की तरह बनना चाहती है। बेल हुक्स अपनी किताब ‘फेमिनिस्ट थ्योरी: फ्रॉम मार्जिन तो सेंटर’ में लिखती है, ‘नारीवाद पुरुष विरोधी होना नहीं है, बल्कि लैंगिक भेदभाव के खिलाफ होना है।’

बेल हुक्स भी अपनी दूसरी किताब ‘फेमिनिज्म इज फॉर एवरीबडी’ में लिखती हैं, ‘ये बात सच है कि पितृसत्ता के होने से सबसे ज्यादा लाभ पुरुषों को हुआ है, जो इस धारणा पर टिका है कि पुरुष, महिलाओं से ज्यादा योग्य या ताकतवर होते हैं इसलिए उन्हें महिलाओं पर राज करना चाहिए। लेकिन ये लाभ एक कीमत मांगते हैं।

भले हम पुरुष हों या महिला, लैंगिक भेदभाव से जुड़े विचारों को स्वीकार करने के लिए हमारा जन्म से ही समाजीकरण शुरू हो जाता है। एक महिला भी लैंगिक भेदभाव को सही ठहरा कर इसकी वकालत कर सकती है। ये बात पुरुष वर्चस्व को सही ठहराने के लिए नहीं है बल्कि ये समझने के लिए है कि नारीवादी आंदोलन सीधे तौर पर पुरुषों के खिलाफ महिलाओं की लड़ाई नहीं है बल्कि ये हर समतावादी महिला और पुरुषों की लैंगिक भेदभाव के खिलाफ लड़ाई है। पितृसत्ता को खत्म करने के लिए हमें यह समझना होना होगा कि जब तक हम अपने दिल और दिमाग से लिंगभेद से जुड़े विचारों को त्याग कर नारीवादी विचारों को नहीं अपनाते हैं तब तक हम सभी लैंगिक पहचान के आधार पर होने वाले भेदभाव को कायम रखने में भागीदार हैं।

पितृसत्ता के विशेषाधिकार और उसकी कीमत

तस्वीर साभारः Feminism In India

जब मैं छोटा था तो मेरे एक भैया ने मुझे ये कहा कि उन्हें महिलाओं से नफ़रत नहीं है, वो अपनी पत्नी और बेटी से बहुत प्यार करते है लेकिन उस दुनिया के बारे में उनके लिए सोचना मुश्किल है जहाँ महिलाएं घर से बाहर कदम रखेगी और निर्णय लेगी, शायद ये समाज के लिए सबसे नुकसानदायक होगा। बेल हुक्स भी अपनी दूसरी किताब ‘फेमिनिज्म इज फॉर एवरीबडी’ में लिखती हैं, ‘ये बात सच है कि पितृसत्ता के होने से सबसे ज्यादा लाभ पुरुषों को हुआ है, जो इस धारणा पर टिका है कि पुरुष, महिलाओं से ज्यादा योग्य या ताकतवर होते हैं इसलिए उन्हें महिलाओं पर राज करना चाहिए। लेकिन ये लाभ एक कीमत मांगते हैं। पुरुषों को पितृसत्ता बनाये रखने के लिए महिलाओं पर प्रभुत्व जमाना पड़ता है, हावी होना पड़ता है या उनका शोषण और अत्याचार करना पड़ता है।’

यकीन मानिए ज्यादातर पुरुषों के लिए ये सब करना बहुत मुश्किल होता है। ज्यादातर पुरुष, महिलाओं के खिलाफ नफरत और हिंसा को देखकर बेचैन और परेशान होते हैं, कई बार तो इसमें वे पुरुष भी शामिल हैं जो ये हिंसा करते हैं। पर उन्हें ये सोच कर डर लगता है कि अगर महिलाएं उनके प्रभाव में ना रही तो क्या होगा? वे उस दुनिया के बारे में कल्पना कर के सिहर जाते हैं। इसलिए वे चुपचाप पितृसत्ता को समर्थन देते चले जाते हैं। जब भी कोई पुरुष कहता है कि उसे नहीं पता कि ‘नारीवाद क्या है और नारीवादियों को क्या चाहिए?’ हुक्स हमेशा उसकी बात पर यकीन करती है क्योंकि अगर वो नारीवाद के बारे में जानेंगे तो वो उससे डरना बंद कर देंगे। हुक्स पुरुषों की अपने आपको बदलने की क्षमता में विश्वास करती है। खास तौर पर तब जब वे ये जानेंगे कि नारीवाद उन्हें भी पितृसत्ता और लैंगिक भेदभाव की जंजीरों से मुक्त कर सकता है।

लैंगिक भेदभाव के विचारों में पले-बढ़े होने के के कारण पुरुषों से समाज को और स्वयं को गैर ज़रूरी और अतिरंजित उम्मीदें हो जाती है। लड़कों से खास तरह से दिखने, व्यहवहार करने और रहने की अपेक्षा होती है। समाज की परिभाषा में पुरुष खास तरह से मर्दाना नजर आना चाहिए। ‘उसका कद लम्बा होना चाहिए, मांसल शरीर और चेहरे पर घने बाल और भारी आवाज पुरुष के अच्छे दिखने का पैमाना है। उसे कम चहकना चाहिए, चटकीले रंगों के कपडे नहीं पहनने चाहिए, थोड़ी गंभीरता उसके चेहरे पर हमेशा चिपकी रहे, उसकी बॉडी लैंग्वेज कम एक्सप्रेसिव होनी चाहिए।

क्योंकि ‘ये लहर और लचक क्या है?’ ‘क्या तुम लड़की हो?’, भावुकता को तो उसे अपने आस-पास भी भटकने नहीं देना चाहिए क्योंकि भावुक पुरुष कमजोर होते हैं। आकर्षक पुरुष को नाच-गाने और कमर हिलाने से भी बचना चाहिए।’ इन सब अपेक्षाओं से घिरा पुरुष अपने व्यक्तित्व के एक पक्ष को कभी पहचान ही नहीं पाता। यदि उसे अपने सृजनात्मक पक्ष को समझना और प्रबल बनाना है, यदि उसे थोड़ा कम उबाऊ बनना है, जीवन में थोड़े रंग चाहिए, खुल के हंसना है, अपने मन के भावों को खुद भी अच्छे से समझना है और दुनिया को भी समझाना है, उसे अपनी अभिव्यक्ति को खुला और रुचिकर बनाना है तो उसे समतामूलक समाज के निर्माण के लिए कोशिश करनी चाहिए। इसके लिए एक पुरुष को नारीवादी होना जरूरी है।

हमारे समाज में काम का बंटवारा भी लैंगिक आधार पर ही बांटा गया है। पुरुष बाहर जा कर कमाता है और महिलाएं बच्चों का और घर के काम का ध्यान रखती है। इस ‘केयरगिविंग’ के कामों को कम करके आंका जाता है और यहीं से पुरुषों के स्वामित्व का रास्ता खुलता है। नैंसी फ्रेजर का ‘यूनिवर्सल केयरगिवर मॉडल’ इसके समाधान के लिए महिला और पुरुष दोनों को ही ‘ब्रेडविनिंग’ और ‘केयरगिविंग’ के काम को अपनाने का रास्ता दिखाता है। पुरुषों की नारीवाद में भागीदारी से समतामूलक समाज का सफर आसान होगा।

पुरुषों के लिए नसीहत और इंटरसेक्शनलिटी

तस्वीर साभारः Forbes

पुरुषों को नारीवादी विचारों को आत्मसात करने के साथ-साथ हमें ये भी ध्यान रखना चाहिए कि वे किसी नारीवाद के मंच को हाईजैक ना करें। महिलाओं के अनुभवों, पीड़ाओं और संघर्षों के बारे में सुनें और अपने तरीके सुझाने से पहले उनकी बात समझे जिन्होंने भेदभाव का सामना किया है। पुरुषों के पास जो विशेषाधिकार है उनके माध्यम से उन्हें स्वयं को भेदभाव का दंश झेल रही महिलाओं के अनुभवों के बारे में खुद को शिक्षित करने का प्रयास करना चाहिए। हालांकि पितृसत्ता सभी पुरुषों को विशेषाधिकार देती है लेकिन सभी ये उनकी पहचान के हिसाब से अलग-अलग मात्रा में होता है। तथाकथित सवर्ण, अमीर, बलवान, शहर में रहने वाले पुरुष निश्चित तौर पर एक दलित, गरीब, विकलांग, ग्रामीण, होमोसेक्सुअल या ट्रांस पुरुष की तुलना में एकदम अलग तरह से पितृसत्ता को महसूस करेंगे। इंटरसेक्शनल नारीवाद इन सभी हाशिये पर पड़ी पहचान वाले पुरुषों को भी पितृसत्ता के दंश से बचा सकता है।

पुरुषों के पास जो विशेषाधिकार है उनके माध्यम से उन्हें स्वयं को भेदभाव का दंश झेल रही महिलाओं के अनुभवों के बारे में खुद को शिक्षित करने का प्रयास करना चाहिए। हालांकि पितृसत्ता सभी पुरुषों को विशेषाधिकार देती है लेकिन सभी ये उनकी पहचान के हिसाब से अलग-अलग मात्रा में होता है।

अंत में, हमें हमारे चारों और देखना चाहिए की हम जहाँ रह रहें है या काम कर रहे हैं वहां हमारे से अलग और हाशिये की पहचान वाले कितने लोग आ पा रहे हैं। पिछले दो सालों से साउथ एशियन यूनिवर्सिटी में मैं किसी दलित, आदिवासी या ग्रामीण पिछड़े वर्ग से आने वाली किसी छात्रा से नहीं मिल पाया। यूनिवर्सिटी का नया कैंपस छतरपुर में मुख्य सड़क से एक किलोमीटर अंदर थोड़ी सुनसान जगह पर बना है, जहाँ से असोला के जंगल शुरू होते हैं। जब हम नए कैंपस में शिफ्ट हुए तो कुछ दिनों बाद ही, इस सुनसान रास्ते में रात को घर लौटती महिला गार्ड के साथ किसी ने यौन हिंसा की।

वहीं जयपुर में जब कभी किसी लड़की के साथ यौन उत्पीड़न की घटना हो जाती थी तो कई दिनों तक राजस्थान यूनिवर्सिटी के गर्ल्स हॉस्टल से लड़कियों का कॉलेज टाइम के अलवा बाहर जाना बंद कर दिया जाता था। हम तब तक समस्या को नहीं समझ पाएंगे जब तक इन सब घटनाओं को अलग-अलग कर के देखते रहेंगे। नारीवाद इन सब बातों को जोड़कर हमें एक सम्पूर्ण परिप्रेक्ष्य देता है। नारीवाद के जरिये ही हम समावेशी समाज के बारे में समझ बना सकते है। इन सब तथ्यों पर जब हम विचार करेंगे तो पुरुषों के नारीवादी होने के औचित्य भी बेहतर ढंग से समझ पाएंगे।


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