हिंदी लेखिका अनुराधा बेनीवाल अपनी पुस्तक ‘आज़ादी मेरा ब्रांड’ में लिखती हैं, “क्या लड़कियां ही होती हैं? जिनका मन दूर-दूर, कहीं दूर चले जाने को तड़पता रहता है।” यह कथन लाखों लड़कियों की स्थिति को बयान करता है। हमारे पितृसत्तात्मक समाज में आज भी लड़कियों के लिए बाहर निकलना कठिन बना दिया गया है। उनके लिए सीमाएं तय कर दी जाती हैं और उनसे यह उम्मीद की जाती है कि वे केवल उन्हीं सीमाओं में रहें।
शिक्षा और सामाजिक चुनौतियाँ
बारहवीं के बाद, लड़कों के लिए उच्च शिक्षा के अवसर खुल जाते हैं, लेकिन लड़कियों के लिए यह इतना आसान नहीं होता। मैं बिहार के सिवान जिले से हूं। बिहार शिक्षा के मामले में अब भी पिछड़ा हुआ है, और महिलाओं की शिक्षा का मुद्दा सबसे बड़ा है। ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों को पढ़ने का अवसर नहीं मिलता, जिसका मुख्य कारण है सामाजिक रूढ़िवादी सोच। आज भी कई परिवार यह मानते हैं कि लड़कियों को क्यों पढ़ाना, क्योंकि उन्हें शादी करके घर-गृहस्थी ही संभालनी होती है।
शहरों के लोग गाँव को अक्सर रोमांटिक नजरिए से देखते हैं, लेकिन गाँव एक अदृश्य जेल भी है जहाँ लड़कियों को कैदियों की तरह रखा जाता है। बारहवीं के बाद, अधिकांश परिवार लड़कियों को घर से बाहर जाने, खुलकर हंसने पर रोक लगा देते हैं और उनकी जल्द शादी कर दी जाती है। कुछ परिवार स्नातक में नामांकन तो करवा देते हैं, पर लड़कियों को किसी दूसरे शहर में जाकर पढ़ने की अनुमति नहीं दी जाती।
ट्रेन में बैठकर यात्रा करना मेरे लिए अद्भुत अनुभव था। यह मेरी पहली बड़ी सफलता थी, और मैं खुद को आजाद महसूस कर रही थी। लेकिन नए शहर के बारे में मन में कई सवाल थे—कैसे लोग होंगे? क्या मैं वहां के माहौल में फिट हो पाऊंगी?
सपनों की उड़ान
जब मैं दसवीं में थी, तभी मैंने सोच लिया था कि मैं आगे की पढ़ाई के लिए दिल्ली जाऊंगी। लेकिन मन में यह सवाल भी था कि क्या घरवाले इसकी इजाजत देंगे? बारहवीं के बाद जब मैंने अपनी इच्छा परिवार के सामने रखी, तो किसी ने इसे गंभीरता से नहीं लिया। लेकिन मेरी माँ और भाई मेरे साथ थे। माँ हमेशा मुझसे कहती थीं कि, “लड़कियों का कमाना जरूरी है, ताकि उन्हें किसी पर निर्भर न रहना पड़े।” कई प्रयासों के बाद, परिवार ने मुझे दिल्ली भेजने की अनुमति दी। जब मैं घर से दिल्ली के लिए निकली, तो माँ ने कहा, “मैं कभी ट्रेन से नहीं गई और न ही मैंने नैहर और ससुराल के अलावा कोई और शहर देखा है। मैं चाहती हूं कि तुम अच्छे से पढ़ाई करो ताकि मैं भी दिल्ली देख सकूं।” इस बात के साथ माँ ने मुझे विदा किया। ट्रेन में बैठकर यात्रा करना मेरे लिए अद्भुत अनुभव था। यह मेरी पहली बड़ी सफलता थी, और मैं खुद को आजाद महसूस कर रही थी। लेकिन नए शहर के बारे में मन में कई सवाल थे—कैसे लोग होंगे? क्या मैं वहां के माहौल में फिट हो पाऊंगी?
नए शहर में संघर्ष और मेरे सपने
दिल्ली पहुंचकर मुझे एक सपना सच होता हुआ महसूस हुआ। बड़े-बड़े भवन, चमचमाती सड़कें, और भागती हुई लड़कियाँ—यह सब मेरे लिए नया था। हालांकि इस चकाचौंध के बीच मुझे अपने लक्ष्य पर ध्यान देना था, और मैंने जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में हिंदी साहित्य में दाखिला लिया। शुरुआत से ही साहित्य के प्रति एक अलग जुड़ाव था, साथ ही लिखना बहुत पसंद था, खासकर उस समुदाय पर जो हाशिये पर है, जिन पर तब ही लिखा जाता है जब कोई बहुत बड़ी बात हो। इसलिए मैंने जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में प्रवेश के लिए हिंदी साहित्य का फार्म भरा। लेकिन मेरे डैडी चाहते थे कि मैं कोई तकनीकी कोर्स करूं जो जल्दी हो जाए। इस सोच में उनकी पितृसत्तात्मक सोच थी।
इस बीच मेरा जामिया मिल्लिया इस्लामिया में हिंदी साहित्य में नाम आ गया था और तब मैंने अपने मनपसंद कोर्स का चुनाव करके उसमें प्रवेश ले लिया। मैं अपने परिवार और शायद अपने गाँव की पहली लड़की थी, जिसने किसी सेंट्रल यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया था।
उनका कहना था, “पहली बात तो उच्च शिक्षा में समय बहुत लगेगा, फिर शादी करने में देर होगी। दूसरा, समय के साथ पैसा भी खर्च होगा। ऐसे में पढ़ाई पर भी पैसे खर्च करो और दहेज के लिए भी पैसे बचाओ। इससे बेहतर है कोई छह महीने से एक साल का कोर्स करो और निपट जाओ।” ऐसा सोचना लगभग हर परिवार का होता है। ग्रामीण क्षेत्र में आज भी लड़कियां उच्च शिक्षा के लिए तरसती रहती हैं। लेकिन उन्हें मौका नहीं दिया जाता है। आज भी वे परिवार के लिए सिर्फ़ एक ज़िम्मेदारी मानी जाती हैं, जिसे परिवार जल्द से जल्द निपटा देना चाहता है। मुझे याद है कि मेरी कई सहेलियां थीं, जो पढ़ाई में मुझसे कहीं ज्यादा तेज़ थीं। लेकिन उन्हें मौका नहीं दिया गया और शायद उन्होंने लड़ाई भी की हो, लेकिन शायद उन्हें धमकाकर चुप करा दिया गया होगा।
इस बीच मेरा जामिया मिल्लिया इस्लामिया में हिंदी साहित्य में नाम आ गया था और तब मैंने अपने मनपसंद कोर्स का चुनाव करके उसमें प्रवेश ले लिया। मैं अपने परिवार और शायद अपने गाँव की पहली लड़की थी, जिसने किसी सेंट्रल यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया था। परिवार की पितृसत्तात्मक सोच अभी भी मेरे सामने चुनौती बनकर खड़ी थी। मेरे डैडी चाहते थे कि मैं कोई छोटा कोर्स करूं जो जल्दी खत्म हो जाए। उनका मानना था कि उच्च शिक्षा में समय और पैसा दोनों लगते हैं, जो बाद में दहेज के लिए बचाना चाहिए। यह सोच आज भी ग्रामीण परिवारों में सामान्य है, जहाँ लड़कियों की शिक्षा को शादी की जिम्मेदारी से जोड़ा जाता है।
मेरे परिवार में कई लोग मेरी पढ़ाई और करियर के फैसले से नाराज थे। कुछ का मानना था कि शहर जाते ही लड़कियाँ अपने मन की करने लगती हैं, इसलिए उन्हें मौके नहीं देने चाहिए। मेरे डैडी ने तो मुझसे बात तक करना बंद कर दिया। इस सबके बावजूद, मेरे मन का कोर्स करना और उसमें दाखिला लेना मेरे लिए एक बड़ी जीत थी।
सामाजिक दबाव और निजी संघर्ष
मेरे परिवार में कई लोग मेरी पढ़ाई और करियर के फैसले से नाराज थे। कुछ का मानना था कि शहर जाते ही लड़कियाँ अपने मन की करने लगती हैं, इसलिए उन्हें मौके नहीं देने चाहिए। मेरे डैडी ने तो मुझसे बात तक करना बंद कर दिया। इस सबके बावजूद, मेरे मन का कोर्स करना और उसमें दाखिला लेना मेरे लिए एक बड़ी जीत थी। चाहे शहर हो या गाँव, लड़कियों के लिए अपने मन का करियर चुनना आज भी आसान नहीं है। समाज उनके हर कदम पर नजर रखता है—उनके चलने, हंसने, और जीवन के हर पहलू पर। कई लड़कियाँ घर से निकलने के लिए संघर्ष करती हैं, और जो सफल हो भी जाती हैं, उन्हें समाज में गलत चरित्र का प्रतीक बना दिया जाता है। इस पितृसत्तात्मक समाज में रहकर भी लड़कियाँ अपने लिए नए रास्ते खोज रही हैं। वे आगे बढ़ रही हैं, और छोटी-छोटी सफलताओं का आनंद ले रही हैं। इस संघर्ष के बीच, उन्हें खुद को साबित करने के लिए बार-बार लड़ाई लड़नी पड़ती है।