विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार पूरे दुनिया में हर तीन में से एक महिला को जीवन के किसी न किसी मोड़ पर हिंसा का सामना करना पड़ता है। यह हिंसा घरेलू, यौन उत्पीड़न, या कार्यस्थल पर उत्पीड़न जैसी घटनाओं के रूप में हो सकती है, जो महिलाओं के जीवन में गहरे निशान छोड़ जाती हैं। इन समस्याओं का समाधान करने के लिए 2015 में सरकार ने ‘वन स्टॉप सेंटर’ (OSC) की शुरुआत की थी। यह केंद्र महिलाओं को सुरक्षा, सहायता और कानूनी मदद प्रदान करने के लिए बनाए गए थे। हाल ही में, विकलांगता से जुड़े अधिकारों पर काम करने वाले केंद्र श्रुति डिसएबिलिटी राइट्स सेंटर की एक रिपोर्ट ने इन केंद्रों की वास्तविक स्थिति को उजागर किया है। रिपोर्ट में बताया गया है कि इन केंद्रों में कई कमियां हैं, जो महिलाओं की मदद करने की उनकी क्षमता को प्रभावित करती हैं।
इन केंद्रों में विशेष रूप से विकलांग महिलाओं के लिए आवश्यक सेवाओं का अभाव है। यह रिपोर्ट इस पहल की खामियों को सामने लाती है और बताती है कि इन समस्याओं को सुलझाने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को ठोस कदम उठाने की जरूरत है। इस रिपोर्ट के माध्यम से यह स्पष्ट होता है कि महिला सुरक्षा के लिए शुरू की गई इस महत्वपूर्ण पहल में सुधार की जरूरत है, ताकि यह महिलाओं के जीवन में असल में ठोस बदलाव ला सके। रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश में OSCC तुलनामूलक कार्यात्मक और संचालित हैं, लेकिन पश्चिम बंगाल में समीक्षा के दौरान यह पाया गया कि कई OSCC सेंटर्स पूरी तरह से निष्क्रिय और बंद है जिस कारण पश्चिम बंगाल की स्थिति चिंताजनक बनी हुई है।
इन चारों राज्यों के OSC में एक आम समस्या यह है कि विकलांग व्यक्तियों के लिए किसी भी तरह की विशेष सेवाएं उपलब्ध नहीं हैं। ये सारी कमियां OSC को समावेशी होने से रोकती है और OSC के मकसद को कमजोर करती है। यह उन महिलाओं को हाशिए पर धकेलती है, जो पहले से ही हाशिये पर जी रही हैं और हिंसा का सामना कर रही हैं। OSC का असल मकसद महिलाओं और युवतियों को किसी भी प्रकार के हिंसा से बचाने और उनके रहने के लिए एक सुरक्षित जगह देना होता था, जहां वे बिना किसी सामाजिक दबाव के मदद ले सकती हैं। लेकिन इस रिपोर्ट ने यह उजागर किया है कि OSC के केंद्रों की संचालन क्षमता समय के साथ कमजोर हुई है। कई महिलाएं, जो कानूनी प्रक्रियाओं या सामाजिक कलंक के डर से सहायता नहीं ले पाती थीं, इन केंद्रों से जुड़ने में अब भी हिचकिचाती हैं। यह पहल, जो महिलाओं की सुरक्षा का पर्याय बन सकती थी, आज संसाधनों की कमी और प्रशासनिक उदासीनता के कारण अपने असल मकसद से भटकती नजर आ रही है।
OSC की शुरुआत
OSC (वन स्टॉप क्राइसिस सेंटर) की शुरुआत साल 2015 में निर्भया फंड के तहत की गई थी। इसका विचार 2012 में हुए दिल्ली सामूहिक बलात्कार मामले के बाद हुआ, जिसने पूरे देश को महिलाओं की सुरक्षा के प्रति जागरूक किया। OSC का मुख्य उद्देश्य हिंसा और उत्पीड़न का सामना कर रही महिलाओं को, सामाजिक दबाव से बाहर होकर एक ही जगह पर इलाज, कानूनी सलाह, मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं और पुनर्वास की सुविधाएं देना था। इस योजना को प्रेरणा मुंबई की दिलासा कम्युनिटी से मिली, जिसने मुंबई नगर निगम और सेंटर फॉर एन्क्वायरी इन हेल्थ एंड एलाइड थीम्स (CEHAT) के सहयोग से घरेलू हिंसा और यौन शोषण का सामना कर रही महिलाओं और बच्चों के लिए एक समग्र मॉडल विकसित किया था।
इस मॉडल में शारीरिक इलाज, मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों और कानूनी सेवाओं का संयोजन शामिल था, जो महिलाओं की न केवल मदद करता था, बल्कि उन्हें सामाजिक दबाव और कलंक से बाहर निकलने का रास्ता भी दिखाता था। इसी मॉडल को OSC ने अपनाया और पूरे देश में लागू करने का प्रयास किया। दिलासा मॉडल को साल 2000 में मुंबई नगर निगम (MCGM) और CEHAT द्वारा विकसित किया गया था। यह मॉडल घरेलू और यौन हिंसा का सामना कर चुकी महिलाओं को आपातकालीन आश्रय, कानूनी सलाह और सामाजिक और मानसिक समर्थन जैसी सेवाएं देता था ताकि महिलाएं किसी भी कारण से मदद लेने से पीछे न हटे।
पश्चिम बंगाल में OSCC की कमजोर स्थिति
वन स्टॉप क्राइसिस सेंटर का मकसद महिलाओं को आपातकालीन सहायता, चिकित्सा सेवाएं, कानूनी सलाह और मानसिक स्वास्थ्य समर्थन जैसे एकीकृत सेवाएं प्रदान करना है। ये केंद्र उन लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण सहारा होते हैं, जो हिंसा, दुर्घटनाओं या किसी भी संकटपूर्ण स्थितियों का सामना कर रही होती हैं। हालांकि, श्रुति डिसएबिलिटी की रिपोर्ट के अनुसार, पश्चिम बंगाल में कई OSC या तो बंद हैं या पूरी तरह से निष्क्रिय हैं, जिससे महिलाओं को जरूरी सेवा लेने में परेशानी हो रही है।
कोलकाता के नजदीक साउथ 24 परगना ज़िले के अंतर्गत बिजयगढ़ सेंटर और नॉर्थ 24 परगना के बारासात सरकारी अस्पताल में स्थित OSC सेंटर्स इसके स्पष्ट उदाहरण हैं, जहां न तो पर्याप्त कर्मचारी हैं और न ही बुनियादी सुविधाएं। यहां तक कि बिजॉयगढ़ राज्य सामान्य अस्पताल भी किसी प्रकार के चिकित्सा सुविधा के बिना निष्क्रिय है। इस प्रकार की स्थिति यह बताती है कि जबतक जरूरतमंदों के लिए विश्वसनीय और सशक्त समर्थन प्रणाली नहीं होगी, तबतक वे अपनी मदद करने में असमर्थ रहेंगे।
दूसरे राज्यों में OSCC की स्थिति
दूसरी ओर, बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश के OSC सेंटर्स बंगाल की तुलना में तुलनामूलक बेहतर स्थिति में हैं। लेकिन इन राज्यों में भी संसाधनों और प्रशिक्षित स्टाफ की कमी स्पष्ट रूप से देखी जा रही है। इन केंद्रों में अक्सर मदद मांगने वाली महिलाओं को कानूनी प्रक्रियाओं में उलझा दिया जाता है, जो OSC के मूल उद्देश्य ‘बिना झिझक और कानूनी दबाव के सहायता प्रदान करना’ के खिलाफ़ है। पिछले 25 वर्षों से जेंडर और विकलांगता से जुड़े मुद्दों पर काम कर रही शम्पा सेनगुप्ता बताती हैं, “झारखंड के रांची में OSC की सुविधा मानसिक अस्पताल के परिसर में दी जाती है, जो बिल्कुल भी उपयुक्त नहीं है। मानसिक अस्पताल का माहौल सर्वाइवर महिलाओं के लिए असुरक्षित और डरावना हो सकता है, जिससे उनकी मानसिक स्थिति और अधिक बिगड़ने का खतरा रहता है। वहीं, उत्तर प्रदेश के लखनऊ में OSC का सेंटर अन्य राज्यों की तुलना में बेहतर है।
लेकिन विकलांग लोगों के लिए वहां भी कोई सुविधा उपलब्ध नहीं हैं। ऐसे केंद्र, जिनका उद्देश्य सभी जरूरतमंदों को सहायता देना है, अगर विकलांग व्यक्तियों को ही अनदेखा करें, तो यह एक बड़ी विफलता है। शम्पा कहती हैं, “बिहार में स्टाफ की कमी का मामला लगातार उठाया जाता है। वहां मौजूद कर्मचारियों की संख्या बेहद कम है, जिससे सेवाओं की गुणवत्ता पर बुरा असर पड़ता है। लेकिन इसके बावजूद वहां की स्थिति बंगाल की तुलना में संचालित मालूम होती है। इसके उलट, बंगाल में स्थिति और भी गंभीर है। यहां न तो OSC के बारे में लोगों को जागरूक किया गया है और न ही सेंटर्स पर इसे प्रभावी बनाने के लिए कोई ठोस प्रयास हो रहे हैं। यह प्रशासनिक उदासीनता और जागरूकता की कमी का परिणाम है।”
इसके अलावा अगस्त के अपने बंगाल दौरे के अनुभव को साझा करते हुए शम्पा कहती हैं, “उस समय हमारे राज्य में न्याय की बातें जोर-शोर से हो रही थीं, लेकिन जमीनी हकीकत यह थी कि न्याय उन मुद्दों पर खो जाता है, जिनपर चर्चा ही नहीं होती।” दूसरी ओर उन्होंने उत्तर प्रदेश में एक गांव के दौरे का भी उल्लेख किया, जहां OSC सेंटर के पास एक बड़ी राजनीतिक पार्टी का कार्यालय था। उनका मानना है कि ऐसे माहौल में महिलाओं को स्वतंत्र और सुरक्षित महसूस करना मुश्किल हो सकता है। शम्पा OSC को बेहतर बनाने, विकलांग और जरूरतमंदों के लिए सुविधाएं बढ़ाने और इन सेंटर्स को ऐसी जगहों पर स्थापित करने जहां सर्वाइवर महिलाएं सुरक्षित और सम्मानित महसूस करें पर जोर देती हैं। जागरूकता अभियान और प्रशासनिक पहल ही इन समस्याओं का समाधान ला सकती हैं।
वन-स्टॉप क्राइसिस सेंटर के सामने चुनौतियां और सुधार की जरूरत
रिपोर्ट में बताया गया है कि चारों राज्यों में विकलांग महिलाओं के लिए कोई विशेष सेवाएं या सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। यह एक गंभीर कमी है क्योंकि विकलांग महिलाएं लैंगिक हिंसा और शोषण के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं। कई सेंटर्स में बुनियादी सुविधाओं की कमी है, जिससे महिलाएं जरूरी सहायता नहीं ले पा रही है। इसके अलावा, स्टाफ अक्सर इस क्षेत्र के लिए पर्याप्त रूप से प्रशिक्षित नहीं होते, जिससे केंद्रों की सेवा गुणवत्ता प्रभावित होती है। कई बार इन केंद्रों में स्पष्ट नीतियों और प्रक्रियाओं की कमी भी देखी जाती है, जिससे सेवाओं में असमानता और उलझने बढ़ती है। वन स्टॉप क्राइसिस सेंटर्स को लेकर जागरूकता की कमी एक बड़ी समस्या है। ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में महिलाएं इन केंद्रों की सेवाओं और उद्देश्यों से अनजान रहती हैं, जिससे वे मदद पाने से वंचित हो जाती हैं।
विकलांग महिलाओं के लिए इन केंद्रों में विभिन्न सुविधाएं जैसे व्हीलचेयर-अनुकूल प्रवेश, सहायता उपकरण, और प्रशिक्षित कर्मचारियों की अनुपलब्धता भी बाधा बनती है। इन समस्याओं को हल करने के लिए केंद्रों को विकलांग-अनुकूल बनाना होगा। व्हीलचेयर की सुविधा, विशेष परामर्श सेवाएं, और संवेदनशील कर्मचारियों की नियुक्ति जरूरी है। इसके अलावा, नियमित प्रशिक्षण और निगरानी से सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार हो सकता है। फंडिंग में पारदर्शिता और OSC के प्रति जागरूकता अभियान भी जरूरी हैं। जब तक यह पहल कमजोर और उपेक्षित समूहों तक नहीं पहुंचेगी, तब तक इसका प्रभाव सीमित रहेगा। सरकार और समाज के सहयोग से ही इन केंद्रों का उद्देश्य पूरा हो सकता है।