सार्वजनिक परिवहन हमारे रोज़मर्रा की जिंदगी का अहम हिस्सा बन गया है। सार्वजनिक यातायात के साधनों जैसे बस, ट्रेन, मेट्रो, ऑटो रिक्शा वगैरह के बिना आधुनिक शहरों की कल्पना भी नहीं की जा सकती। ये आर्थिक दृष्टि से किफ़ायती होने के साथ ही पर्यावरण के लिए भी फ़ायदेमंद होते हैं। हर दिन लाखों लोग इनका इस्तेमाल कर घर, ऑफिस, स्कूल, कॉलेज, हॉस्पिटल जैसी जगहों पर पहुंचते हैं। इसमें भी पुरुषों की तुलना में महिलाएं सार्वजनिक परिवहन पर ज़्यादा निर्भर होती हैं। विश्व बैंक के एक आंकड़े के अनुसार, शहरी भारत की लगभग 84 फीसद महिलाएं काम के लिए नियमित तौर पर सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल करती हैं। इसमें सफ़र करने के दौरान महिलाओं के लिए सुरक्षा सबसे बड़ा मसला होता है। इसके लिए महिलाओं को हर समय अतिरिक्त सतर्कता बरतनी पड़ती है। ज़्यादातर महिलाएं देर रात या सुनसान रूट पर सफ़र करने से बचती हैं।
उत्तर प्रदेश के लखनऊ की डेटा एनालिस्ट पूजा यादव अपना अनुभव साझा करते हुए कहती हैं, “मेरे सार्वजनिक परिवहन में सफ़र करने के दौरान अलग-अलग तरह के खट्टे-मीठे अनुभव रहे हैं। जब मैंने फैमिली के साथ सफ़र किया, तब तो मुझे कोई ख़ास दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ा। लेकिन अकेले रहने पर बहुत सारी चुनौतियां सामने आईं। भीड़ का फ़ायदा उठाकर अक्सर पुरुष ग़लत तरीके से छूने का प्रयास करते हैं। महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों पर भी पुरुष यात्री बेशर्मी से कब्ज़ा जमाए बैठे रहते हैं। बहुत बार नए शहर में अंजान समझकर ऑटो रिक्शा वाले ग़ुमराह करते हैं और ज़्यादा किराया वसूलते हैं। सुरक्षित घर पहुंच जाने तक हर समय मन में तमाम तरीके के डर और आशंकाएं बनी रहती हैं।”
पिछले 10 सालों से अकेले सफ़र के दौरान मैंने बसों और ट्रेनों में लंबी दूरी की यात्राएं की हैं। इस दौरान मन में सबसे ज़्यादा ख़ुद की सुरक्षा को लेकर ख़याल चलता रहता है। इसके लिए हर पल सतर्क, सजग रहने की ज़रूरत महसूस होती है और इससे सफ़र का मज़ा कहीं पीछे छूट जाता है।
सार्वजनिक परिवहन में महिलाओं की स्थिति
जीवन के विविध क्षेत्रों में महिलाओं की उपस्थिति बढ़ रही है। इसके बावजूद महिलाओं को सार्वजनिक स्थानों पर अनेक रूपों में यौन हिंसा और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। इसमें अपमानजनक और भद्दे टिप्पणियां, इशारे, ग़लत तरीके से छूना यहां तक कि शारीरिक और यौन हिंसा भी शामिल है। इससे न सिर्फ़ महिलाओं की गतिशीलता प्रभावित होती है बल्कि सार्वजनिक शिक्षा और रोजगार के अवसर भी सीमित होते हैं। इसके साथ ही आवश्यक सेवाओं और मनोरंजन के साधनों तक पहुंच कम होने से शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर भी पड़ता है।
अकेले सफर में सफर का मजा नहीं बल्कि चिंता सताती है
पिछले 10 सालों से अकेले सफ़र के दौरान मैंने बसों और ट्रेनों में लंबी दूरी की यात्राएं की हैं। इस दौरान मन में सबसे ज़्यादा ख़ुद की सुरक्षा को लेकर ख़याल चलता रहता है। इसके लिए हर पल सतर्क, सजग रहने की ज़रूरत महसूस होती है और इससे सफ़र का मज़ा कहीं पीछे छूट जाता है। टिकट बुक करते समय भी सीट सेलेक्शन से लेकर सफ़र के दौरान बहुत सारी प्लानिंग और स्ट्रेटजी बनानी होती है। इसमें पसंद या सुविधा को प्राथमिकता न देकर पूरे ढके हुए रफ एंड टफ कपड़े पहनना, खाने-पीने की चीजें साझा न करना जैसी चीजें शामिल है। यहां तक कि देर रात वॉशरूम न जाना पड़े इसके लिए खाने-पीने के साथ भी समझौता करना पड़ता है। सोते समय भी अतिरिक्त चौकन्ना रहना पड़ता है। कई बार आस-पास के पुरुष यात्री फ़ोन पर या आपस में बातचीत के दौरान महिलाओं के यौनांगों पर आधारित स्त्रीद्वेषी गालियों का इस्तेमाल करते हैं, जिससे बेहद असहजता महसूस होती है।
यह सोचकर इतना तनाव होता है कि अराजक और आपराधिक तत्त्वों से सुरक्षा की ज़िम्मेदारी हमारी क्यों होनी चाहिए? दिल्ली से रिसर्च स्कॉलर जन्या सिंह दीप्ति ने सार्वजनिक परिवहन में यात्रा करने का अपना अनुभव साझा करते हुए बताया, “पब्लिक ट्रांसपोर्ट में सफ़र करने के दौरान मैं कभी भी निश्चिंत होकर सो नहीं पाती। इसके अलावा पुरुष यात्रियों के मैन्सप्रेडिंग की वजह से अक्सर असुविधा का सामना करना पड़ता है। इस मामले में केरल, गोवा और जम्मू कश्मीर तथा उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्यों में मेरा अनुभव फिर भी काफ़ी अच्छा रहा जबकि उत्तर भारत ने इस मामले में काफ़ी निराश किया। पब्लिक ट्रांसपोर्ट क्या प्राइवेट कैब में भी ड्राइवर का व्यवहार बहुत बार असहज कर देने वाला होता है। इसके अलावा छोटे बाल रखने या वेस्टर्न ड्रेस की वजह से कई बार डायरेक्ट कमेंट भी सुनने को मिला है।”
सार्वजनिक परिवहन और एलजीबीटीक्यू+ समुदाय
सार्वजनिक जीवन के लगभग हर क्षेत्र में एलजीबीटीक्यू+ समुदाय को भेदभाव का सामना करना पड़ता है। परिवहन भी इससे अछूता नहीं है। इसमें क्वीयर लोगों को अजीब समझना, अलग नज़रों से देखना, दूरी बनाना या मज़ाक बनाना आम बात है। ख़ासतौर पर ‘गे’ और ट्रांसजेंडर्स के साथ इस तरह की घटनाएं ज़्यादा देखी जाती है क्योंकि समाज में प्रचलित जेंडर बाइनरी की अवधारणा में ये कथित तौर पर ‘फिट’ नहीं होते। यूके और इज़रायल के दो केस स्टडीज पर आधारित एक शोध पत्र में क्वीयर समुदाय के सार्वजनिक यात्रा के अनुभवों को शामिल किया गया है। इसमें यह पाया गया कि इन्हें सुरक्षित सफ़र के लिए भारी कीमत चुकानी पड़ती है। कभी-कभी अपनी पहचान और सुरक्षा के बीच समझौता करना पड़ता है या फिर सफ़र के दौरान डर, चिंता और असुरक्षा से जूझना पड़ता है। इस वजह से बहुत बार महंगी कैब का इस्तेमाल करना पड़ता है या फिर लंबे और जटिल रास्ते को चुनना पड़ता है जिससे सफ़र के दौरान सुरक्षित महसूस कर सकें।
काम के सिलसिले में अक्सर मुझे बस, ऑटो वगैरह का इस्तेमाल करना पड़ता है। समाज के मानकों के अनुसार पुरुष जैसे कपड़े न पहनने और व्यवहार न करने की वजह से कई बार लोग अजीब नज़रों से घूरते हैं, इससे मुझे असहज महसूस होता है।
ऐसा ही कुछ अनुभव क्वीयर समुदाय से ताल्लुक रखने वाले फरीदाबाद (हरियाणा) के 26 वर्षीय आज़ाद (बदला हुआ नाम) का भी है। वह कहते हैं, “काम के सिलसिले में अक्सर मुझे बस, ऑटो वगैरह का इस्तेमाल करना पड़ता है। समाज के मानकों के अनुसार पुरुष जैसे कपड़े न पहनने और व्यवहार न करने की वजह से कई बार लोग अजीब नज़रों से घूरते हैं, इससे मुझे असहज महसूस होता है। कभी-कभी तो लोग आपस में कानाफूसी करके हंसते हैं। बाहर निकलते समय अपनी पहचान को लेकर बेहद सजग रहना पड़ता है। हालांकि हिंसा वगैरह की घटनाएं इत्तेफ़ाक से मेरे साथ अभी तक नहीं हुई हैं। लेकिन बाहर निकलने पर हर समय सुरक्षा को लेकर तनाव बना रहता है।”
लैंगिक आधार पर डेटा संग्रहण प्रक्रियाओं की कमी
1998 से एशियाई विकास बैंक और विश्व बैंक जैसे बड़े अंतर्राष्ट्रीय संगठन परिवहन क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए दिशा-निर्देश बना रहे हैं। हालांकि विश्व बैंक ने माना है कि ख़ासतौर पर एशियाई देशों में पितृसत्तात्मक संरचना की वजह से महिलाओं को दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता है। इस वजह से इनकी ज़रूरतों को अक्सर नज़रअंदाज कर दिया या जाता है। दक्षिण एशियाई देशों में महिलाओं की वैतनिक श्रम बल में भागीदारी लगभग 25 फीसद है। इसके बावजूद नीतियां बनाने में उनकी सुविधाओं और ज़रूरतों को ध्यान में नहीं रखा जाता।
मेरे सार्वजनिक परिवहन में सफ़र करने के दौरान अलग-अलग तरह के खट्टे-मीठे अनुभव रहे हैं। जब मैंने फैमिली के साथ सफ़र किया, तब तो मुझे कोई ख़ास दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ा। लेकिन अकेले रहने पर बहुत सारी चुनौतियां सामने आईं।
सार्वजनिक परिवहन में यौन हिंसा और उत्पीड़न का सही से आकलन करने और आवश्यक नीतियां बनाने के लिए सही डेटा का होना ज़रूरी है। अभी तक सार्वजनिक परिवहन प्राधिकरणों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले डेटा संग्रह में लिंग और यौनिकता से संबंधित आंकड़ों का अभाव है। एक तो एलजीबीटीक्यू+ समुदाय की समस्याओं के लिए अलग से डेटा संग्रह किया नहीं जाता और अगर ऐसा होता भी है तो इनके लिए डेटा संग्रह के दौरान अपनी पहचान ज़ाहिर करना भी मुश्किल होता है। ऐसे में सही डेटा नहीं मिल पाता है, जिससे नीतियां बनाना और उसे लागू करना और भी चुनौतीपूर्ण हो जाता है।
हिंसा और उत्पीड़न के सामाजिक और सांस्कृतिक कारण
सार्वजनिक परिवहन में महिलाओं और एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के ख़िलाफ़ उत्पीड़न के पीछे भेदभावपूर्ण सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना शामिल है। पितृसत्ता, लैंगिक भेदभाव और सामाजिक पूर्वाग्रह इस तरह के मामलों में अहम भूमिका निभाते हैं। ऐसे समाज में जहां महिलाओं को परंपरागत रूप से घर की चहारदीवारी में सीमित कर दिया जाता है और उन्हें कमोडिटी समझी जाती है। ऐसे में इनका बाहर निकलना और अकेले सफ़र करना इस रूढ़िवादी मानसिकता को चुनौती देता है। महिलाओं के ख़िलाफ़ हुए उत्पीड़न में कई बार दोषी ने यह कबूल भी किया है कि उन्होंने सबक सिखाने के लिए इस तरह का कुकृत्य किया। इसी तरह से क्वीयर समुदाय के व्यक्तियों को लेकर समाज में पूर्वाग्रह व्याप्त है, जिस वजह से इन्हें उत्पीड़न और हिंसा का सामना करना पड़ता है। यह न सिर्फ़ सार्वजनिक परिवहन तक सीमित है बल्कि सार्वजनिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में इस तरह की घटनाओं के पीछे ऐसी मानसिकता की अहम भूमिका होती है।
समाधान और क्या है आगे का रास्ता
महिलाओं और क्वीयर समुदाय के लिए सार्वजनिक परिवहन को सुरक्षित बनाने के लिए बहुत सारे शॉर्ट और लॉन्ग टर्म प्रयास किए जाने की ज़रूरत है। सबसे पहले तो जेंडर और यौनिकता के आधार पर डेटा संग्रह करने वाली प्रक्रियाओं को विकसित किया जाना चाहिए, जिससे समस्या को समझने में मदद मिले। इसके बाद सख़्त क़ानून बनाने और उसे प्रभावी ढंग से लागू करना भी बेहद ज़रूरी है। इसके लिए पुलिस और दूसरे संबंधित अधिकारियों को संवेदनशील बनाना भी इसका अहम हिस्सा है, जिससे सर्वाइवर को अपनी समस्या साझा करने के लिए सही माहौल मिल सके।
इसके अलावा सार्वजनिक परिवहन में सुरक्षा उपायों जैसे सीसीटीवी कैमरे लगाना, महिलाओं और एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के व्यक्तियों के लिए सेफ़ ज़ोन बनाना और हेल्पलाइन की सुविधा उपलब्ध कराना शामिल है। साथ ही महिलाओं और क्वीयर समुदाय के लिए सहायक सेवाएं जैसे काउंसलिंग और रिपोर्टिंग की उचित व्यवस्था भी आवश्यक है। इसके अलावा किसी भी तरह के भेदभाव को ख़त्म करने के लिए समाज के हर वर्ग को जागरुक करना ज़रूरी है। इसके लिए बड़े पैमाने पर जागरुकता अभियान चलाने की आवश्यकता है, जिससे प्रत्येक नागरिक की ज़िम्मेदारी सुनिश्चित की जा सके। इस प्रकार हमें एक ऐसा समाज बनाना होगा जहां प्रत्येक व्यक्ति बिना किसी डर और चिंता के सुरक्षित यात्रा कर सके।