ज़ोहराबाई अंबालेवाली का जन्म अंबाला (पंजाब) में 1918 में एक संभ्रांत संगीतकार परिवार में हुआ था। यह स्थान वर्तमान समय में हरियाणा का क्षेत्र है। ज़ोहरा अरबी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ होता है ‘चमकना’ और इसमें कोई शक नहीं है ज़ोहराबाई की चमक 1940 तक भारत के हर कोने तक फ़ैल चुकी थी और न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी उनकी यह चमक कुछ कम नहीं थी। ज़ोहराबाई का गायन प्रशिक्षण उस दौर के समाज में हो रहा था जहां पुरुषवादी समाज पूरी तरह से हावी था। शायद यही मानसिकता रही होगी कि उनके पिता समेत दादा वगैरह सब संगीतकार होते हुए भी ज़ोहराबाई को कोई समर्थन देने के लिए तैयार नहीं थे। लेकिन उनके नाना का भरपूर समर्थन था जिसके तहत उनके गायकी का प्रशिक्षण आगरा घराने के मशहूर हिन्दुस्तानी संगीत द्वारा हुआ था। उस्ताद गुलाम हुसैन अली खान और उस्ताद नसीर हुसैन खान की देख-रेख में पूरी हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का प्रशिक्षण हुआ था।
उनकी आवाज़ में संगीत के सुरों का जो एक उतार चढाव दिखा वह शायद उस समय के बड़े-बड़े गायकों को भी अकेले मात देने के लिए बहुत था। 1944 में रतन फिल्म में करन देवान के साथ गया हुआ उनका गाना ‘सावन के बादलों उनसे ये’ लोगों को उनकी यह चुलबुली आवाज़ बहुत पसंद आई थी। हालांकि यह गाना विरह के रूप में था जिसे करन देवान ने गाया जरूर था लेकिन यह गाना ज़ोहराबाई के नाम से ही जानी गयी। ज़ोहराबाई ने अपने करियर की शुरुआत बहुत ही कम उम्र में कर दी थी। लगभग 14 साल की उम्र में उन्होंने आल इंडिया रेडिओ में अपनी पहली गायकी ग्रामोफ़ोन रिकॉर्डिंग से शुरू की थी। एक इंटरव्यू में वो अपनी इस पहली रिकॉर्डिंग के पीछे की कहानी बताते हुए कहती हैं कि जब आल इंडिया रेडिओ से उन्हें बुलावा आया तो उनके घर से कोई भी भेजने के लिए तैयार नहीं था।
बहुत ज़िद करने के बाद उनके दादा उन्हें दिल्ली लेकर आये थे तब जाकर उनकी पहली गीत ‘छोटे से बलमा मोरे अंगना में गिल्ली खेले’ रिकार्ड हुआ जो कोई फ़िल्मी गीत नहीं था। इसके बाद से जब ज़ोहराबाई ने गया तो फिर रुकी नहीं जब तक की खुद से नहीं छोड़ दिया। एक इन्टरव्यू में वो कहती हैं कि उनकी माँ ने बहुत प्रोत्साहित किया था, उन्हें उनकी गायकी को लेकर, और उन्हें संगीत में और आगे बढ़ने के लिए घर वालों को भी समझाया था। ज़ोहराबाई को उनकी माँ से मिली यह हिम्मत उनको अपने करियर में आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित भी किया।
कम उम्र में ख्याति
इतने कम उम्र में अंबाला से दिल्ली आना और संगीत को लक्ष्य करके आना उस रूढ़िवादी समाज में ज़ोहराबाई ने कितना कुछ सहा होगा। सबसे बड़ी बात है कि इतनी असमानताओं के होते हुए भी वह रुकी नहीं। वह आगे बढ़ती गयीं। हिंदी सिनेमा में मुख्य गायिका के रूप में उन्होंने पहला गीत प्राणसुख नायक के निर्देशन में फिल्म ‘डाकू की लड़की’ में गया था जिसके बाद उन्होंने हिंदी सिनेमा में मुख्य गायिका के रूप में दर्जनों गीत गाए। लेकिन, उनको सबसे अधिक प्रसिद्धि वर्ष 1944 में फिल्म रतन के गीतों से मिली। ‘अखियाँ मिला के जिया भरमाके’ गीत को उन्होंने सुनहरी मधुर आवाज़ दी और इसे और अधिक चमका दिया। उनकी यह आवाज़ न केवल दिल्ली तक बल्कि पेशावर, हैदराबाद और लाहौर जैसे कई बड़े-बड़े शहरों में गूंजने लगी। उनकी आवाज़ में ठुमरी और दादरी बहुत अधिक पसंद किया जाता था।
शायद उस समय की महिला कव्वाली गायकों में ये सबसे अधिक पसंद की जाती थीं। साल 1945 में जब फ़िल्म ज़ीनत आई तो उसकी एक क़व्वाली ‘आहें न भरी शिकवे न किए’, जिसमें ज़ोहराबाई के साथ नूरजहां और कल्यानी नायर की गायिकी भी शामिल थी। लेकिन, इसमें मुख्य गायिका के रूप में जिसे ख्याति मिली वो ज़ोहराबाई थीं। ज़ोहराबाई उस ज़माने की एक आवाज़ ही नहीं थी बल्कि लोग उनसे बहुत हद तक जुड़ चुके थे। ब्रिटिश राज्य में, ढूँढ़ने पर ये भी पता लगता है कि ये उनके लिए रिकॉर्डिंग भी करती थीं और कई सामंती दरबारों में गायिका भी रह चुकी हैं। उन्होंने तत्कालीन समय में पुरुषों के बराबर ही नहीं, उनसे आगे निकलकर दिखाई, जो आज के इस दौर में भी एक प्रेरणा का स्त्रोत है।
ज़ोहराबाई दुखभरे संगीत में अधिक रूचि रखती थीं और कड़ी मेहनत से उसकी पूरी तैयारी भी करती थीं। ये बातें पारंपरिक पंजाबी त्रासदी गीत ‘सामने गली में मेरा घर है, पता मेरा भूल नहिं जाना रे’ में दिखाई देता है। इसके अलावा जिन कठिन गीतों की गायकी ने उन्हें अपना एक अलग मुक़ाम दिया उनमें साल 1949 में आई फ़िल्म ‘महल’ का गीत जिसे राजकुमारी और खेमचंद प्रकाश के साथ मिलकर गाया था –‘ये रात फिर नहीं आयेगी जवानी बीत जाएगी’ बहुत अधिक पसंद किया गया था। साल 1948 में आई फ़िल्म ‘मेला’ जिसका गीत ‘शायद वो जा रहे हैं’ ज़ोहराबाई की आवाज़ ने इस फ़िल्म को पहचान दिया। इनका गया हुआ एक गीत जिसके बोल ‘दुनिया चढ़ाये फूल मैं आँखों को चढा दूं ,भगवान तुझे आज मैं रोना भी सिखा दूं’ आधुनिक दौर में भी ऐसे गीत के बोल नहीं दिखाई पड़ते हैं।
हिंदी सिनेमा से अलविदा
साल 1950 के बाद हिन्दुस्तानी संगीत में लता मंगेशकर के साथ और नई आवाज़ों के आगमन से जो भागदौड़ सिनेमा जगत में शुरू हुआ, उसका असर ज़ोहराबाई जैसी कलाकार पर भी हुआ। ज़ोहराबाई की आवाज़ भारी थी और लता मंगेशकर और नई पीढ़ी के कलाकरों की आवाज पतली थी। सिनेमा जगत में पुराने आवाजों और पुराने नाम जैसे ज़ोहराबाई को गायन के मौके बहुत कम मिलने लगे। इन नई आवाजों को जगह देने में पुरानी एक आवाज़ कहीं खो गई। हालात ऐसे हो गए हैं कि साल 1953 में फिल्म ‘तीन बत्ती चार रास्ता’ के गीत में केवल एक लाइन की गायकी के प्रस्ताव ने उन्हें खिन्न कर दिया जिसकी वजह से हिंदी सिनेमा में उनकी गायन की रूचि भी खत्म होती दिखाई पड़ी।
मुख्य गायिका के रूप में ज़ोहराबाई की अंतिम जो गीत थी वह साल 1957 में आई फ़िल्म ‘नौशेरवां-ए-आदिल’ के गीत ‘मेरे दर्द-ए-दिल की धड़कन’ थी जिसके बाद से ज़ोहराबाई ने हिंदी सिनेमा में मुख्य गायिका के रूप में दिखाई नहीं पड़ती हैं। इन सब से आहत होकर वे धीरे-धीरे हिंदी सिनेमा से संन्यास ले लीं। ज़ोहराबाई अपने अंतिम समय तक गायकी को नहीं छोड़ सकीं और वो अपनी बेटी के कार्यक्रमों में गायन का काम किया करती थीं। इसी के साथ उन्होंने अपने जीवन का अंतिम क्षण बहुत गुमनामी के साथ बिताकर साल 1990 में सदा के लिए इस संसार से विदा ले लीं।
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