हाल ही में सरकार ने संसद में एक रिपोर्ट पेश की जिससे पता चलता है कि महिला और बाल संरक्षण से जुड़े संस्थानों में 38.69 फीसद पद खाली हैं। जिन संस्थानों से महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की अपेक्षा की जाती है उन संस्थाओं का यह हाल उनकी क्षमताओं पर सवाल खड़े करता है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के सालाना प्रकाशित होने वाले आंकड़े बताते हैं कि दिन-प्रतिदिन महिलाओं और बच्चों से जुड़े अपराधों में बढ़ोतरी हो रही है। टाइम्स ऑफ़ इंडिया में प्रकाशित इसके 2023 के आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में हर घंटे महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले अपराध के 51 मामले दर्ज़ किए जाते हैं। ऐसे में महिलाओं और बच्चों से जुड़े संस्थानों में पद खाली रहना इनके लिए एक बड़ी चुनौती के तौर पर सामने उभर रहा है। समाज के कमज़ोर वर्गों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए बेहद ज़रूरी है कि इनसे जुड़े संस्थानों को और मजबूत बनाया जाए और जिससे उनकी जवाबदेही तय की जा सके और इसमें स्वीकृत पदों को भरना इसका पहला कदम है।
क्या बताते हैं आंकड़ें
महिला और बाल विकास मंत्रालय (WCD), राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) और राष्ट्रीय महिला आयोग (NCW) में स्टाफ की भारी कमी है। इस मामले में सबसे ज़्यादा खराब स्थिति राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की है, जिसमें स्वीकृत 36 पदों में से 32 यानी लगभग 89 फीसद खाली हैं। यहां ग़ौर करने वाली बात यह है कि यह बाल अधिकारों से जुड़ा देश का सर्वोच्च संस्थान है जिसे बच्चों की सुरक्षा और उनके अधिकारों से जुड़ी वैधानिक शक्तियां भी प्राप्त हैं। 2007 में स्थापित राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग को बच्चों से जुड़ी नीतियां, क़ानून और कार्यक्रमों को बनाने और उन्हें लागू करवाने के लिए संविधान द्वारा अधिकार दिए गए हैं। इसी तरह महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के कुल 266 पदों में से 66 पद खाली हैं। बच्चों को गोद लेने से जुड़ी संस्था केंद्रीय दत्तक ग्रहण संसाधन प्राधिकरण (CARA) में इस समय 37.80 फीसद पद खाली हैं। इसी तरह देश के दूसरे हिस्सों में भी महिलाओं और बच्चों से जुड़े दूसरे संस्थानों में भी भारी संख्या में पद खाली हैं। ज़ाहिर है इससे इनकी कार्यक्षमता बुरी तरह प्रभावित हो रही है। इस वजह से महिलाओं और बच्चों को न्याय मिलने में देरी हो रही है और इन संस्थाओं के औचित्य पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं।
स्टाफ की कमी का असर
करीब 40 फीसद पद खाली होने से इन संस्थाओं की अपराध रोकने और सर्वाइवर्स को सहायता देने की क्षमता पर बुरा असर पड़ रहा है। ऐसे समय में जब महिलाओं और बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराधों की दर बढ़ रही है उसे समय इनके संरक्षण से जुड़े संस्थानों की काम करने की क्षमता को और बढ़ाने के लिए अधिक कर्मचारियों की भर्ती की जानी चाहिए, जबकि रिपोर्ट में पाया गया कि असल में इसका उल्टा हो रहा है। यहां पहले से ही पद खाली पड़े हैं, ऐसे में नए पद सृजित किए जाने की संभावना दूर-दूर तक नज़र नहीं आती है। इस वजह से जब भी महिलाओं एवं बच्चों से जुड़े अपराध होते हैं तो उनकी जांच में देरी होती है। इसके अलावा पहले से चल रहे मामलों के निपटान में भी समस्या आती है।
सर्वाइवर्स की सुरक्षा, सहयोग और पुनर्वास जैसे कामों में बाधा आती है जिस वजह से इन्हें लंबे समय तक सामान्य होने और अपनी ज़िंदगी ठीक तरीके से जीने में कठिनाई आती है। इस तरह से इन संस्थानों के बनाए जाने का मकसद ही अधूरा रह जाता है। इसके अलावा सही समय पर अपराधों का निपटान न होने से अपराधी खुलेआम घूमते रहते हैं जिससे उनके द्वारा अपराधों को दोहराए जाने की आशंका बढ़ जाती है। बहुत बार अपराधी सर्वाइवर पर दबाव बनाते हैं और मामले को रफा-दफा करने के लिए ग़ैरक़ानूनी तरीकों जैसे- धमकी, हिंसा वगैरह का इस्तेमाल करते हैं। इसके अलावा देरी से मिला न्याय, न्याय न मिलने के बराबर होता है तो ऐसे में अपराधियों का मनोबल बढ़ता रहता है जबकि सर्वाइवर्स का भरोसा न्याय व्यवस्था से उठने लगता है जो कि लंबे समय में सभ्य समाज के लिए ख़तरनाक साबित होता है।
संकट का समाधान
महिला एवं बाल संरक्षण में संस्थानों में स्टाफ की कमी को दूर करने के लिए ठोस कदम उठाने की ज़रूरत है। सबसे पहले तो संस्थानों की समीक्षा की जानी चाहिए, जिससे पता चल सके कि वहां पर किस तरह के और कितने पद खाली हैं। इसके बाद इन पदों को भरने के लिए बड़े पैमाने पर भर्ती अभियान चलाना चाहिए। संस्थानों में पदों की ज़रूरत के अनुसार योग्य उम्मीदवारों का चयन सुनिश्चित किया जाना भी बेहद ज़रूरी है। इनकी भर्ती प्रक्रिया में नियमितता और पारदर्शिता होना सही उम्मीदवारों के चयन के लिए ज़रूरी है। महिला एवं बाल संरक्षण संस्थानों में उम्मीदवारों का चयन सिर्फ़ उनकी शैक्षिक योग्यता के आधार पर न होकर उनकी रुचि और व्यक्तित्व को भी परखा जाना चाहिए। जिससे ऐसे संवेदनशील जगहों पर योग्य उम्मीदवार ही नियुक्ति पा सकें जिनके लिए उनका काम सिर्फ़ पैसे कमाना न हो बल्कि संतुष्टि का जरिया भी हो।
इसके साथ ही समय-समय पर नीतियों और प्रक्रियाओं की समीक्षा करनी चाहिए, जिससे ज़रूरत पड़ने पर उनमें जरूरी बदलाव किए जा सकें। महिला एवं बाल संरक्षण से जुड़े संस्थानों को सही समय पर ज़रूरी वित्तीय संसाधन भी उपलब्ध कराना चाहिए जिससे किसी भी दशा में उनका काम प्रभावित न हो। इसके अलावा समय-समय पर स्टाफ के लिए ट्रेनिंग और वर्कशॉप्स आयोजित करना चाहिए जिससे इन्हें जटिल मामलों को भी सुलझाने में मदद मिल सके। जिस तरह से अपराध में तकनीक के आने के बाद से आए दिन नए-नए और अनोखे प्रयोग सामने आ रहे हैं, उसी तरह उन अपराधों के निपटान के मामले में भी तकनीक का इस्तेमाल सुनिश्चित किया जाना चाहिए, जिससे इस तरह के मामलों से कुशलता से निबटा जा सके।
क्या हो सकता है समाधान
किसी भी अपराध को एकदम से ख़त्म नहीं किया जा सकता है, इसके लिए कुछ शॉर्ट टर्म और लॉन्ग टर्म उपायों को अपनाने की ज़रूरत है। सबसे पहले महिलाओं और बच्चों के ख़िलाफ़ हो रहे अपराधों की वजह की पड़ताल करना ज़रूरी है जिससे यह पता चल सके कि आख़िर वह कौन सी मानसिकता है जिसकी वजह से ऐसे अपराध बढ़ रहे हैं। इसके साथ ही समाज में विभिन्न वर्गों के लिए विशेष तौर पर जागरुकता अभियान संचालित किया जाना चाहिए। सरवाइवर अपने अधिकारों और सहायता के लिए जागरुक हो सकें और मदद ले सकें इसके लिए भी उचित व्यवस्था की जानी चाहिए। ख़ासतौर पर महिलाओं के ख़िलाफ़ हो रहे अपराधों की बड़ी वजह भेदभावपूर्ण सामाजिक सोच है, इसलिए समानतावादी और समावेशी समाज बनाने के लिए बड़े पैमाने पर अभियान चलाए जाने की ज़रूरत है।
महिलाओं और बच्चों से जुड़े अपराध देश के लिए एक संकट के समान है जिससे न सिर्फ़ सम्बंधित व्यक्ति बल्कि आने वाली पीढ़ियां प्रभावित होती हैं इसलिए इसे प्राथमिकता के आधार पर सुलझाना ज़रूरी है। इनसे जुड़े संस्थानों को सशक्त बनाया जाना इस दिशा में ज़रूरी कदम साबित हो सकता है। किसी भी समाज का विकास तभी पूरा होगा जब इसका लाभ समाज के कमजोर वर्गों तक पहुंचे। इसलिए यह सरकार के साथ-साथ सभी की सामाजिक ज़िम्मेदारी है कि इस दिशा में ज़रूरी कदम उठाएं। तभी हम एक समानतावादी, समावेशी और विकसित समाज की कल्पना को सार्थक कर सकेंगे, जहां जाति, धर्म, लिंग और समुदाय से परे सभी को गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार मिल सकेगा।