कोविड-19 महामारी ने पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया था और भारत भी इससे अछूता नहीं था। इस महामारी ने देश की शैक्षिक, सामाजिक, आर्थिक और स्वास्थ्य सेवाओं पर गहरा प्रभाव डाला। विशेष रूप से हाशिए पर रहने वाले समुदायों ने इस संकट को सबसे अधिक महसूस किया। महामारी के दौरान, भारत की स्वास्थ्य सेवाओं पर भारी दबाव पड़ा। सरकारी अस्पतालों में बिस्तरों, वेंटिलेटरों और ऑक्सीजन की भारी कमी देखी गई। हाशिए पर रहने वाले समुदाय, जो पहले से ही स्वास्थ्य सेवाओं तक सीमित पहुंच रखते हैं, उन्हें इन सुविधाओं तक पहुंचने में और अधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।
कोविड-19 महामारी से जूझने के बाद, डॉक्टरों और चिकित्सकीय शोधकर्ताओं के अनुसार लोगों को स्वास्थ्य समस्या होने का अनुमान था। सामान्य स्वास्थ्य के मामले में परेशानी का अंदाजा किया गया था। लेकिन हाल में साइंस एडवांसेज के एक अध्ययन के अनुमान अनुसार साल 2020 में कोविड-19 महामारी के दौरान 11.9 लाख अतिरिक्त मौतें हुईं, जो 2019 की तुलना में 17 फीसद अधिक है। यह अनुमान भारत में कोविड-19 से होने वाली आधिकारिक मौतों से लगभग आठ गुना अधिक है और विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुमान से 1.5 गुना अधिक बताया गया।
मृत्यु दर में पाया गया विभिन्न कारकों के अनुसार अंतर
इस अध्ययन में हमारे देश में महामारी के कारण लिंग, धर्म, जाति और आयु के आधार पर मृत्यु दर के प्रभावों का अध्ययन किया। अध्ययन के मुताबिक इन कारकों के अनुसार हाशिए पर रह रहे समुदायों में अत्यधिक मृत्यु दर और जीवन प्रत्याशा में तेज़ गिरावट देखी गई। अध्ययन के अनुसार साल 2019 और 2020 के बीच मुसलमानों की जीवन प्रत्याशा में 5.4 वर्ष की कमी आई, जो उच्च जाति के हिंदुओं में देखी गई 1.3 वर्ष की गिरावट से चार गुना अधिक है। अन्य सामाजिक रूप से वंचित समूहों में भी यह गिरावट अधिक थी। अध्ययन के अनुसार अनुसूचित जनजाति के लिए यह 4.1 साल और अनुसूचित जाति के लिए यह 2.7 साल दर्ज हुए। यह अध्ययन राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों का उपयोग करते हुए किया गया।
अध्ययन में पाया गया कि 2019 और 2020 के बीच जीवन प्रत्याशा में कुल मिलाकर 2.6 साल की गिरावट आई है। लेकिन, महिलाओं में यह गिरावट 3.1 साल की रही, जो पुरुषों में पाई गई 2.1 साल की गिरावट से एक साल ज़्यादा है। अध्ययन में बताया गया है कि यह वैश्विक प्रवृत्ति के उलट है क्योंकि ज़्यादातर देशों में महिलाओं की तुलना में पुरुषों में जीवन प्रत्याशा में कमी ज़्यादा देखी गई है। अध्ययन के अनुसार पुरुषों की तुलना में महिलाओं में मृत्यु दर में अधिक वृद्धि देश के महत्वपूर्ण आंकड़ों में भी स्पष्ट है, जहां राज्यों में पुरुष और महिला मृत्यु पंजीकरण की दरें उच्च हैं। अन्य कारकों के अलावा, स्वास्थ्य देखभाल में लैंगिक असमानता और घरों के भीतर संसाधनों तक पहुंच पहले से मौजूद लैंगिक असमानता बताते हैं। अध्ययन में पाया गया कि देश में सभी आयु समूहों में मृत्यु दर में वृद्धि हुई है। यह सबसे अधिक युवा और सबसे वृद्ध लोगों में हुआ है, जबकि उच्च आय वाले देशों में जीवन प्रत्याशा में गिरावट मुख्य रूप से 60 वर्ष और उससे अधिक आयु के लोगों में मृत्यु दर में वृद्धि के कारण हुई है।
महिलाओं का वैश्विक स्तर पर स्वास्थ्य की हालत
मेडिकल पत्रिका लैन्सेट के एक शोध अनुसार वैश्विक स्तर पर, महिलाओं में मोर्बीडिटी से जुड़ी स्थितियों का बोझ अधिक है, जिनमें पीठ के निचले हिस्से में दर्द, अवसाद से जुड़े विकार और सिरदर्द विकारों के लिए (विकलांगता-समायोजित जीवन-वर्ष) DALYs में पुरुषों के तुलना में सबसे बड़ा अंतर है। पुरुषों में मृत्यु दर-संचालित जिन स्थितियों के लिए DALY दरें अधिक हैं, उनमें कोविड-19, सड़क दुर्घटना और इस्केमिक हृदय रोग शामिल है। लैन्सेट के शोध में बताया गया है कि महिलाओं और पुरुषों के बीच वैश्विक स्वास्थ्य अंतर का पता चलता है।
साथ ही, साल 1990 और 2021 के बीच इन स्वास्थ्य अंतरों को मिटाने की दिशा में बहुत कम प्रगति हुई है। इस शोध के अनुसार उम्र के साथ ये स्वास्थ्य संबंधी अंतर बढ़ते जाते हैं, जिससे जीवन के विभिन्न चरणों में महिलाओं और पुरुषों के स्वास्थ्य में महत्वपूर्ण अंतर बरकरार रहता है। आज इन अंतरों पर आज पहले से अधिक सबूत मौजूद हैं। लेकिन उम्रदराज आबादी में महिलाओं और पुरुषों के बीच बढ़ता अनुपात, शोधकर्ताओं और नीति निर्माताओं के लिए यह पहचानना महत्वपूर्ण बनाता है कि महिलाओं की स्वास्थ्य देखभाल की ज़रूरतें सिर्फ प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं से कहीं अधिक है।
एनीमिया और उच्च जोखिम गर्भावस्था से जूझ रही हैं महिलाएं
साल 2019 और 2021 के बीच किया गया राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के दोनों चरणों में ये पाया गया कि महिलाएं आज भी एनीमिया से जूझ रही हैं। एनएफएचएस के पांचवें संस्करण में देश भर के 6.1 लाख नमूना परिवारों को शामिल किया गया था। राष्ट्रीय स्तर पर, एनएफएचएस-5 के आँकड़े बताते हैं कि पिछले एनएफएचएस-4 सर्वेक्षण की तुलना में महिलाओं और बच्चों में एनीमिया की व्यापकता में बढ़ोतरी हुई है। गर्भवती महिलाओं में एनीमिया में 1.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, प्रजनन आयु की सभी महिलाओं में 3.9 प्रतिशत और किशोरियों में 5 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई।
लद्दाख में 15 से 19 वर्ष की आयु वर्ग की लगभग 97 फीसद किशोरियां एनीमिया से पीड़ित पाई गईं, जो एनएफएचएस-4 के दौरान 81.6 फीसद से अधिक है। पश्चिम बंगाल में यह प्रचलन सबसे अधिक 70.8 फीसद था, जो एनएफएचएस-4 के दौरान 62.2 फीसद था। इसके बाद गुजरात में यह 69 फीसद था। मिजोरम में 34.9 फीसद, नागालैंड में 33.9 फीसद, केरल में 32.5 फीसद और मणिपुर में 27.9 फीसद दर्ज किया गया। असम में यह 67 फीसद पाया गया जो एनएफएचएस-4 के दौरान दर्ज 42.7 फीसद से 24.3 प्रतिशत अधिक है।
भारत में सभी गर्भधारण में से लगभग आधे में एक या अधिक उच्च जोखिम वाले कारक होते हैं, जो चिंता का विषय है। एनएफएचएस-5 के आंकड़ों के अनुसार भारतीय महिलाओं में हाई रिस्क यानि उच्च जोखिम वाली गर्भधारण की व्यापकता 49.4 फीसद है, जिसमें 33 फीसद महिलाएं एक हाई रिस्क गर्भावस्था और 16.4 फीसद कई हाई रिस्क गर्भावस्थाओं से गुजर चुकी हैं। लगभग 31.1 फीसद महिलाओं में बच्चों के जन्म के समय कम अंतर था और 19.5 फीसद महिलाओं में पिछले बच्चे के जन्म के दौरान हानिकारक जन्म परिणाम थे।
क्या महिलाएं अपने स्वास्थ्य संबंधी निर्णय खुद ले रही हैं
स्वास्थ्य संबंधी फैसलों में महिलाओं की एजेंसी का संबंध उनकी स्वतंत्र रूप से काम करने की क्षमता और आय से भी है। जैसे, कामकाजी महिलाओं के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं या बाज़ार जैसी जगहों पर जाना, अपने लिए स्वच्छता उत्पाद या गर्भनिरोधक खरीदना या इसके लिए निर्णय लेना बिना किसी की अनुमति के ज्यादा आसान है। स्प्रिंगर नेचर के एक शोध में मुंबई के शहरी बस्तियों में गर्भावस्था के दौरान और बाद में महिलाओं की स्वास्थ्य देखभाल संबंधी निर्णय लेने से जुड़े कारकों का पता लगाया गया।
इस शोध में पाया गया कि लगभग दो-तिहाई महिलाओं ने प्रसवकालीन देखभाल के बारे में खुद या अपने पति के साथ मिलकर निर्णय लिया, जिससे लगभग एक-तिहाई महिलाएं अपने लिए खुद निर्णय लेने की प्रक्रिया से बाहर हो गईं। इसमें महिलाओं के उम्र, माध्यमिक और उच्च शिक्षा और वैतनिक रोज़गार के साथ उनकी निर्णय लेने में भागीदारी में बढ़ोतरी देखी गई। लेकिन शादी की उम्र और घर के आकार के साथ इसमें कमी पाई गई।
हालांकि एनएफएचएस-5 के अनुसार स्वास्थ्य, प्रमुख घरेलू खरीददारी और रिश्तेदारों से मिलने से संबंधित निर्णयों में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी उनकी एजेंसी में बढ़ोतरी को दिखाता है। लेकिन, एनएफएचएस-5 के आँकड़े बताते हैं पूरे देश में केवल एक-चौथाई महिलाओं ने ही काम किया और उन्हें पारिश्रमिक मिला। पिछले साल तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, मणिपुर और तमिलनाडु में 40 फीसद से अधिक महिलाएं वेतन मिलने वाले काम में शामिल थीं। यह साल 2015-16 के आंकड़ों में मामूली सुधार है। यानि कि महिलाओं को आज भी रोजगार और आय करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, साथ ही, संपत्ति या वित्तीय संसाधनों पर उनका अधिकार और स्वामित्व आज भी सीमित है।
एक शोध के मुताबिक सभी जनसांख्यिकीय और सामाजिक-आर्थिक समूहों में महिलाओं पर स्वास्थ्य देखभाल खर्च पुरुषों की तुलना में कम है। पूरे जीवन चक्र के विभिन्न चरणों में पुरुषों और महिलाओं को स्वास्थ्य सेवा तक असमान पहुंच प्राप्त होती है। बचपन से शुरुआत करें, तो देश में लड़कियों को लड़कों की तुलना में कम टीका लगाया जाता है, उन्हें अस्पताल में इलाज की कम सुविधा मिलती है, और मृत्यु से पहले उन्हें अस्पताल में जरूरत के बावजूद कम भर्ती किया जाता है। भाई-बहनों के बीच ये भेद मौजदू रहता है। वहीं, वृद्धावस्था में, महिलाएं स्वास्थ्य सेवा सुविधाओं का कम उपयोग करने के बावजूद खराब स्वास्थ्य और विकलांगता की रिपोर्ट करती हैं। ये सामाजिक रूढ़िवाद और पितृसत्ता ही है, जो महिलाओं के स्वास्थ्य को सिर्फ मातृ स्वास्थ्य और पीरियड्स तक सीमित कर देता है। हमें इन रूढ़ियों से हटकर महिलाओं के समग्र स्वास्थ्य को एक मानवाधिकार के मुद्दे की तरह देखने और योजनाएं बनाने और उनपर अमल करने की ज़रूरत है।