गर्मी की छुट्टियों की एक शाम और सड़क पर छोटे बच्चों का हल्ला करते हुए खेलना तभी अचानक से बच्चों में से एक लड़की तेज-तेज रोने लगती है और बाकी बच्चे उसकी मज़ाक उड़ाते नज़र आते हैं। सभी बच्चे उस रोने वाली लड़की की जाति और रंग का मजाक उड़ाते नज़र आए। बाद में जब मामला शांत कराया और एक बच्चे से पूछा कि यह आपको यह किसने बताया तो उसने कहा मेरे पापा ने कहा है कि वह यह है और इसलिए ऐसी दिखती है। यह घटना दिखाती है कि कैसे वर्ग, जाति के आधार पर रंग-रूप के आधार पर सुंदरता के पैमान बनाने गए है और बॉडी शेमिंग की जाती है। बचपन से ही हमारे अंदर एक तय आकार, रंग-रूप से दिखने वाली शरीर की तस्वीर को स्थापित किया जाता है। ख़ासतौर पर वर्ग-समुदाय को लेकर एक रूढ़िवादी सोच स्थापित कर दी जाती है कि अमुख वर्ग के लोग ऐसे दिखते हैं, इस जाति का संदर्भ सुंदरता से है। टीवी, इंटरनेट, सिनेमा इस तरह की सोच को समाज में अपनी तरह से और गहरा करता है। इस तरह से बॉडी शेमिंग के विचारों के बीच बड़े होते बच्चों में ये बातें स्थापित कर दी जाती है।
बॉडी शेमिंग का मतलब होता है किसी भी व्यक्ति का उसके शरीर के आकार, रंग, वजन आदि को लेकर उसे शर्मिंदगी महसूस करना, उसका मजाक उड़ाना। बॉडी शेमिंग अक्सर महिलाओं के साथ सबसे अधिक देखने को मिलती है। ब्राह्मणवादी समाज में महिलाओं, लड़कियों यहां तक की छोटी बच्चियों तक को इसका सामना करना पड़ता है। अक्सर लड़कियों और महिलाओं को कहा जाता है, “सांवली हो, सुंदर नहीं हो, कितना वजन है तुम्हारा, शरीर पर बाल बहुत ज्यादा है, चेहरे पर कुछ लगाती क्यों नहीं हो जैसी अनेक तरह की असहज करने वाली बातें सुनने को मिलती है। इस तरह की बातें समाज में स्थापित एक गहरी ब्राह्मणवादी रूढ़िवादी मानसिकता की ओर इशारा करती है और जिसकी वजह से हाशिये के समुदाय, दलित महिलाओं और लड़कियों की उनकी वर्ग और जातीय पहचान की वजह से बॉडी शेमिंग की जाती है उन्हें हिंसा, अपमान, तनाव का सामना करना पड़ता है।
इतिहास से लेकर वर्तमान तक महिलाओं के शरीर को एक ऑब्जेक्ट की तरह देखा गया है जिसमें अलग-अलग वर्ग की महिलाओं ने अपने-अपने स्तर पर अनुभव किया है। कुछ ने अपने शरीर के साथ अधीनता में जीवन बिताया है तो कुछ ने सामाजिक मानदंडों को चुनौती देते हुए विद्रोही तरीकों से इसे अनुभव किया है। महिलाओं के जीवन में उनके संघर्षों के दौरान शरीर का क्या अर्थ है और इसको इंटरसेक्शनल लेंस से देखना ज़रूरी है। दरअसल हमारे समाज में अलग-अलग जातियों, वर्गों, क्षेत्रों, धर्मों की महिलाओं के शरीर को अलग-अलग तरीके से नियंत्रित किया गया है। इसी वजह से हाशिये के समुदाय की महिलाओं के ख़िलाफ़ बॉडी शेमिंग एक राजनीतिक-सामाजिक मुद्दा भी है क्योंकि तथाकथिक स्वर्ण समुदाय की वर्चस्व वाली राजनीतिक और सामाजिक माहौल से इस तरह की सोच को समाज में हमेशा बना रखने का काम किया है।
दुनियाभर में इस तरह की प्रथाओं के प्रमाण देखने को मिलते है कि किस तरह से तथाकथित सौंदर्य मानकों को काफी हद तक शासक वर्ग द्वारा निर्धारित किया गया। हमें यहां यह बात ध्यान रखनी होगी कि सत्ता पर हमेशा एक ख़ास कुलीन, विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग का प्रभुत्व रहा है। भारतीय समाज से अलग अन्य देशों में भी इस तरह की प्रथाओं का चलन रहा है जिससे महिलाओं के शरीर को एक ख़ास तरह से दिखने की उम्मीद की जाती रही। चीन में एक वर्ग की महिलाओं के पैर बांधने की प्रथा शताब्दी से अधिक समय तक प्रचलित रही। जिसे एक वर्ग की महिलाओं के लिए स्टेट्स सिंबल बन गया। इस तरह की सुंदरता से जुड़ी प्रकृति और उसके मानक के पीछे केवल दर्द, शोषण, तनाव और हिंसा है।
नॉओमी वुल्फ ने द ब्यूटी मिथ में लिखा है कि सौंदर्य मानक महिलाओं पर गहरा असर करते है जो उन्हें आत्म-घृणा और आत्म चेतना से भर देते हैं। वह अपनी किताब में लिखती है ”सुंदरता के आदर्श मानक केवल स्वर्ग से नहीं उतरते है वे वास्तव में कहीं से आते हैं और एक उदेश्य की पूर्ति करते हैं।” बॉडी शेमिंग एक सामाजिक समस्या है जो महिलाओं के आत्म-सम्मान और मानसिक स्वास्थ्य पर गंभीर असर डालती है। अलग-अलग जाति और वर्ग की महिलाओं के इस तरह का व्यवहार विभिन्न तरीकों से उन्हें प्रभावित करता है। दलित और आदिवासी समुदायों की महिलाओं को अक्सर उनके त्वचा के रंग, शारीरिक बनावट और पारंपरिक वेशभूषा के कारण भेदभाव और उपहास का सामना करना पड़ता है। उन्हें मुख्यधारा के सौंदर्य मानकों से कमतर माना जाता है।
वहीं तथाकथित सवर्ण महिलाओं को अक्सर तथाकथित सुंदरता के मानकों का दबाव होता है जिससे वे अपने वजन, त्वचा के रंग और शारीरिक संरचान को लेकर एक परफेक्ट दिखने का दबाव रहता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर की रहने वाली इंदु शर्मा बॉडी इमेज को लेकर अपने अनुभव पर कहती हैं, “मैं दिखने में बहुत पतली हूं और मेरे गहरे पक्के रंग की वजह से लोग मुझे अक्सर कहते थे तुम ब्राह्मण लगती नहीं हो। ब्राह्मण इतने काले नहीं होते हैं। इस तरह की बातों ने मेरे कॉलेज और उसके बाद मुझे बहुत परेशान किया है। एक तरफ हमें जातीय प्रभुता के बारे में हमें घर में सिखाया गया दूसरी तरफ मेरे ऐसे अनुभव जिस वजह से मैं खुद के बारे में बहुत खराब सोचने लगी थी। बहुत समय बाद मुझे अलग नज़रिये से चीजों को जानने को मिला लेकिन जब तक काफी देर हो चुकी थी और मैंने अपना एक कीमती समय बर्बाद कर दिया था।”
समाज में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग की महिलाओं को अपने शरीर के रखरखाव और सौंदर्य के मानकों को पूरा नहीं कर पाने के लिए भी बॉडी शेमिंग का सामना करना पड़ता है। उनके कपड़े, त्चचा की देखभाल और सामान्य जीवनशैली के लिए उन्हें अपमानित महसूस कराया जाता है। वहीं मध्यम और तथाकथित ऊंचे वर्ग की महिलाओं पर अक्सर पतले और फिट रहने का दबाव होता है। वे अगर इन मानकों को पूरा नहीं करती है तो उन्हें आसली, अनुशानहीन के रूप से देखा जाता है। कविता दलित समाज से ताल्लुक रखती हैं। वह अपने परिवार की पहली पीढ़ी है जो ग्रेजुएशन कर रही है और साथ में पार्ट टाइम एक साइबर कैफे पर काम करती है। बॉडी शेमिंग और पहनावे पर बोलते हुए वह बताती है, “ये मेरे लिए एक आम बात हो गई है जब मुझे मेरे शरीर, कपड़े और तौर-तरीकों के लिए न टोका जाता हो। तुम ये खाती हो तो मोटी हो रही हो अपने वजन को कंट्रोल करो। लड़कियों का शरीर ऐसा अच्छा नहीं लगता है। तुम उम्र से ज्यादा बड़ी लगती हो, ढंग के कपड़े पहना करो, बालों में तेल क्यों लगाती हो, इन्हें इस तरह क्यों बांधती हो जैसी बातें अक्सर कही जाती है। मैं जहां काम करती हूं वहां दलित समुदाय की और लड़की मैं अकेली हूं अक्सर इस तरह की बातें बोलकर बाद में उसे मजाक है कहकर टाल दिया जाता है।”
कई शोध में यह बातें सामने निकलकर आई है कि निम्न आय वर्ग की महिलाओं को उनके पहनावे, त्वचा की देखभाल और शारीरिक संरचना के कारण शेमिंग का सामना करना पड़ता है। आर्थिक संसाधनों की कमी के कारण वे मुख्यधारा के तथाकथित सौंदर्य मानकों को पूरा नहीं कर पातीं, जिससे उनका आत्मविश्वास कम हो जाता है। वहीं तथाकथित उच्च वर्ग की महिलाओं पर पतली और फिट रहने का अधिक दबाव होता है। उन्हें अक्सर समाज में परफेक्ट बॉडी इमेज प्रस्तुत करने की आवश्यकता महसूस होती है। अगर वे इस मानक को पूरा नहीं कर पातीं, तो उन्हें आलोचनाओं का सामना करना पड़ता है।
समय के साथ सुंदरता के मानक बदले है लेकिन वह अभी महिलाओं के शोषण का एक तरीका ही है। भारत के मामले में रेबेका जाइल्स बताती है कि समय के साथ सुंदरता से जुड़े विचारों में किस तरह से बदलाव आया है। 1980 के दशक तक कामुक और सुडौल महिलाओं को सुंदर माना जाता था। उसके बाद गोरी और पतली महिलाओं को महत्व दिया जाता था। जाइल्स अख़बारों में शादी के विज्ञापनों का ज़िक्र करते हुए कहती है कि वहां गोरे रंग का विज्ञापन दिया जाता है लेकिन गहरे रंग का नहीं। इस तरह भारत में सुंदरता के विचारों को आकार देने में उपनिवेशवाद और बाजार का बड़ा असर रहा है। यह महिलाओं की सामाजिक स्थिति को हर स्तर पर प्रभावित करता है।
दिल्ली की रहने वाली वर्षा प्रकाश एक दलित महिला हैं। बॉडी शेमिंग और वर्ग-जाति के विषय पर बोलते हुए उनका कहना है, मैं समाज के तथाकथित स्टीरियोटाइप जैसी नहीं दिखती हूं तो स्कूल से लेकर वर्तमान के अकादमिक काम तक में मुझे इस बात का सामना करना पड़ता है कि आप किस जाति है। लोगों का एक कल्चर बन गया है कि वे उनकी वेशभूषा, बातचीत करने के तरीके, रंग-रूप से उनके ज्ञान की परख करते हैं। इन सब चीजों से ये उनकी कास्ट और क्लॉस से तय करते हैं। मुझसे अक्सर पूछा जाता है आप कहां कि रहने वाली है। फिर मेरे नाम में प्रकाश का मतलब पूछते है, मेरे सरनेम को टटोलने लगते है कि वास्तव में मैं कौन हूं उसके बाद जब मैं कहती हूं कि मैं दलित हूं। उसके बाद अक्सर मुझे यह सुनने को मिलता है कि आप दलित नहीं लगती हो। मुझे सुनकर यह बहुत बुरा लगता है क्योंकि ऐसे लोगों के दिमाग में तो यही है कि जो दलित है वे मलिन बस्तियों में रहते हैं, गंदे रहते है, साफ-सुथरे नहीं होते है, त्वचा का रंग काला होता है। इस तरह से हमारी कंडीशनिंग कितनी खराब होती है और लोगों के दिमाग में यही चलता है।”
हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी के वैज्ञानिकों द्वारा जर्नल ऑफ इनवेस्टिगेटिव डर्मेटोलॉजी में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक़ त्वचा का रंग और जाति के बीच संबंध की जांच करने के लिए 52 अलग-अलग आबादी के 1825 लोगों को स्टडी में शामिल किया गया। उन्होंने पाया कि अलग-अलग सामाजिक श्रेणियों में त्वचा का रंग अलग-अलग था। नोएल मरियम जॉर्ज 2020 के जाति और सुंदरता के मानकों के बीच संबंध बनाते हुए तर्क देती है कि तथाकथित सवर्ण महिलाओं के दलित महिलाओं से अलग अपने स्त्रीत्व का निर्माण किया है जिन्हे मर्दाना और असभ्य माना जाता है। इसी तरह ट्रांस समुदाय के भीतर ट्रांस व्यक्ति जिस बाइनरी, जेंडर से अपनी पहचान करती उसके रूप के होने का उन पर बहुत दबाव होता है। सामाजिक-आर्थिक रूप से हाशिये पर पड़ी ट्रांस महिलाओं के लिए मंहगे जेंडर एफरिमेशन प्रक्रियाओं का खर्च उठाना संभव नहीं होता क्योंकि जाति और वर्ग जैसी आर्थिक-सामाजिक ताकत उनके साथ नहीं होती है। काले रंग और पर्याप्त रूप से पतली न होने पर उन्हें शर्मिदा किया जाता है।
महिलाओं के शरीर को अलग-अलग आधार पर बांट कर उनके जीवन को कई स्तर पर प्रभावित किया जाता है। भेदभाव और रंगभेद के चलते महिलाओं का शरीर का विषय नारीवाद शोध में एक मुख्य बिंदु रहा है क्योंकि सदियों से उन्हें सांस्कृतिक, जातीय, वर्ग, समूह, यौनिकता के आधार पर निरंतर अधीनता से गुजरना पड़ा है। महिलाओं के शरीर को लेकर इस तरह के व्याहार के आधार पर यह समझा जा सकता है कि महिलाओं के शरीर, उनकी शारीरिक आकार, उनके शारीरिक काम को सामाजिक मांगों और धारणाओं के अनुरूप बनाया जाता है और जिनसे महिलाओं को किसी तरह का कोई लाभ नहीं मिलता है।
स्रोतः