नर्सिंग का पेशा एक ऐसा पेशा है जिसमें मरीजों की देखभाल शामिल होती है। इस पेशे में आम तौर पर महिलाओं की संख्या अधिक है। एक अध्ययन के अनुसार महिलाएं नर्सिंग पेशे में मौजूद कार्यबल का 80 प्रतिशत हैं। इस पेशे में महिलाओं की संख्या अधिक होने की एक वजह कहीं न कहीं समाज में मौजूद रूढ़िवादी धारणा है कि महिलाएं बेहतर देखभाल करने वाली होती हैं। यही वजह है कि न केवल घर में देखभाल से जुड़ी ज़िम्मेदारी उन पर डाल दी जाती है, बल्कि पेशेवर स्तर पर भी उनसे ऐसे पेशे चुनने की अपेक्षा की जाती है, जिनमें देखभाल का पहलू शामिल होता है, जैसे- टीचिंग या नर्सिंग। मरीजों को गुणवत्तापूर्ण देखभाल मिल सके, इसके लिए मरीजों की निश्चित संख्या पर निश्चित संख्या में नर्स होना ज़रूरी है। भारत में वर्तमान में प्रति हजार लोगों पर 1.96 नर्सें हैं, जबकि नेशनल एक्रेडिएशन बोर्ड फॉर हॉस्पिटल्स एण्ड हेल्थकेयर के मानक के अनुसार जनरल वार्ड में प्रति 6 मरीज पर 1 नर्स होनी चाहिए। वहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए प्रति 10,000 जनसंख्या पर डॉक्टरों, नर्सों और आयाओं के लिए स्वास्थ्य (एचआरएच) के न्यूनतम मानव संसाधन के मानदंडों को 22.8 से संशोधित कर 2016 में 44.5 कर दिया था।
भारत में नर्सों की संख्या में कमी के कारण
भारत में नर्सिंग स्टाफ की कमी है और इसके कई कारण हैं। नर्सिंग पेशे में काम के बोझ, ज़िम्मेदारी और जवाबदेही और कई अन्य पेशों की तुलना में कम वेतन को देखते हुए, यह पेशा युवाओं के लिए आकर्षक पेशा नहीं रह जाता। साथ ही विकसित देशों की तुलना में, भारत में खासकर प्राइवेट अस्पतालों में, नर्सों को न उचित वेतन मिलता है और न ही सम्मान मिलता है। भारत में किसी पंजीकृत नर्स का औसत वेतन 3 लाख प्रति वर्ष है। अनुभव और विशेषज्ञता, नियुक्ति के स्थान के आधार पर यह अधिकतम 10 लाख तक होता है, वहीं स्विज़रलैण्ड जैसे विकसित देश में किसी पंजीकृत नर्स का औसत वेतन 10 लाख प्रति वर्ष है। यही वजह है कि भारत की बहुत सी प्रशिक्षित नर्सें अधिक सम्मान और बेहतर वेतन की वजह से विकसित देशों की ओर पलायन भी कर जाती हैं।
कैसे और किस तरह के काम करती हैं नर्सें
स्वास्थ्य के क्षेत्र में नर्सों की एक अहम भूमिका होती है। वे मरीजों और तीमारदारों के सबसे ज्यादा सम्पर्क में रहती हैं। मरीजों को सही देखभाल मिले यह सुनिश्चित करने के साथ-साथ, उनके स्वास्थ्य में हो रही प्रगति की निगरानी करना, मरीज़ों और तीमारदारों को डॉक्टर के निर्देश सरल भाषा में समझाना और कभी-कभी मरीज को भावनात्मक सहयोग प्रदान करना ये उनके काम होते हैं। वे डॉक्टर और मरीज़ दोनों के लिए, एक प्राथमिक सम्पर्क बिन्दु होती हैं। अगर मरीजों और उनके तीमारदारों के कुछ सवाल होते हैं, तो वे नर्स से ही पूछते हैं। इसके साथ ही वे डॉक्टर्स को मरीज के स्वास्थ्य सम्बन्धी अपडेट्स देती हैं और अगर किसी मरीज की हालत अचानक खराब हो जाती है, तो वे डॉक्टर्स को इसकी जानकारी देती हैं। लेकिन दूसरों की देखभाल में लगी नर्सों को आमतौर पर अपने पेशे में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। वे कम संसाधनों, स्टाफ की कमी, काम के लम्बे घण्टों, तीमारदारों और मरीजों द्वारा दुर्व्यवहार जैसी कुछ आम चुनौतियों का सामना करती हैं। यह ज़रूरी है कि उनकी चुनौतियों को समझा जाए और उनके समाधान ढूंढे जाए। उनकी चुनौतियों को समझने के लिए हमने अलग-अलग अस्पतालों में काम कर रही कुछ नर्सों से बात की।
बहुत प्रेशर में करना होता है काम
कानपुर की रहनेवाली 28 वर्षीय हुमा पिछले पांच साल से कानपुर के अलग-अलग गैर सरकारी अस्पतालों में बतौर नर्स काम कर रही हैं। वे बताती हैं, “हमारी छह घण्टे की ड्यूटी होती है जिसमें ब्रेक के लिए कोई निश्चित समय नहीं होता है। एक्स्ट्रा स्टाफ है या बीच में समय मिल गया, तो आप खाना खा सकते हो। कभी-कभी खाना खाने का टाइम मिलता ही नहीं। ऐसे में हमारे लिए खुद के खाने-पीने का ध्यान रख सकना मुश्किल होता है। कभी-कभी तो लगता है कि दूसरे मरीज़ों को देखते-देखते हम खुद ही मरीज़ बन जाएंगे।” आगे वे बताती हैं कि मेडिकल फील्ड एक ओपन फील्ड होती है। इसमें किसके सामने किस तरह की शब्दावली का इस्तेमाल करना है, इसका ध्यान नहीं रखा जाता और अकसर हमारे सहकर्मी सबके सामने ऐसी अभद्र भाषा का इस्तेमाल करते हैं, जो उन्हें बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। मरीज़ों के तीमारदारों की तरफ़ से होने वाली दिक्कतों को साझा करते हुए वे बताती हैं, “कई बार तीमारदारों को इतनी जल्दी रहती है कि वो ये समझ ही नहीं पाते कि हम बहुत प्रेशर में काम करते हैं और उनके इस तरह जल्दबाजी करने पर काम बिगड़ सकते हैं।”
कानपुर के ही एक दूसरे प्राइवेट अस्पताल में पिछले एक साल से बतौर नर्स काम कर रही 23 वर्षीय मोनी यादव काम के लम्बे घण्टों के बारे में बताते हुए कहती हैं, “कई बार ऐसा होता है कि हमने अपनी छह घण्टे की ड्यूटी पूरी कर ली। लेकिन, कोई दूसरा स्टाफ ड्यूटी पर आया नहीं या फिर कोई नौकरी छोड़कर चला गया, तो फिर ऐसे में हमें उसकी जगह पर ड्यूटी करनी पड़ती है। इस तरह पूरे बारह घण्टे भी काम करना पड़ते हैं।” इसके अलावा उन्होंने बताया कि उन्हें मरीज़ों या उनके तीमारदारों की तरफ़ से दुर्व्यवहार का सामना भी करना पड़ता है और उन्हें जितना काम करना पड़ता है, उस हिसाब से उनका वेतन भी कम रहता है। बता दें कि आम तौर पर कानपुर में नर्सों का वेतन 13000 से 41000 हज़ार के बीच होता है।
कैसे संसाधनों की कमी में काम करती हैं नर्सें
उत्तरप्रदेश के बलरामपुर जिले में स्थित एक सरकारी प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र के डिलीवरी वार्ड में नर्स के तौर पर काम कर रही 30 वर्षीय प्रियंका तिवारी पिछले नौ सालों से नर्सिंग के पेशे में हैं। वे भी स्टाफ नर्स की किल्लत के बारे में बताते हुए कहती हैं, “गाइडलाइन के अनुसार वार्ड में छह बेड पर एक नर्स होनी चाहिए और आईसीयू में एक या दो मरीज पर एक नर्स होनी चाहिए, लेकिन कभी भी उतना स्टाफ रहता नहीं।” उन्होंने बताया कि उनके अस्पताल में दो डिलीवरी वार्ड हैं और उन दोनों में 15 बेड हैं, फिलहाल उनके अस्पताल में 9 नर्सें हैं और एक शिफ्ट में 3 नर्स इन दोनों वार्ड के कुल 30 बेड को देखती हैं। इसके साथ में प्रियंका ने यह भी बताया कि मरीजों और उनके तीमारदारों की तरफ़ से भी उन्हें कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है।
वे आगे बताती हैं, “हम डॉक्टर के निर्देश के बिना इलाज शुरू नहीं कर सकते। मगर तीमारदार ये बात नहीं समझ पाते और अगर डॉक्टर के आने से पहले मरीज को कुछ हो गया तो वे ये समझते हैं कि स्टाफ नर्स ने कुछ किया नहीं। कई बार ऐसा भी होता है कि हमने मरीज को कुछ निर्देश दिए और उसकी तरफ़ से उन निर्देशों के पालन में लापरवाही हो गई, तो भी इल्ज़ाम हम पर ही लगता है कि नर्स ने लापरवाही कर दी।” आगे उन्होंने सरकारी अस्पतालों में संसाधनों की अनुपलब्धता की बात बताते हुए कहा कि कई बार दवाइयां अनुपलब्ध होने की वजह से, उन्हें मरीज़ को या तो किसी बड़े अस्पताल रेफर करना पड़ता है या मरीजों के तीमारदारों से बाहर से दवा लाने को कहना पड़ता है। बाहर दवा मिल ही जाए यह ज़रूरी नहीं होता। कई बार दवा न मिलने पर या दूसरे अस्पताल ले जाने के दौरान मरीज की मौत हो जाती है। इस पर प्रियंका कहती हैं, “कोई मरीज जो बच सकता था, उसे अपनी आँखों के सामने मरते हुए देखना, इससे बड़ी चुनौती कुछ नहीं हो सकती।”
ग्रामीण क्षेत्र में काम करने वाली नर्सों की चुनौतियां
नर्सों की चुनौतियों की बात करें तो ग्रामीण क्षेत्रों की नर्सों की चुनौतियाँ कुछ अलग ही होती हैं। छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के एक ब्लॉक में स्थित उप-स्वास्थ्य केन्द्र में बतौर नर्स काम कर रही प्रमिला (बदला हुआ नाम) पिछले दो सालों से काम कर रही हैं। वे बताती हैं, “गांव की कुछ महिलाएं हमसे ज़्यादा गांव की दाई की सलाह पर विश्वास करती हैं। साथ ही, मैं जिस केन्द्र पर काम करती हूँ, वहां टॉयलेट में पानी नहीं रहता है। ऐसे में उन्हें इधर-उधर से पानी का बन्दोबस्त करना पड़ता है। मैंने इस बारे में अपने ब्लॉक मेडिकल ऑफिसर से शिकायत भी की।”
“हम डॉक्टर के निर्देश के बिना इलाज शुरू नहीं कर सकते। मगर तीमारदार ये बात नहीं समझ पाते और अगर डॉक्टर के आने से पहले मरीज को कुछ हो गया तो वे ये समझते हैं कि स्टाफ नर्स ने कुछ किया नहीं।”
किसी भी स्वास्थ्य व्यवस्था में नर्सों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। लेकिन नर्सिंग के पेशे में मौजूद लड़कियों के पास समस्याओं की कमी नहीं है। उनकी चुनौतियों को न सिर्फ़ पहचानना ज़रूरी है, बल्कि इनका समाधान ढूँढना भी ज़रूरी है। ज़ाहिर है कि उनकी कुछ चुनौतियां मौजूदा तंत्र की वजह से है। लेकिन कुछ चुनौतियां ऐसी हैं, जिनके समाधान खोजे जा सकते हैं। कार्यस्थल पर मरीजों की तरफ़ से उनके प्रति होनेवाला दुर्व्यवहार ऐसी ही एक चुनौती है। इसमें मरीजों और उनके तीमारदारों की तरफ से होने वाला दुर्व्यवहार और सीनियर स्टाफ की तरफ से होने वाला दुर्व्यवहार दोनों शामिल हैं।
नर्सों के अधिकारों के बारे में इंडियन नर्सिंग काउंसिल और स्टेट नर्सिंग काउंसिल की तरफ से किसी भी प्रकार के नीतिगत दस्तावेज का प्रावधान नहीं है। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने अगस्त 2020 में स्वास्थ्य देखभाल संस्थानों में काम कर रही नर्सों के काम करने के हालातों में सुधार के लिए एक मसौदा जारी किया था। इसमें भी कार्यस्थल पर होने वाले दुर्व्यवहार को लेकर कुछ खास दिशा-निर्देश नहीं दिए गए हैं। नर्सों की सुरक्षा के लिए न सिर्फ उचित नीतियां होनी चाहिए, बल्कि ज़मीनी स्तर पर उनका कार्यान्वयन भी उतना ही ज़रूरी है।