समाजकानून और नीति बॉम्बे हाई कोर्ट का विवादास्पद फैसला: क्या मौखिक और मानसिक हिंसा क्रूरता नहीं है?

बॉम्बे हाई कोर्ट का विवादास्पद फैसला: क्या मौखिक और मानसिक हिंसा क्रूरता नहीं है?

भले ही कानून सभी नागरिकों के बीच समानता की बात करता है, लेकिन इसके अभ्यासकर्ता उन असमान तरीकों को देखने में विफल रहते हैं, जिनमें महिलाओं को उनके पुरुष समकक्षों की तुलना में सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से वंचित स्थिति में रखा जाता है।

बॉम्बे हाई कोर्ट की औरंगाबाद पीठ ने हाल ही में एक मामले में निर्णय दिया, जिसने सोशल मीडिया पर  कंट्रोवर्सी को आमंत्रित किया है। न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि यदि एक व्यक्ति का परिवार उसकी पत्नी को किसी भी कारण से टेलीविजन देखने या अकेले बाहर जाने की अनुमति नहीं देता है, और उसे कालीन पर सुलाते हैं तो यह कानून की नजर में ‘क्रूरता’ नहीं है। लाइव लॉ में छपी खबर के अनुसार 17 अक्टूबर को, न्यायमूर्ति अभय एस. वाघवासे की एकल-न्यायाधीश पीठ ने व्यक्ति और उसके परिवार को भारतीय दंड संहिता की धारा 498 ए (क्रूरता) और 306 (आत्महत्या के लिए उकसाना) के तहत क्रूरता के दोष से मुक्त करते हुए 20 साल पुराने ट्रायल कोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया। 

मामले में मृतक महिला की शादी 24 दिसंबर, 2002 अपीलकर्ता व्यक्ति से हुई थी। तब से ही ससुराल पक्ष के लोग उसका कथित तौर पर शोषण कर रहे थे। पति के परिवार पक्ष के लोग उसके द्वारा बनाए गए भोजन पर ताने मारते थे, उसे टीवी देखने की अनुमति नहीं देते और उसे पड़ोसियों से भी मिलने की अनुमति नहीं थी। साथ ही महिला को अकेले मंदिर में जाने की अनुमति नहीं देते थे, और उसे कालीन पर सुलाते थे। महिला के परिवार के अनुसार उसके साथ होने वाली यातनाओं से परेशान हो गई थीं और 1 मई, 2003 को उनकी आत्महत्या से मौत हो गई। मृतक के परिवार वालों ने पति पक्ष के खिलाफ आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला दर्ज करवाया। ट्रायल कोर्ट ने पति के घरवालों को महिला के खिलाफ क्रूरता का दोषी माना था। बाद में पति के पक्ष ने बॉम्बे उच्च न्यायालय में निचली अदालत के निर्णय के खिलाफ अपील दायर की। बॉम्बे उच्च न्यायालय ने निचली अदालत के फैसले को उलट दिया।  

न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि यदि एक व्यक्ति का परिवार उसकी पत्नी को किसी भी कारण से टेलीविजन देखने या अकेले बाहर जाने की अनुमति नहीं देता है, और उसे कालीन पर सुलाते हैं तो यह कानून की नजर में ‘क्रूरता’ नहीं है।

जब कोर्ट ने नहीं माना मौखिक और मानसिक हिंसा ‘हिंसा’ है   

तस्वीर साभार: फेमिनिज़म इन इंडिया

जस्टिस वाघवासे ने माना कि इनमें से कोई भी अपराध ‘गंभीर’ नहीं था। उन्होंने कहा कि इस अदालत की सुविचारित राय में, किसी भी आरोप में कोई गंभीरता नहीं है या आरोपों की ऐसी प्रकृति शारीरिक और मानसिक क्रूरता नहीं होगी क्योंकि अधिकांश आरोप आरोपी के घर के घरेलू मामलों से संबंधित हैं। न्यायाधीश ने आगे कहा कि महिला के साथ जो कुछ भी किया गया, उसे उत्पीड़न नहीं कहा जा सकता। सिर्फ कालीन पर सोने नहीं देना भी क्रूरता नहीं माना जाएगा। इसी तरह किस तरह की फब्तियां मृतक महिला पर कसीं गई, यह भी स्पष्ट नहीं हो पा रहा है। इसी तरह, उसे पड़ोसी के साथ घुलने-मिलने से रोकना भी उत्पीड़न नहीं कहा जा सकता है।  उच्च न्यायालय ने कहा कि घरेलू समस्याओं से जुड़े इन आरोपों की प्रकृति शारीरिक और मानसिक यातना नहीं है। उच्च न्यायालय ने महिला के पति, उसके भाई और माता-पिता को इन अपराधों और आईपीसी की धारा 306 (आत्महत्या के लिए उकसाना) से बरी कर दिया।

क्या हम पितृसत्ता से माध्यम से आदर्श ‘महिला’ को समझते हैं

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

लेखिका रोमिला थापर बताती हैं कि महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण किस तरह से एक समाज द्वारा एक परंपरा को अपनाने के तरीके से उत्पन्न होता है। उमा चक्रवर्ती के अनुसार, हिंदू समाज में पुरुषों और महिलाओं के लिए, आदर्श नारीत्व को पौराणिक चरित्र सीता द्वारा दर्शाया गया है, जो पीढ़ियों से चली आ रही है, और प्रतिनिधित्व करती है। आदर्श विवाह, महिला शुद्धता और बेवफाई- ये सभी पितृसत्तात्मक समाज में आदर्श महिला की छवि को सुदृढ़ करते हैं। किंवदंतियों और मिथकों में, महिलाओं को अक्सर सहनशीलता और दर्द सहने के प्रतीक के रूप में चित्रित किया जाता है। इस प्रकार, परंपरा और संस्कृति के नाम पर, अक्सर एक महिला को सम्मानजनक जीवन के अधिकार से वंचित कर दिया जाता है।  

उमा चक्रवर्ती के अनुसार, हिंदू समाज में पुरुषों और महिलाओं के लिए, आदर्श नारीत्व को पौराणिक चरित्र सीता द्वारा दर्शाया गया है, जो पीढ़ियों से चली आ रही है, और प्रतिनिधित्व करती है। आदर्श विवाह, महिला शुद्धता और बेवफाई- ये सभी पितृसत्तात्मक समाज में आदर्श महिला की छवि को सुदृढ़ करते हैं।

संभव है कि इस मामले में भी कुछ ऐसा हुआ हो। पत्नी को कालीन पर सुलाने के लिए दबाव डालना या उसको पड़ोसियों से मिलने से वंचित रखना एक परंम्परा का हिस्सा हो। लेकिन उस महिला से ऐसे दबाव में जीना मुश्किल हो गया हो। देखा जाए ये किसी भी व्यक्ति के स्वतंत्रता और मानवाधिकारों में बाधा है। इस फैसले के खिलाफ सोशल मीडिया पर कई लोगों ने टिप्पणी की। एक यूजर ने एक्स पर लिखा कि भारतीय महिलाओं को शादी करना बंद कर देना चाहिए। वैवाहिक बलात्कार कानूनी है, बहुओं के साथ गुलामों जैसा व्यवहार कानूनी है, पुरुष गुंडे और स्त्री द्वेषी होते हैं और महिलाएं उन्हें नहीं चाहतीं, अरेंज मैरिज तभी होती है जब महिला का परिवार दहेज देता है, शादियां महिलाओं के लिए काम नहीं करतीं।

पत्नी के रोज़मर्रा के कामों पर फब्तियां कसना क्रूरता कैसे नहीं है

यूनाइटेड नेशंस के अनुसार किसी भी व्यक्ति द्वारा किया गया कोई भी ऐसा व्यवहार जो किसी को डराता है, धमकाता है, आतंकित करता है, हेर-फेर करता है, चोट पहुंचाता है, अपमानित करता है, दोष देता है, घायल करता है या घाव पहुंचाता है, वह घरेलू दुर्व्यवहार/ या हिंसा कहलाता है। एक महिला अपने साथ होने वाले घरेलू दुर्व्यवहार के लक्षणों को इस प्रकार पहचान सकती है यदि आपका पार्टनर- 

  • क्या आपको अपने दोस्तों या परिवार के सामने आपको शर्मिंदा करते हैं या आपका मज़ाक उड़ाते हैं?
  • क्या आपको ठेस पहुंचाने वाली बातें कहने या आपको गाली देने के लिए नशीली दवाओं या शराब का उपयोग एक बहाने के रूप में किया जाता है?
  • वे कैसा महसूस करते हैं या कैसे व्यवहार करते हैं, इसके लिए आपको दोषी मानते हैं?
  • क्या आपको ऐसा लगता है कि रिश्ते से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं है?
  • आपको वह काम करने से रोकते हैं या जो आप चाहते हैं- जैसे दोस्तों या परिवार के साथ समय बिताना आदि से रोकते हैं।

एक यूजर ने एक्स पर लिखा कि भारतीय महिलाओं को शादी करना बंद कर देना चाहिए। वैवाहिक बलात्कार कानूनी है, बहुओं के साथ गुलामों जैसा व्यवहार कानूनी है, पुरुष गुंडे और स्त्री द्वेषी होते हैं और महिलाएं उन्हें नहीं चाहतीं, अरेंज मैरिज तभी होती है जब महिला का परिवार दहेज देता है, शादियां महिलाओं के लिए काम नहीं करतीं।

यूनाइटेड नेशंस के अनुसार यदि महिला को किसी से मिलने से रोका जाता है, तो यह उस महिला के खिलाफ दुर्व्यवहार माना जाएगा। बॉम्बे उच्च न्यायालय की इस फैसले में दी गयी टिप्पणी यूनाइटेड नेशंस के बनाये गए मानकों के विपरीत है। न्याय प्राप्त करने की दिशा में पितृसत्तात्मक, सांस्कृतिक और जातिगत मानदंडों के कारण महिलाओं के मामले अस्पष्ट है। बलात्कार के मामलों में भी ‘समझौते’ की अपेक्षा अदालतों में व्याप्त है। कानून के अच्छी तरह से तैयार किए गए मूल और प्रक्रियात्मक पहलुओं की व्यापकता के बावजूद, समानता का संवैधानिक वादा अभी भी महिलाओं के लिए एक दूर का सपना बना हुआ है। परंपरा, जाति, धर्म और संस्कृति जैसे अंतर्विभागीय कारक- ये सभी भारत में महिलाओं के लिए न्याय हासिल करने में बाधा के रूप में काम करते हैं।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

वास्तव में, लैंगिक पूर्वाग्रह आपराधिक न्याय प्रशासन और प्रक्रिया को परेशान करता है। एक शादीशुदा महिला को पति पक्ष के लोगों की बातें सुनना अनिवार्य होता है। पितृसत्तातमक सामाजिकता के अनुसार, वो जिस हाल में रखें महिला को वैसे ही रहना होता है। ये पूर्वाग्रह महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा को बढ़ावा देते हैं। लैंगिक न्याय को हासिल करने के लिए कानून को एक परिवर्तनकारी साधन के रूप में काम करना होता है। वकीलों और न्यायाधीशों को व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों और सामाजिक पूर्वाग्रहों को अपनाना नहीं चाहिए। न्यायालयों को महिलाओं के खिलाफ अपराधों के मामलों को संभालते समय सामाजिक रूप से संवेदनशील होने की आवश्यकता है। निवेदिता मेनन एक लेखिका और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली में राजनीतिक विचार की प्रोफेसर ने, अपनी पुस्तक ‘रिकवरिंग सबवर्सन: फेमिनिस्ट पॉलिटिक्स बियॉन्ड द लॉ’ में इस बात पर जोर दिया है कि कैसे अधिकांश कानूनी प्रणालियां महिलाओं के खिलाफ भेदभावपूर्ण हैं क्योंकि कानूनी एजेंट पितृसत्तात्मक तरीकों से कानूनों की व्याख्या करते हैं।

यूनाइटेड नेशंस के अनुसार यदि महिला को किसी से मिलने से रोका जाता है, तो यह उस महिला के खिलाफ दुर्व्यवहार माना जाएगा।

उनके अनुसार, भले ही कानून सभी नागरिकों के बीच समानता की बात करता है, लेकिन इसके अभ्यासकर्ता उन असमान तरीकों को देखने में विफल रहते हैं, जिनमें महिलाओं को उनके पुरुष समकक्षों की तुलना में सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक रूप से वंचित स्थिति में रखा जाता है। मार्था नुसबौम विश्व प्रसिद्ध दार्शनिक, लेखक और कानून की प्रोफेसर का भी यही मतलब है जब वह कहती हैं कि न्यायाधीशों को महिलाओं से संबंधित मुद्दों से निपटने के दौरान ‘स्थिति की विषमता’ को ध्यान में रखना चाहिए। इसलिए, अक्सर, कानून और राज्य महिलाओं के उत्पीड़न और दुर्व्यवहार के व्यक्तिपरक अनुभवों को देखने में विफल रहते हैं। जरूरी है कि हम कानून के मामलों में भी एक समावेशी और पूर्वाग्रह रहित विचारधारा अपनाए।

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