ग्राउंड ज़ीरो से देशभर में दूर-दराज के क्षेत्रों में पानी के लिए संघर्ष में बीतता महिलाओं का जीवन

देशभर में दूर-दराज के क्षेत्रों में पानी के लिए संघर्ष में बीतता महिलाओं का जीवन

आज से 60 साल पहले कभी गुजरात के डांग जिले के लाहन झाड़दार गाँव की महिलाएँ गर्मी के दिनों में गाँव से पाँच-छह किलोमीटर दूर किसी जलाशय के पास जाकर झारा नामक छोटी सी खाई खोदती थीं, पानी इकट्ठा करती थीं और उसे अपने बर्तनों में जमा करती थीं। आजादी के 75 साल बाद भी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है।

इस बार गर्मियों में, राजस्थान-उत्तर प्रदेश (उत्तर भारत), बिहार-झारखंड-पश्चिम बंगाल (पूर्वी भारत) तथा मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़ एक सौ से ज्यादा जिलों में तापमान 47 डिग्री सेंटीग्रेड से ऊपर जा पहुँचा है। गर्मी में हर बार की तरह पानी की कमी का असर महिलाओं पर सबसे ज्यादा पड़ रहा है। क्योंकि घरों के काम, रसोई आदि के लिए पानी की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी घर की महिलाओं और लड़कियों की मानी जाती हैं। यही वजह है कि वे बिना किसी शिकायत और समस्याओं पर ध्यान न देकर पीढ़ी दर पीढ़ी पानी जुटाने के काम में लगी नज़र आती हैं। सवाल है कि पानी के नाम पर हजारों करोड़ की रकम, बड़ी योजनाएं और वादों का कितना लाभ वास्तव में देश की महिलाओं को मिला है? 

पानी किसकी जिम्मेदारी?

दुनिया भर में घरों में पानी की व्यवस्था करने का भार महिलाओं पर हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण मौसम में बदलाव, सूखा और बारिश की कमी ने हालात और मुश्किल कर दिए हैं। नेचर क्लाइमेट चेंज में हाल में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक़ जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया भर में पानी इकठ्ठा करने के भार महिलाओं पर बढ़ा है। आज से 60 साल पहले कभी गुजरात के डांग जिले के लाहन झाड़दार गाँव की महिलाएँ गर्मी के दिनों में गाँव से पाँच-छह किलोमीटर दूर किसी जलाशय के पास जाकर झारा नामक छोटी सी खाई खोदती थीं, पानी इकट्ठा करती थीं और उसे अपने बर्तनों में जमा करती थीं। आजादी के 75 साल बाद भी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। समाजसेवी सूरजभाई गंगाभाई कुंवर कहते हैं, “समुदाय की महिलाओं को आज भी ऐसा ही करना पड़ता हैं। भील, वारली, कुनबी और कोंकणी जनजातीय समुदायों की महिलाओं के लिए पानी की उपलब्धता आज भी संशयमुक्त नहीं है, इसके चलते सरकारी तंत्र से यकीन उठने लगा है। संकटों को खुद झेलना उनकी नियति हो चुकी है।”

दमोह जिला मुख्यालय से 50 किमी दूर जबेरा विधानसभा की अंतिम सीमा से लगी की ग्राम पंचायत पौंडी के आदिवासी गांव देवतरा में पानी का कोई स्रोत नहीं बचा है। इस गांव में कहने को दो हैंडपंप और एक कुआं हैं लेकिन जलस्तर गिरने से हैंडपंप पानी की जगह हवा फेंक रहे हैं और कुएं भी सूख गए हैं। ऐसी स्थिति में पूरा गाँव जंगल के प्राकृतिक झिरिया (झरना) के सहारे प्यास बुझाने के लिए मजबूर हैं।

जमशेदपुर स्थित स्वयंसेवी संस्था यूथ यूनिटी फॉर वॉलंटरी एक्शन की अध्यक्षा बरनाली चक्रवर्ती कहती हैं, “देश भर का पहाड़ी और देहाती समाज जिसके लिए गर्मी के दिनों में पानी नेमत से कम नहीं होता। उसके लिए घर से मीलों दूर जाकर महिलाओं का भटकना लोकतंत्र का भटकाव है।” देश के अनगिनत पठारी और पहाड़ी इलाकों में महिलाओं को बालू खोदकर बर्तनों में पानी जमा करना पड़ता है, पानी जुटाने का काम मर्द नहीं करते। घरों में पीने के पानी, स्वच्छता और साफ-सफाई में लैंगिक असमानताओं के परिप्रेक्ष्य में यूनिसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर के ग्रामीण और पहाड़ी इलाकों में गाँव-बस्ती के दस में से सात घरों में पानी लाने के लिए महिलाएं और लड़कियां जिम्मेदार होती हैं।

ओडिशा में मलकानगिरी में सरकारी नल से पानी भरते बच्चे और महिलाएं। तस्वीर साभारः अमरेंद्र किशोर

देश के दूर-दराज के क्षेत्रों में भीषण गर्मी के समय में पानी के लिए संघर्ष बढ़ जाता है। जैसे ओडिशा के सुंदरगढ़ में बहनेवाली सदानीरा इब नदी की रेतीली कोख में जमा लाखों लीटर पानी गर्मी के दिनों में कोपसिंघा और लंकाहुडा गाँव के लोग ऐसे ही जुटाते हैं। ओडिशा के कालाहांडी स्थित स्वास्थ्य स्वराज की उपाध्यक्ष डॉ. शान्तिदानी मिंज बताती हैं, “पानी की समस्या ओडिशा में गंभीर होती जा रही है। आबोहवा में तेज़ी से आते बदलाव ने फसल चक्र से लेकर जैव-संसाधनों को प्रभावित किया है। पानी की कमी सबसे तेज़ी से उभरनेवाली समस्या है।” 

पानी की कमी और स्त्री की अस्मिता के बीच निसहाय क़ानून   

पूरी दुनिया भर में पहाड़ी इलाकों में परंपरागत तौर से पानी और जलावन की लकड़ियां जुटाने के साथ-साथ मवेशियों की देखरेख का काम अधिकत्तर महिलाएं करती नज़र आती हैं। विशेष रूप से पानी की कमी वाले क्षेत्रों में, पानी इकट्ठा करने में लगने वाला समय अन्य गतिविधियों, जैसे शिक्षा, भुगतान कार्य और स्वास्थ्य देखभाल में बाधा पैदा होती है। इस वजह से महिलाओं के जीवन की गुणवत्ता में गिरावट आती है। नतीजतन छोटी लड़कियों की शिक्षा और महिलाओं के आय सृजन और उनकी सामुदायिक गतिविधियों में भागीदारी के अवसर सीमित हो जाते हैं। उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले उमरिया डोंगरा गाँव के अलावा उसके समीपवर्ती गाँव हनोतिया, मुदनारी और बेतना की कई छात्राओं ने इस बात की पुष्टि की है कि पानी भरने के काम की वजह से उनका बहुत सारा वक़्त बर्बाद हो जाता है और वे देरी से विद्यालय पहुंचती हैं। उन्होंने बताया कि उनकी पढ़ाई का बेहद नुकसान होता है। देरी से क्लास में पहुंचने से पढ़ाई पिछड़ती है और कुछ लड़कियों की इस वजह से पढ़ाई तक छूट गई है।

उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले में पानी लेने जाती छोटी लड़की। तस्वीर साभारः अमरेंद्र किशोर

बुंदेलखंड का यह सच ख़बरों में सामने नहीं आता। बिहार के कैमूर की पहाड़ियों में पेय जल की समस्या से जूझती वहां के सात दर्जन गांवों की आबादी सरकार की सुविधाएं सूखने और असफल होने के बाद प्राकृतिक स्थलों का सहारा लेने को मजबूर हो जाती हैं। मध्य प्रदेश के कुल 925 फारेस्ट विलेज की कहानी बेहद मार्मिक है। जहाँ गाँव की महिलाएँ पानी इकट्ठा करने के लिए हर दिन जंगल के रास्ते से पाँच से सात किमी पैदल चलती हैं। उन्हीं गाँवों में एक देवतरा गाँव है। दमोह जिला मुख्यालय से 50 किमी दूर जबेरा विधानसभा की अंतिम सीमा से लगी की ग्राम पंचायत पौंडी के आदिवासी गांव देवतरा में पानी का कोई स्रोत नहीं बचा है। इस गांव में कहने को दो हैंडपंप और एक कुआं हैं लेकिन जलस्तर गिरने से हैंडपंप पानी की जगह हवा फेंक रहे हैं और कुएं भी सूख गए हैं। ऐसी स्थिति में पूरा गाँव जंगल के प्राकृतिक झिरिया (झरना) के सहारे प्यास बुझाने के लिए मजबूर हैं। गाँव की बुर्जुग महिला सिधारी रानी कहती है, “अगर यह झिरिया नहीं होती तो गाँव में अकाल जैसी स्थिति निर्मित हो जाती या फिर लोगों को गांव छोड़कर जाना पड़ता। पानी जुटाने के नाम पर यहाँ की महिलाओं को कड़ी धूप में कुछ मील पैदल चलना पड़ता है।”  

पानी के परंपरागत इन तमाम स्रोतों पर आबादी का दबाव बढ़ता दिख रहा है। ख़ास तौर से 64% अनुसूचित जाति (एससी) और 20.67% अनुसूचित जनजाति (एसटी) की आबादी वाले उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले में रहती है। सोनभद्र ‘भारत की ऊर्जा राजधानी’ के नाम से मशहूर है। आदिवासी बहुल मकरा गाँव की व्यथा पानी की कमी तक सीमित नहीं है बल्कि आस-पास के क्षेत्र में खनन गतिविधि है, जिससे भूजल और सतही जल निकायों को गंभीर रूप से प्रदूषित करती है। नल जल योजना से ग्रामीण भारत को पानीदार करने का सपना दिखाती सरकारों के दांवे धरातल पर हवा है। द वॉयर में छपी जानकारी के अनुसार सोनभद्र जिले के मकरा गाँव में प्रदूषण की वजह से साल 2021 में नंवबर और दिसंबर के दौरान दैनिक आधार पर कम से कम 40 लोगों की मौत हुई। जहरीले पानी से आतंकित महिलाओं की दोहरी पीड़ा किसी नौकरशाह या समाजविज्ञानी के संज्ञान में शायद ही आया हो।

इन राज्यों में बहुप्रचारित योजना ‘हर घर नल’ के वादों पर धूल पड़ चुकी है। खुले में शौच जाने की मनाही वाली मुहिम में हर घर शौचालय में आज से दो साल पहले देश के 101462 गांवों ने खुद को ओडीएफ (खुले में शौच मुक्त) प्लस घोषित किया है। लेकिन पानी की कमी के चलते अब बने बनाये शौचालयों का कोई औचित्य नहीं है। इन शौचालयों का उपयोग अनाज या तेंदू पत्ता भंडारण के रूप में किया जाता है। जानवरों को आश्रय देने के लिए किया जाता था या परिवारों द्वारा छोड़ दिया गया था। झाबुआ जिले में 100 से अधिक परिवारों का एक गांव ढेकल बड़ी गांव में मात्र एक हैंडपंप है। एक छोटे मौसमी जल निकाय भी है। सुबह एक समय में दो बाल्टी पानी भरने के लिए घंटों कतार में खड़े रहना महिलाओं की मजबूरी है। नहाने और कपड़े धोने के लिए मौसमी नाले का उपयोग किया जाता है। फिर तो नागरिकों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार की बात बेमानी हो जाती है और महिलाएं एक बार फिर से खुले आकाश के नीच शौच करने को बाध्य हो गयी हैं। जिस वजह से उनके सामने हिंसा और बलात्कार तक का जोखिम बना रहता है।

बिहार में कैमूर की पहाड़ियों से पानी भरती महिला। तस्वीर साभारः अमरेंद्र किशोर

अब हालात ऐसे हैं कि आम जनता सुधार की आस छोड़ चुकी है। ‘जब तक ज़िंदगी है, तभी तक संघर्ष है’ छत्तीसगढ़ के कांकेड़ जिले के चरामा तहसील के महुंड गाँव के हलाबा जनजातीय समुदाय के संजय कोस्टा कहते हैं, “शहरों में सरकार पानी पहुंचा देती है लेकिन पहाड़ों में पानी पहुंचाने का जोखिम कौन लेगा?’ इसी जोखिम के कारण देश भर में आदिवासियों की आधी आबादी दर-दर भटक कर पानी जुटाती हुई देखी जा सकती हैं। उन्हें जंगल जाकर सूखी लकड़ियां चुननी पड़ती है और पानी जुटाने के नाम पर सौ परेशानियों का रोज सामना करना पड़ता हैं।” कालाहांडी-बोलांगीर-कोरापुट जैसे लगभग तीन सौ पिछड़े जिलों में रोजगार की अतिशय कमी और जीवन की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा कर पाने में असमर्थ व्यवस्था लोगों को पलायन के लिए मजबूर करती है लेकिन पलायन कोई स्थायी और सटीक उपाय नहीं है। 

जल संकट और महिलाओं की सेहत 

दैनिक ज़रूरतों के लिए पानी सुरक्षित करने की यह पैदल यात्रा अक्सर खतरनाक या अलग-थलग इलाकों से होकर गुजरती है। इस वजह से महिलाओं और लड़कियों को शारीरिक और यौन हिंसा तक का सामना करना पड़ता है। इतना ही नहीं इसका उनके स्वास्थ्य पर भी भारी असर पड़ता है। पानी का भारी बोझ उठाने से महिलाओं की मांसपेशियों और हड्डियों से जुड़ा विकार, थकान और अन्य शारीरिक बीमारियों सहित विभिन्न स्वास्थ्य समस्याएं हो जाती हैं। कालाहांडी के मदनपुर रामपुर प्रखंड की महिलाएं बताती है कि गाँवों की नब्बे फीसद महिलाएं एनीमिया यानी उनमें खून की कमी है। भोजन में पोषक तत्व मुश्किल से मिलता है। खराब सेहत के बावजूद उन्हें घर की सारे काम निपटाने पड़ते हैं।

गर्भवती और बुजुर्ग महिलाओं को गर्मी के तनाव से बढ़े हुए जोखिमों का सामना करना पड़ता है, जिससे समय से पहले प्रसव, खराब स्वास्थ्य स्थिति और मृत जन्म दर में वृद्धि जैसी जटिलताएं होती हैं। चौंकाने वाली जानकारी यह भी है कि वातावरण में 1°C तापमान वृद्धि समय से पहले जन्मों में 6 प्रतिशत की वृद्धि के साथ सहसंबंध है, जो लू के दौरान 16 प्रतिशत तक बढ़ जाती है, जबकि प्रत्येक 1°C वृद्धि पर मृत जन्म की संभावना 5 प्रतिशत बढ़ जाती है। रिपोर्ट्स के मुताबिक पानी जुटाने के क्रम में अधिक बोझ ढोने का कारण उनका गर्भाशय सुरक्षित नहीं रहा। 

‘जब तक ज़िंदगी है, तभी तक संघर्ष है’ छत्तीसगढ़ के कांकेड़ जिले के चरामा तहसील के महुंड गाँव के हलाबा जनजातीय समुदाय के संजय कोस्टा कहते हैं, “शहरों में सरकार पानी पहुंचा देती है लेकिन पहाड़ों में पानी पहुंचाने का जोखिम कौन लेगा?’ इसी जोखिम के कारण देश भर में आदिवासियों की आधी आबादी दर-दर भटक कर पानी जुटाती हुई देखी जा सकती हैं।

मानसिक तनाव में आदिवासी महिलाएं भी हैं। औसत से अधिक शारीरिक बोझ वाली महिलाएं जब पहाड़ों पर बसी अपनी बस्ती तक पानी ढो कर ले जाती हैं तो उत्तरोत्तर उनके जीवन की गुणवत्ता में कमी आती है। आगे चलकर उनमें भावनात्मक संकट पैदा हो जाता है। आदिवासी अंचलों से ऐसी खबरें आती रहती हैं कि पानी के गंभीर बोझ लेकर पहाड़ों की ऊंचाई चढ़ने से उनके गर्भाशय खिसकने जैसी घटनाएं भी खूब होती है। इसलिए जीवन की गुणवत्ता का सवाल पैदा हो जाता है। इसलिए स्वास्थ्य प्रभावों को रोकने और पहले से ही प्रभावित लोगों के जीवन की गुणवत्ता को सुविधाजनक बनाने के लिए महिलाओं के लिए पानी की पर्याप्त पहुंच के प्रयास हों। इसके लिए जल आपूर्ति के बुनियादी ढांचे में सुधार, गाड़ियां, साइकिल और स्वयं-आपूर्ति विकल्पों जैसे मध्यस्थ समाधानों को बढ़ावा देना ज़रूरी हो गया है।  


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