संस्कृतिमेरी कहानी मेरा फेमिनिस्ट जॉय: मेरा नारीवादी विचार जिसने मुझे खुद से प्यार करना सिखाया!

मेरा फेमिनिस्ट जॉय: मेरा नारीवादी विचार जिसने मुझे खुद से प्यार करना सिखाया!

मैंने हार नहीं मानी, और आज मैं यह कह सकती हूं कि मैं अपने परिवार की पहली लड़की और अपने समाज की पहली शख्स हूं, जो पीएचडी की पढ़ाई कर रही है। हमारा समाज हमेशा से पुरुषवादी मानसिकता से जकड़ा हुआ है। आज भी, जब कुछ लोग चांद तक पहुंच चुके हैं, महिलाओं के प्रति समाज की नकारात्मक धारणाएं बनी हुई हैं।

वो एक बारिश की शाम थी, जब सोलह-सत्रह साल की एक चंचल लड़की अपनी धुन में हंसती-खेलती घर पहुंची। उसने देखा कि घर में उसकी मां की एक महिला मित्र बैठी हैं। महिला ने लड़की को देखते हुए मां से पूछा, “ये कौन है?” मां ने जवाब दिया, “यही तो मेरी छोटी बेटी है, जिससे मिलने के लिए तुम कब से बैठी हो।” महिला ने तुरंत प्रतिक्रिया देते हुए कहा, “ये है तुम्हारी छोटी बेटी? ये तो बिल्कुल ‘जंगली’ लगती है।” यह कहकर महिला ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगी, और वहाँ बैठे बाकी सब लोग भी ठहाके लगाने लगे। उस किशोरी को थोड़ा अपमानित महसूस हुआ। लेकिन सबको हंसते देख वह भी अनायास ही मुस्कुरा दी। हालांकि, उस लड़की के मन में यह बात एक गहरे घाव की तरह बैठ गई। यह घाव हर बार आईने में देखने पर ताजा हो जाता था। ‘सेल्फ लव’ जैसी बातें उसे बेमानी लगने लगी और वह भीतर ही भीतर एक अनचाही हीन भावना की शिकार होने लगी।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

किशोरावस्था किसी भी लड़की के जीवन का वह समय होता है जब वह कई शारीरिक और मानसिक बदलावों से गुजरती है। इस दौरान मन में बहुत से सवाल उठते हैं, और शरीर को इन बदलावों को स्वीकारने में समय लगता है। ऐसे में किसी से अपने बारे में नकारात्मक टिप्पणी सुनना बहुत ही परेशान करने वाला होता है। वो लड़की कोई और नहीं, मैं ही थी। वैसे तो दुनिया की हर लड़की की तरह मुझे भी समाज के बनाए मापदंडों की मार सहनी पड़ी। मैं भी उन लड़कियों में से थी जिसे हर कदम पर अपने हक की लड़ाई लड़नी पड़ी। मुझे उम्र के हर पड़ाव पर यह एहसास दिलाया गया कि मैं एक लड़की हूं, और इसलिए मुझे क्या करना चाहिए, क्या नहीं, यह समाज तय करेगा। अगर मुझे पढ़ने, लिखने, बोलने, हंसने की, यहां तक कि सांस लेने की भी आजादी मिली है, तो यह मुझ पर बहुत बड़ा एहसान है। इस एहसान की कीमत मुझे खुद को कुर्बान करके भी चुकानी पड़ेगी, क्योंकि मैं एक महिला हूं।

मुझे उम्र के हर पड़ाव पर यह एहसास दिलाया गया कि मैं एक लड़की हूं, और इसलिए मुझे क्या करना चाहिए, क्या नहीं, यह समाज तय करेगा। अगर मुझे पढ़ने, लिखने, बोलने, हंसने की, यहां तक कि सांस लेने की भी आजादी मिली है, तो यह मुझ पर बहुत बड़ा एहसान है।

मैं एक महिला हूं। एक जीती-जागती इंसान, जो शरीर के साथ-साथ अक्ल भी रखती है। मैं सुन सकती हूं और गलत होने पर आवाज़ भी उठा सकती हूं। जब जरूरत पड़े, तो अपने हक के लिए लड़ भी सकती हूं। मैं कोई मोम की गुड़िया नहीं, जो समाज की पितृसत्तात्मक सोच के अनुसार ढल जाऊं। मैंने इन मापदंडों से बिल्कुल अलग होकर अपनी पहचान बनाई है। इस सफर में मैंने रूढ़िवादी सोचों से लड़ते हुए अपनी राह खुद बनाई। मैं एक साधारण मध्यवर्गीय परिवार में पैदा हुई, पतली-दुबली, साधारण दिखने वाली लड़की थी। लोग कहते हैं कि हर इंसान की एक खास पहचान होती है, और सब अपनेआप में खास होते हैं, क्योंकि उन्हें ईश्वर ने बनाया है।

समाज का सुंदरता को अहमियत देना

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

लेकिन, ये बातें सिर्फ कहने के लिए होती हैं। हमारे समाज में सुंदरता को बहुत अहमियत दी जाती है, और जो इस पैमाने पर खरा उतरता है, उसे हर क्षेत्र में लाभ मिलता है। जो इस पैमाने पर खरा नहीं उतरता, उसे आलोचना झेलनी पड़ती है। मैं भी उन्हीं में से थी, जिसे बचपन से सुंदरता के पैमाने पर खरा न उतरने के कारण ताने मारे गए, मजाक उड़ाया गया और नीचा दिखाने की कोशिश की गई। मुझे अक्सर सुनने को मिलता था कि मैं अपनी मां या बहन जैसी नहीं दिखती, अजीब सी लगती हूँ, खूबसूरत नहीं हूं, और मेरी शादी में मुश्किलें आएगी। ये बातें मेरे मन को गहराई से चोट पहुंचाती थी और मेरे बाल मन पर इनका प्रभाव लंबे समय तक बना रहा। धीरे-धीरे मुझे यह समझ में आया कि मैं न तो लोगों को चुप करवा सकती हूं और न ही अपने चेहरे को बदल सकती हूं।

मैं एक महिला हूं। एक जीती-जागती इंसान, जो शरीर के साथ-साथ अक्ल भी रखती है। मैं सुन सकती हूं और गलत होने पर आवाज़ भी उठा सकती हूं। जब जरूरत पड़े, तो अपने हक के लिए लड़ भी सकती हूं।

ज़िंदगी में नया मोड़

फिर मेरी ज़िंदगी ने एक मोड़ लिया। मैंने खुद को वैसे ही स्वीकार करना शुरू कर दिया जैसी मैं थी, और यह बात दिल से मान ली कि मैं जैसी भी हूं, सबसे बेहतरीन हूं। लेकिन समाज की पुरुषवादी सोच लड़कियों को हर स्तर पर जज करती है, चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक। मैंने इसका सामना किया क्योंकि मैं बचपन से ही चंचल और खुशमिजाज थी, हमेशा हंसती रहती थी, मुझे इसके लिए भी आलोचना का सामना करना पड़ा। मुझे बार-बार टोका जाता था कि मैं लड़की होकर इतना क्यों हंसती हूं, इतनी ज़ोर से क्यों हंसती हूं, हर किसी के सामने क्यों हंसती हूं। मुझे कम बोलने और कम हंसने की नसीहतें दी जाती थीं।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

समाज की इस दोगली सोच से मुझे धीरे-धीरे चिढ़ होने लगी। मैं छोटी-छोटी बातों पर गुस्सा करने लगी। लेकिन अंदर ही अंदर मुझे यह एहसास भी होने लगा कि क्या क्रोध से कुछ बदल जाएगा? क्या मेरी नाराज़गी से चीजें बदल सकती हैं? समय के साथ मुझे समझ में आया कि अगर एक लड़की पढ़ी-लिखी हो, तो शायद उसे बोलने की थोड़ी आज़ादी मिल सकती है। अगर वह आत्मनिर्भर हो जाए, तो सुंदरता के मापदंड भी उसके लिए थोड़े अलग हो सकते हैं। इसी सोच ने मुझे पढ़ाई में ध्यान लगाने के लिए प्रेरित किया। मैंने अपना सारा ध्यान पढ़ाई पर केंद्रित कर दिया और उच्च शिक्षा को अपना लक्ष्य बना लिया। हालांकि, लड़कियों के लिए उच्च शिक्षा पाना भी आसान नहीं होता। इसमें शादी, घर-परिवार की जिम्मेदारी, समाज का ताना-बाना और बंदिशों की बेड़ियों का बोझ हर वक्त उनके साथ चलता है।

मैं बचपन से ही चंचल और खुशमिजाज थी, हमेशा हंसती रहती थी, मुझे इसके लिए भी आलोचना का सामना करना पड़ा। मुझे बार-बार टोका जाता था कि मैं लड़की होकर इतना क्यों हंसती हूं, इतनी ज़ोर से क्यों हंसती हूं, हर किसी के सामने क्यों हंसती हूं।

उच्च शिक्षा में खुदको लगा देना

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

लेकिन मैंने हार नहीं मानी, और आज मैं यह कह सकती हूं कि मैं अपने परिवार की पहली लड़की और अपने समाज की पहली शख्स हूं, जो पीएचडी की पढ़ाई कर रही है। हमारा समाज हमेशा से पुरुषवादी मानसिकता से जकड़ा हुआ है। आज भी, जब कुछ लोग चांद तक पहुंच चुके हैं, महिलाओं के प्रति समाज की नकारात्मक धारणाएं बनी हुई हैं। आज भी प्रतिष्ठा और सम्मान के नाम पर महिलाओं की खुशियों का बलिदान लिया जाता है। इसी माहौल में, समाज के मापदंडों पर खरा न उतरते हुए, मैंने अपने लिए अपनी पसंद का रास्ता चुना। लेखन मेरा शौक था और मैंने अपने आस-पास की घटनाओं को कलमबद्ध करना शुरू किया। जहां बोलने की अनुमति नहीं थी, वहां मैंने लेखनी के माध्यम से अपनी बात रखी। धीरे-धीरे लेखन मेरी ज़िंदगी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया। अब लेखन मेरे लिए वह साधन है, जिसके जरिए मैं अन्याय के खिलाफ लिख सकती हूंऔर उन महिलाओं की आवाज बन सकती हूं जिनके पास अपनी बात कहने का जरिया नहीं है।

समाज के मापदंडों पर खरा न उतरते हुए, मैंने अपने लिए अपनी पसंद का रास्ता चुना। लेखन मेरा शौक था और मैंने अपने आस-पास की घटनाओं को कलमबद्ध करना शुरू किया। जहां बोलने की अनुमति नहीं थी, वहां मैंने लेखनी के माध्यम से अपनी बात रखी। धीरे-धीरे लेखन मेरी ज़िंदगी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया।

अपना रास्ता खुद बनाना

मैंने एक ऐसी राह बनाई जो मेरे लिए और मेरे जैसे अन्य लोगों के लिए बिल्कुल नई थी। आज मैं गर्व से कह सकती हूं कि मैंने नारीवादी विचारधारा को अपनाया है, और मैं इसे पूरे दिल से समर्थन देती हूं। नारीवादी बनना मेरे जीवन का एक बड़ा इनाम है, जिसने मुझे हर परिस्थिति में खुद से प्यार करना सिखाया है। मैं यही कहना चाहूंगी कि हर लड़की को अपनी तकदीर खुद लिखनी चाहिए। उसे समाज की परिकल्पनाओं से अलग अपने सपनों को पूरा करने की कोशिश करनी चाहिए। मेरे सफर में कई कठिनाइयां आई, लेकिन हर मुश्किल ने मुझे और अधिक मजबूत बनाया। मेरा सफर अभी खत्म नहीं हुआ है। यह एक नई शुरुआत है। मेरी कहानी आगे भी चलती रहेगी, नए सफर और नई उम्मीदों के साथ।

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