समाजख़बर ‘रिक्लेम दी नाइट’ विरोध प्रदर्शन के पीछे छिपा समाज का जातिवादी वर्गवादी चेहरा

‘रिक्लेम दी नाइट’ विरोध प्रदर्शन के पीछे छिपा समाज का जातिवादी वर्गवादी चेहरा

बस्तियों में रहने वाली इन महिलाओं के साथ यह वाक़या विरोध प्रदर्शन में जाति और वर्ग आधारित वर्चस्व की मानसिकता को उजागर करता है। इन मुहिमों को रचने वाले और इसमें शामिल होने वाले मेज़बान सिर्फ और सिर्फ उच्च जाति और वर्ग से ही हो सकते हैं।

कोलकाता के आरजी कर मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में 9 अगस्त को 31 वर्षीय महिला ट्रेनी डॉक्टर के साथ बालात्कार के बाद हत्या की घटना ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया। इस घटना के बाद आज हफ्तेभर बाद भी कोलकाता समेत कई राज्यों में प्रदर्शन और विरोध हो रहे हैं, जिसमें हर वर्ग, जाति, लिंग और तमाम नागरिक कार्यक्षेत्रों में महिलाओं की सुरक्षा से जुड़े सवालों को उठाने और न्याय की गुहार लगाने के लिए संगठित हो रहे हैं। सिस्टम की कमियों को उजागर करने और न्याय की मांग के उद्देश्य से सभी नागरिकों का एक साथ एक पटल पर संगठित होने की प्रक्रिया में लोकतंत्र को जिंदा रखने की क़वायद छिपी होती है।

पर इन गंभीर लैंगिक और सामाजिक मुद्दों के लिए संगठित होने की भावना को बांटकर रौंधने की कोशिश की जाए तो ऐसी सामूहिक कार्यवाई लोकतंत्र को कायम रखने में निरर्थक साबित होगी। इस घटना के बाद, विरोध में कुछ महिला समूह एकजुटता दिखाते हुए संकल्प करती हैं। वे देशभर में 14 अगस्त को ‘रिक्लेम द नाइट’ नाम से एक सामूहिक प्रदर्शन का आयोजन करती हैं। सोशल मीडिया समेत व्हाट्सएप ग्रुप पर इससे जुड़ी जानकारियां और संदेश साझा किए जाते हैं। इसी तरह ही, मुंबई में पॉवई के उपनगर में स्थित हीरानंदानी गार्डन्स के पास गैलेरिया शॉपिंग मॉल के बाहर एक विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया जाता है। हीरानंदानी गार्डन्स में रह रहीं महिला और कुछ पुरुष निवासी इकट्ठा होकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं।

बस्तियों में रहने वाली इन महिलाओं के साथ यह वाक़या विरोध प्रदर्शन में जाति और वर्ग आधारित वर्चस्व की मानसिकता को उजागर करता है। इन मुहिमों को रचने वाले और इसमें शामिल होने वाले मेज़बान सिर्फ और सिर्फ उच्च जाति और वर्ग से ही हो सकते हैं।

हीरानंदानी गार्डन्स की रिहायशी चकाचौंध में रहने वाली इन महिलाओं के साथ पास की सड़कों पर रहनबसर करने को मजबूर कुछ गरीब और दलित महिलाएं हाथों में मोमबत्ती लिए इन विरोध में शामिल हो जाती हैं। गार्डन्स की महिलाएं इनके हाथ में थमी मोमबत्तियों को बुझा देती हैं और अभद्र व्यवहार के साथ उन्हें विरोध प्रदर्शन से जाने के लिए कह देती हैं। वे अपने शर्मनाक व्यवहार से साफ़-साफ़ यह दिखाने की चेष्टा करती हैं कि झुग्गियों से आने वाली महिलाओं को हमारे बराबर और हमारे साथ खड़े होने की हिम्मत नहीं होनी चाहिए। न्याय पाने के लिए ऐसे लोगों के साथ की ज़रूरत बिलकुल नहीं है जो हमारे घरों की सफाई करते हैं, मल उठाते हैं, गलत काम करते हैं, न जाने क्या-क्या करते हैं। मुमकिन है कि उनकी नज़रों में दलित दिखने में गंदे होते होंगे, जिन्हें बात करनी या बोलना नहीं आता और जो उन्हें व्यवहार से असभ्य लगते होंगे।

उजागर होती जातिवाद और वर्गवाद की परतें

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए श्रेया टिंगल

बस्तियों में रहने वाली इन महिलाओं के साथ यह वाक़या विरोध प्रदर्शन में जाति और वर्ग आधारित वर्चस्व की मानसिकता को उजागर करता है। इन मुहिमों को रचने वाले और इसमें शामिल होने वाले मेज़बान सिर्फ और सिर्फ उच्च जाति और वर्ग से ही हो सकते हैं। यह घटना साथ ही, इस बात को भी उजागर करती है कि समाज के सदस्यों के रूप में यहां एक तबका ऐसा भी है जो जोख़िम से भरी ज़िन्दगी और कई गंभीर मुश्किलों का सामना करते हुए भी अपना योगदान देना चाहती हैं। हीरानंदानी इलाके के पास जय भीम नगर के नाम से बसी एक बस्ती जिसे जून में उजाड़ दिया जाता है। ये महिलाएं इससे पहले इसी जय भीम नगर की बस्ती में रहा करती थीं, जिसके उजाड़ दिए जाने के बाद से उनके सिर से छत छीन ली गई। ऐसी स्थिति में हाशिए पर ला दी गई इन महिलाओं की ऱोजाना की असुरक्षा और उत्पीड़न का मुद्दा किस विरोध प्रदर्शन का सबब बनेगा?

‘रिक्लेम दी नाईट’ नारीवादी मुक्ति के नारे के रूप में इस्तेमाल में लाया गया। पर समाज के एक हिस्से को ऐसे संवेदनशील पहल से बहिष्कृत कर आख़िर किस किस्म के सेलेक्टिव समानता और स्वतंत्रता के विचार की वकालत कर रहे हैं?

मकतूब मीडिया की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि असुरक्षित सड़कों पर रहने वाली इन महिलाओं को अक्सर छेड़छाड़ और दुर्व्यवहार से गुज़रना पड़ता है। कल को ऐसी ही कोई घटना इनके साथ न घट जाए ऐसे में बस्ती की ये महिलाएं अपनी चिंताओं को कलकत्ता की वारदात के साथ जोड़ते हुए गैलेरिया शॉपिंग मॉल के बाहर विरोध प्रदर्शन में शामिल होने का साहस दिखाती हैं। पर उन्हें हीरानंदानी के दौलतमंद की मौखिक टिप्पणियां और नीचता का अनुभव कराती बॉडी लैंग्वेज इस अधिकार से वंचित कर देती हैं। उनका सारा साहस और आत्मविश्वास पलभर में चकनाचूर कर दिया जाता है। वे जहां न तो साथ खड़े हो सकती हैं और न ही अपने गंभीर मुद्दों को इस विरोध प्रदर्शन से जोड़ने की हिमाकत दिखा सकती हैं। 

किसके लिए ‘रिक्लेम दी नाईट’?

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

हमें ‘रिक्लेम दी नाईट’ नारे के पीछे के अर्थ को समझना ज़रूरी है। यहां रिक्लेम शब्द का प्रयोग रात के समय मुक्त रूप से स्वतंत्र महसूस होने की स्थिति को बताने के लिए किया गया है। वर्तमान समय में, सुरक्षा और घर की इज्ज़त बचाने के नाम पर महिलाओं के लिए पितृसत्ता से बुनी एक सड़ी-गली लक्ष्मण रेखा खींची जाती है ताकि उनके रात में बाहर निकलने पर सख़्त प्रतिबंध लगाया जा सके। रातें केवल पुरुषों की मानी जाती है जिस पर सिर्फ पुरुषों का हक़ होता है। वे दिन ढलने के बाद भी बराबर आवाजाही और गतिशीलता जारी रखते हैं। इस प्रकार यहां ‘रिक्लेम दी नाईट’ नारीवादी मुक्ति के नारे के रूप में इस्तेमाल में लाया गया। पर समाज के एक हिस्से को ऐसे संवेदनशील पहल से बहिष्कृत कर आख़िर किस किस्म के सेलेक्टिव समानता और स्वतंत्रता के विचार की वकालत कर रहे हैं?

हालांकि प्रिविलेज में जी रही इन वर्गों की महिलाओं के लिए भी असुरक्षित महसूस करने का मामला शामिल है। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि गरीब तबके की महिलाएं जिनके पास अक्सर सड़कों पर उतरने और अपने साथ कुछ भी हो जाने के भय और उत्पीड़न को सहने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता।

कथित ऊंची और नीची जाति में फर्क करते लोग

इस स्थिति में, देश का वो हिस्सा जिनके पास ‘गेटेड कम्युनिटी’ में रहने के प्रिविलेज के साथ-साथ, प्रीमियम मॉल में खरीदारी करने और एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए निजी ड्राइवरों का साधन है, वे सुरक्षा को बनाए रखने में सक्षम हैं। हालांकि प्रिविलेज में जी रही इन वर्गों की महिलाओं के लिए भी असुरक्षित महसूस करने का मामला शामिल है। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि गरीब तबके की महिलाएं जिनके पास अक्सर सड़कों पर उतरने और अपने साथ कुछ भी हो जाने के भय और उत्पीड़न को सहने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता। यह तब और भी बढ़ जाता है जब गरीब तबके की महिलाओं को बेघर कर दिया जाता है, जैसा कि जय भीम नगर के साथ किया गया है जिसे कथित तौर पर हीरानंदानी डेवलपर्स के इशारे पर उजाड़ दिया जाता है।

क्या नारीवादी आंदोलन और सुरक्षा सिर्फ स्वर्णों का है 

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

स्वर्ण नारीवादी एकजुटता की घटनाएं और व्यवहार हमें अस्सी और नब्बे के दौरान भारत में उभरते नारीवाद के उस इतिहास की ओर लौटने पर मजबूर कर देती हैं जो अपने शुरूआती चरण में उच्च जाति की प्रधानता से ग्रस्त था, जहां सदियों से पीड़ित दलित महिलाओं की आवाज को दरकिनार किया गया था। दलित नारीवादियों के अनुसार यह कहा गया कि मुख्यधारा का नारीवादी आंदोलन ब्राह्मणवादी, पदानुक्रमिक और उच्च जातियों के वर्चस्व से भरा हुआ है। ऐसी स्थिति में मुख्यधारा के स्वर्ण नारीवादी आंदोलन से अलग कई दलित संगठन उभरने लगे जिन्होंने दलित महिलाओं के संघर्षों और पीड़ाओं के लिए आवाज़ उठाया। फिर मुख्यधारा का स्वर्ण नारीवाद ‘दलित नारीवादी स्टैंडपॉइंट’ के नाम से दलित महिलाओं की पहचान और मुद्दों की वकालत की बात करने लगे।

दलित पृष्ठभूमि से आने वाली महिलाओं को उनकी जाति और लिंग के बीच के अंतर्संबंध के कारण लैंगिक हिंसा के बढ़ते खतरे का सामना अधिक करना पड़ता है। अपराध करने, उसके परिणामों के डर के अभाव में दुर्व्यवहार करने वाले और हमलावर, कमजोर पृष्ठभूमि की महिलाओं को निशाना बनाने में अधिक आत्मविश्वास महसूस करते हैं।

कमजोर पृष्ठभूमि की महिलाओं को निशाना बनाना है आसान 

दलित पृष्ठभूमि से आने वाली महिलाओं को उनकी जाति और लिंग के बीच के अंतर्संबंध के कारण लैंगिक हिंसा के बढ़ते खतरे का सामना अधिक करना पड़ता है। अपराध करने, उसके परिणामों के डर के अभाव में दुर्व्यवहार करने वाले और हमलावर, कमजोर पृष्ठभूमि की महिलाओं को निशाना बनाने में अधिक आत्मविश्वास महसूस करते हैं। यहां औकात दिलाने की मंशा अधिक जाहिर होती है। इन महिलाओं का सामाजिक स्तर पर लैंगिक हिंसाओं के विरुद्ध एकजुटता दिखाना दुर्व्यवहार करने वाले और हमलावरों का इन महिलाओं की दरिद्र स्थिति का फायदा उठाने जैसी मनोवृति में डर पैदा करने का एक तरीका हो सकता है। अभिजात समाज के लोग अपने पसंदीदा मॉल के बाहर सार्वजनिक स्थान पर विरोध प्रदर्शन की योजना बनाने के लिए समय निकालने का फैसला करते हैं।

तस्वीर साभार: The Wire

एक मेडिकल कॉलेज और अस्पताल की मृत महिला के प्रति तो उन्होंने सहानुभूति दिखाई पर उनसे इतनी उम्मीद की जा सकती थी कि उनकी यह सहानुभूति उनके पडोसी जय भीम नगर के निवासियों तक भी विस्तारित होगी। नारीवादी आंदोलनों और सुरक्षा के मुद्दे सिर्फ विशेष वर्ग और जाति तक सीमित नहीं हो सकते। सामाजिक और लैंगिक समानता की बात करते हुए, हमें यह समझना होगा कि जब तक सभी धर्म, वर्गों और जातियों की महिलाएं ही नहीं सभी जेंडर के लोगों को समानता और सुरक्षा का अधिकार नहीं मिलेगा, तब तक नारीवादी आंदोलनों की सार्थकता अधूरी रहेगी। ‘रिक्लेम दी नाईट’ जैसे आंदोलनों का लक्ष्य तभी पूरा हो सकता है जब सभी हाशिये के समुदाय और महिलाएं, चाहे वे किसी भी पृष्ठभूमि से हों, इन आंदोलनों का हिस्सा बन सकें और बिना किसी भेदभाव के अपने अधिकारों के लिए आवाज उठा सकें।

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