देखा जाए तो साल 2024 लोगों के लिए और सरकार के लिए गरमा गर्मी का समय था क्योंकि देश में चुनाव थे। महिला आरक्षण बिल संसद में पास होने के बाद यह पहला आम चुनाव था। हालांकि इस बिल को लागू होने में समय है। इससे अलग बात करे तो चुनाव में महिला उम्मीदवारों को टिकट देने के मामले में सभी पार्टियां पीछे रही लेकिन सभी पार्टियां महिलाओं के वोट अपने पक्ष में डालने के लिए तमाम लुभावनी योजनाओं की घोषणा करती नज़र आई। इससे अलग इस साल कई चुनौतियां और नई उपलब्धियों के लिए महिलाएं हर मोर्चे में आगे रहीं। महिलाओं के लिए यह साल कुछ मिला-जुला रहा। जहां एक ओर कुछ अपनी मांगों को लेकर सड़क पर आंदोलन करने पर मजबूर हुईं। वहीं कुछ को अपने काम के लिए देश ही नहीं विदेशो में पुरस्कारों से नवाज़ा गया। महिलाओं ने नाम और शोहरत दोंनो कमाए तो वहीं कुछ महिलाओं को अपने जीवन और बुनियादी अधिकारों के लिए संघर्ष करना पड़ा।
1.सुनीता पोट्टामः बस्तर में हो रहे मानवाधिकार हनन पर आवाज़ उठाने पर जेल
26 वर्षीय सुनीता पोट्टाम एक आदिवासी युवा है। वे ज़िला बीजापुर की गंगालूर गाँव की रहने वाली है। छत्तीसगढ़ बस्तर में चल रहे सिलगेर आंदोलन जो बस्तर के गावों में अवैध सुरक्षा शिविरों के ख़िलाफ़ और सुरक्षा कर्मियों द्वारा महिलाओं पर हो रहे यौन उत्पीड़न का विरोध कर आंदोलन चलाया जा रहा है जिसमें अन्य लोगों के साथ सुनीता भी शामिल हैं और आंदोलन का नेतृत्व भी कर रही थी। इस आंदोलन में दस हज़ार आदिवासी शामिल थे। ये आंदोलन खनन परियोजना के ख़िलाफ़ लोकतांत्रिक तरीक़े से विरोध करता है। पिछले कई सालों से बस्तर में औद्योगिक विकास के नाम पर राज्य और करपोरेटों द्वारा क्षेत्र में खनन कम्पनियों की यात्रा की सुविधा के लिए बड़ी सड़के बना रहे हैं जिसके लिए निवासियों के घरों को उजाड़ा जा रहा है, गाँवों में हर दो किलोमीटर पर पुलिस कैम्प बनाया जा रहा है ताकि लोग विरोध ना कर पाए और खुले आम आदिवासियों पर गोली चलाना, सुरक्षा कर्मियों द्वारा महिलाओं के साथ मारपीट, दुर्व्यवहार, बलात्कार करना सामने आया और इन्हीं मौलिक अधिकारों के उल्लंघन और हिंसा के ख़िलाफ़ सुनीता आवाज़ उठा रही है।
पोट्टाम ने 2016 में बीजापुर में ग्रामीणों की फर्जी मुठभेड़ों के खिलाफ प्रदर्शन किया था। उन्होंने सबूत जुटाए थे, जो यह दिखाते थे कि जिन लोगों को नक्सली बताकर मारा गया, वे वास्तव में सामान्य ग्रामीण थे जिन्हें सुरक्षा बलों ने गोली मारी थी। इसके बाद, पोट्टम ने इन सबूतों के साथ छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय में याचिका दायर की। यह मामला बाद में सर्वोच्च न्यायालय में स्थानांतरित कर दिया गया। इसी साल 3 जून की सुबह को बीजापुर जिला पुलिस की एक टीम ने कथित तौर पर रायपुर में एक महिला सामूहिक के आवास पर पोट्टम के निवास पर छापा मारा। हिरासत में लेते समय उनके साथ कथित तौर पर दुर्व्यवहार किया गया। वर्तमान समय में वह जगदलपुर महिला जेल में है। सुनीता लगातार आदिवासी हितों और महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा का विरोध कर रही हैं।
2. अरूंधति रॉयः पेन पिंटर पुरस्कार
भारतीय लेखिका और राजनीतिक, सामाजिक कार्यकर्ता अरुधंति को उनके साहसी और अडिग लेखन के लिए 2024 के पेन पिंटर साहित्यिक पुरस्कार के लिए चुना गया। उन्हें यह पुरस्कार इसी साल अक्टूबर महीने में, लंदन, इंग्लैंड में आयोजित एक समारोह में दिया गया। साल 2009 में इंग्लिश पेन पिंटर द्वारा स्थापित यह पुरस्कार नोबेल पुरस्कार विजेता नाटककार हेरोल्ड पिंटर की स्मृति में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए दिया जाता है। अरुंधति रॉय की लेखनी केवल साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि उन्होंने कई सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर भी मुखर है। वे लगातार भारत में मानवाधिकार हनन पर बोलती, लिखती हैं। उनकी किताबें और लेख विश्वभर में चर्चा का विषय बने हैं, और वे अक्सर भारत सरकार की नीतियों की आलोचना करती रही हैं और इसी लिए उन्हें पेन पिंटर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। अरुंधति रॉय भारत की पहली महिला हैं जिन्हें पेन पिंटर प्राइज़ मिला।
3. डॉ. रितु सिंहः एक दलित शिक्षक का आंदोलन
डॉ. रितु सिंह एक दलित शिक्षक हैं जो पंजाब के एक दलित परिवार से आती हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के साइकोलॉजी डिपार्टमेंट से पीएचडी पूरी करने के बाद वह दौलत राम कॉलेज में एससी कैटेगरी में एडहॉक असिस्टेंट प्रोफेसर के तौर पर पढ़ाती थीं। कोविड-19 महामारी के दौरान पिछले 7 वर्षों से दौलत राम कालेज की प्राध्यापिका रही ऋतु सिंह को अचानक बताया जाता है कि अब कालेज को उनकी सेवाएं नहीं चाहिए। इस कार्यवाही के बाद रितु सिंह ने कहा कि उनके साथ कॉलेज में जातिगत भेदभाव किया जाता था। उन्होंने कॉलेज प्रिंसिपल को ज़िम्मेदार ठहराते उन पर जातिवादी आरोप लगाया। उन्होंने कोर्ट में गुहार लगाई लेकिन कोई कार्यवाही नहीं की गई। कई आंदोलन और विरोध प्रदर्शन करने पर कोरोना का बहाना बता कर पुलिस के द्वारा उन्हें प्रदर्शन करने से रोका गया।
9 जनवरी 2024 दिल्ली यूनिवर्सिटी के आर्ट फ़ैकल्टी के सामने धरने पर बैठीं और लड़ाई के मैदान में कदम बढ़ाया। प्रोफ़ेसर पद पर वापसी और प्रिंसिपल के बर्खास्तगी को लेकर माँग की। यह प्रदर्शन 152 दिन तक चला। आंदोलन के दौरान पुलिस के द्वारा आंदोलन स्थल के समान को फेंकना,आंदोलनकारियों के साथ धक्का मुक्की करना, और उनको दल बल के साथ हिरासत में लेना आदि तरीक़ों से उनके आंदोलन को ध्वस्त करने का कई तरीक़ा अपनाया गया। कई अन्य संगठन और छात्र-छात्राओं का भी समर्थन उनको मिला। सड़क की लड़ाई को दिल्ली पुलिस द्वारा बल पूर्वक खत्म कर दिया गया लेकिन कोर्ट की लड़ाई जारी है। अब ये लड़ाई सिर्फ़ रितु की नहीं पूरे दलित, आदिवासी समुदायों कि बन गई है।
4. विनेश फोगाटः कुश्ती से लेकर राजनीति में सफलता
सड़क से लेकर कुश्ती के मैच तक विनेट फोगाट ने वो कर दिखाया जो भारतीय समाज में विरले ही होता है। विनेश वह भारतीय महिला खिलाड़ी है जिन्होंने खेलों में महिलाओं के प्रति लैंगिक भेदभावपूर्ण माहौल के बारे में न केवल बात की बल्कि आंदोलन भी किया। पूर्व कुश्ती महासंघ के प्रमुख बृज भूषण सिंह के ऊपर फोगाट समेत कई महिलाओं ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया। सड़क पर आंदोलन के साथ-साथ विनेश ने ओलंपिक में भी वह उपलब्धि हासिल की जो किसी भारतीय महिला ने नहीं हासिल की थी। साल 2024 के ओलंपिक में जगह बनाने और विश्व चंपियन को हराने के लिए फ़ीनिक्स की तरह उभरीं और वे भारत की पहली ओलम्पिक फ़ाइनिलिस्ट महिला बनीं।
पेरिस ओलंपिक में छह अगस्त को भारत के लिए कुश्ती में विनेश फोगाट ने लगातार तीन मैचों में जीत दर्ज की है। पेरिस ओलंपिक में छह अगस्त को भारत के लिए कुश्ती में विनेश फोगाट ने लगातार तीन मैचों में जीत दर्ज की है। पेरिस ओलंपिक में उन्होंने भारत के लिए कुश्ती में लगातार तीन मैचों में जीत दर्ज की है। हालांकि गोल्ड मेडल से एक कदम दूर 100 ग्राम वजन अधिक होने के कारण उनको आयोग्य घोषित कर दिया गया। करोड़ों भारतीयों का दिल टूटा लेकिन सबने विनेश की प्रशंसा और हौसलों की तारीफ की। ओलंपिक में ऐसा प्रदर्शन करने वाली विनेश पहली भारतीय महिला है। इस प्रदर्शन के बाद उनका सिल्वर मेडल पक्का हो गया था। बाद में उन्होंने खेल से सन्यास ले लिया और राजनीति में शामिल हो गई। खेल में तो विनेश फोगाट को हार मिली पर भारत देश में विनेश फोगाट ने अपने खेल और अपने यौन उत्पीड़न के लड़ाई से अलग जगह बना ली है।
5. अरुणा रॉयः द पर्सनल इज़ पोलिटिक
अरुणा रॉय एक प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता हैं, और नैशनल फ़ेडरेशन ऑफ इंडियन वीमेन की अध्यक्ष हैं। इस साल उनकी किताब ”द पर्सनल इज़ पोलिटिकल” अरुणा रॉय काफी सुर्खियों में रही। यह किताब उनके व्यक्तिगत अनुभवों और सामाजिक आंदोलनों से जुड़ी यात्रा को दर्शाती है, जिसमें उन्होंने भारतीय समाज में बदलाव लाने के लिए एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में संघर्ष किया। अरुणा रॉय ने इस पुस्तक में अपने व्यक्तिगत और राजनीतिक जीवन के अनुभवों को साझा किया है, और यह किताब विशेष रूप से महिलाओं और सामाजिक असमानताओं के खिलाफ उनके संघर्ष को उजागर करती है। वे इसे अपने निजी अनुभवों के माध्यम से यह समझाने की कोशिश करती हैं कि कैसे व्यक्तिगत समस्याएँ और संघर्ष, राजनीतिक और सामाजिक बदलाव के बड़े आंदोलन से जुड़ी होती हैं। इस किताब में उन्होंने जन सूचना अधिकार आंदोलन के महत्व और इसके लिए किए गए कार्यों पर भी विस्तार से चर्चा की है, जो उनके जीवन का एक अहम हिस्सा रहा है। पिछले चार दशकों में अरुणा रॉय जनता की अगुवाई वाली तमाम पहलों की अग्रणी मोर्चे पर नज़र आइ हैं। जिसकी वजह उन्हें कई पुरस्कार मिले जिसमें से एक एशिया का नोबेल कहा जाने वाला रैमन मैग्सेसे पुरस्कार है।
6. मणिपुर की जातीय हिंसा और महिला आंदोलन
मणिपुर में मई 2023 से शुरू हुए जातीय संघर्ष और उसके बाद के हिंसा ने मणिपुर की दिशा बदल दी है। हिंसा में महिलाओं की इज़्ज़त को अपना हथियार बनाया जा रहा है। बीते साल लिया है। पर अब वहाँ की कुछ महिलाएँ सड़क पर आंदोलन करने पर उतार आई हैं। बीते साल जुलाई माह की 19 तारीख को मणिपुर में औरतों के ख़िलाफ़ यौन हिंसा से जुड़ा एक वीडियो इंटरनेट पर वायरल होने के बाद जातीय हिंसा और युद्ध का वह रूप सामने आया है जिसमें हमेशा से स्त्रियों को निशाना बनाया जाता है। मणिपुर में दो समुदाय के बीच हिंसा, विरोध अभी भी जारी है और महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा की ख़बरे वहां से लगातार सामने आ रही है।
हिंसा के बाद, महिलाएं शरणार्थी शिविरों में अस्थायी आवास के लिए संघर्ष कर रही हैं। साथ ही, राज्य सरकार और स्थानीय प्रशासन से सुरक्षा और पुनर्वास की मांग करती हैं। मणिपुर की महिलाएं सामाजिक कार्यकर्ताओं के रूप में भी आगे बढ़ रही हैं, जो सर्वाइवरों की मदद करने, मानवाधिकार उल्लंघन की रिपोर्ट करने, और शांति बहाली के लिए काम कर रही हैं। एक ओर, महिलाएं अपने समुदाय की रक्षा के लिए संघर्ष कर रही हैं, तो दूसरी ओर, वे विरोध प्रदर्शन और जनआंदोलनों में भी सक्रिय भागीदार रही हैं। मणिपुर के संघर्ष में महिलाओं ने खुद को केवल सर्वाइवर नहीं माना, बल्कि संघर्ष के केंद्र में खड़ी होकर कई बार विरोध और प्रतिकार का नेतृत्व किया है। एक साल से अधिक समय से मणिपुर की महिलाएं हिंसा के विरोध प्रदर्शन कर ही है। शांति बहाली आंदोलन की अगुवाई कर रही हैं।
7. पायल कपाड़ियाः फ़िल्म ऑल वी इमेजिन एज लाइट ने जीता ग्रैंड प्रिक्स अवार्ड
पायल कपड़िया एक फिल्म निर्माता हैं। उनकी फ़ीचर फ़िल्म ने इस साल कान फिल्म फ़ेस्टिवल में ग्रैंड प्रिक्स अवार्ड जीता हैं।
पायल कपाड़िया ने अपनी फिक्शन फीचर डेब्यू फिल्म ऑल वी इमेजिन एज़ लाइट के लिए 77वें कान फिल्म फेस्टिवल में
ग्रैंड प्रिक्स जीता। इसने उन्हें सर्वश्रेष्ठ निर्देशक के लिए गोल्डन ग्लोब अवार्ड के लिए नामांकन भी दिलाया। ‘ग्रांड प्रिक्स पाल्मे डी’ अवॉर्ड फिल्म फेस्टिवल का दूसरा सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार है। पायल कपाड़िया की इस फ़िल्म का प्रीमियर 23 मई को 2024 कांस फिल्म फेस्टिवल में कॉम्पिटिशन सेक्शन में किया गया था। पायल कपाड़िया की इस फिल्म की स्टार कास्ट की बात करें तो ‘ऑल वी इमेजिन एज लाइट’ में कनी कुश्रुति, दिव्या प्रभा, छाया कदम और हृदयु हारून मुख्य भूमिका में हैं। इस फिल्म की कहानी मुंबई में रहने वाली तीन महिलाओं की है जो अपना सपना पूरा करने के लिए जद्दोजहद करते दिखाई देती हैं। मुंबई में रह रहे कई युवा और युवती की ज़िंदगी झकझोर देने वाली है जिसे इस फ़िल्म के माध्यम से बताया गया है। साल 2021 में, उन्होंने अपनी पहली फीचर फिल्म ‘ए नाइट ऑफ़ नोइंग नथिंग’ के लिए 74वें कान फिल्म महोत्सव में सर्वश्रेष्ठ वृत्तचित्र फिल्म के लिए गोल्डन आई पुरस्कार जीता था।