चंद्रमुखी बसु, भारत की पहली महिला स्नातक और महिलाओं की शिक्षा के क्षेत्र में प्रेरणा की प्रतीक हैं। उनका जीवन संघर्ष, मेहनत और शिक्षा के महत्व का उदाहरण है। भारतीय समाज में महिलाओं की शिक्षा को लेकर प्रचलित रूढ़ियों को तोड़ते हुए, चंद्रमुखी ने 19वीं सदी में ऐसी मिसाल कायम की, जिसने इतिहास में उनकी जगह को अमर बना दिया। चंद्रमुखी बसु का जन्म 1860 में बंगाल के एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ। देहरादून के मूल निवासी उनके पिता भुबन मोहन बोस ईसाई धर्म को मानने वाले थे। उनके पिता एक विद्वान व्यक्ति थे, जिन्होंने अपनी बेटी की शिक्षा को महत्व दिया। बचपन से ही चंद्रमुखी की बुद्धिमत्ता और पढ़ाई के प्रति लगन स्पष्ट थी।
उस समय, जब महिलाओं को औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार भी नहीं था, चंद्रमुखी ने शिक्षा के क्षेत्र में असाधारण प्रगति की। वह ब्रिटिश भारत के समय कादंबिनी गांगुली के साथ स्नातक की डिग्री हासिल करने वाली पहली महिला बनी। इनके पिता का नाम भुवन मोहन दास था। इनके पति का नाम पंडित ईश्वरानंद ममगाई था। 1880 में चंद्रमुखी ने फ्री चर्च नॉर्मल स्कूल में शिक्षा प्राप्त की, जहां से उन्होंने अपनी प्रथम प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण की। उन्हें बेथ्यून स्कूल में प्रवेश चाहिए था। लेकिन उस दौरान हिंदू लड़कियों के अलावा अन्यों के लिए उसमें प्रवेश स्वीकार नहीं था। आखिरकार उन्हें रेवरेंड अलेक्जेंडर डफ के फ्री चर्च इंस्टीट्यूशन (अब स्कॉटिश चर्च कॉलेज) में प्रथम कला (एफ.ए.) स्तर पर दाखिला लिया।
विश्वविद्यालय में पढ़ने की अनुमति
1876 में लैंगिक भेदभाव के कारण उन्हें कला संकाय की परिक्षा में बैठने के लिए विशेष अनुमति लेनी पड़ी। उस साल चंद्रमुखी बसु परीक्षा में हिस्सा लेने वाली एक मात्र लड़की थी तो उन्हें प्रथम स्थान हासिल हुआ। लेकिन, विश्वविद्यालय ने उनका परिणाम घोषित करने के लिए कई बैठक किये। कादम्बिनी गांगुली से पहले, चंद्रमुखी ने 1876 में ही प्रवेश परीक्षा पास कर ली थी। हालांकि विश्वविद्यालय ने उन्हें सफल उम्मीदवार के रूप में नामांकित करने से इनकार कर दिया था। साल 1878 में बदली नीतियों के बाद, उन्हें आगे की पढ़ाई करने की अनुमित दी गई। एफ.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वह बेथ्यून कॉलेज चली गई। स्नातक की पढ़ाई करने के बाद उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से एमए की और 1884 में ब्रिटिश साम्राज्य में एम.ए. करने वाली पहली और एकमात्र महिला बनी। एम.ए. की परिक्षा पास करने पर ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने उनका सम्मान किया और उन्हें ‘कैसेल्स इलेस्ट्रेटेड शेक्सपियर’ की प्रति भेंटी की थी।
शिक्षा को बनाया पेशा
उस दौर में पढ़ने के बाद चंद्रमुखी ने शिक्षा को ही अपना पेशा बना लिया। उन्होंने एम.ए. करने के बाद शिक्षा को अपना पेशा बनाया और 1886 में बेथ्यून कॉलेज में ही अध्यापिका के रूप में करियर की शुरुआत की। कॉलेज 1888 में स्कूल से अलग हो गया था और कॉलेज में काम करते हुए वह कुछ साल बाद ही यहां की प्रिसिंपल बन गई। वह दक्षिण एशिया में बतौर स्नातक शैक्षणिक प्रतिष्ठान की पहली महिला प्रमुख बनी। चंद्रमुखी बसु भारत की पहली महिला शिक्षाविदों में से एक है। स्वास्थ्य ठीक न रहने के कारण चंद्रमुखी ने 1891 में सेवानिवृत्त ले ली और बाकी का जीवन देहरादून में बिताया। साल 1944 में चंद्रमुखी बसु का निधन हो गया।
चंद्रमुखी बसु ने अपने साथ अपनी बहनों की पढ़ाई में भी योगदान दिया। उन्होंने जो परिस्थियां अपनी शिक्षा के दौरान देखी उन्हें अपनी बहनों की शिक्षा के रास्ते में नहीं आने दी और उनके लिए रास्ता आसान करने का प्रयास किया। चंद्रमुखी बसु का जीवन संघर्षों से भरा था। भारतीय समाज में महिलाओं की शिक्षा के खिलाफ गहरी जड़ें जमाए सामाजिक और धार्मिक रूढ़ियों ने उनके प्रयासों को बाधित करने की कोशिश की। लेकिन उनकी दृढ़ता और संकल्प ने हर चुनौती को पार किया। उन्होंने दिखाया कि महिलाएं शिक्षा और नेतृत्व के क्षेत्र में पुरुषों के बराबर हो सकती हैं।
चंद्रमुखी ने जिस राह की शुरुआत की, वह आगे चलकर भारत में महिला शिक्षा के लिए प्रेरणा बनी। उनकी उपलब्धियों ने अनगिनत महिलाओं को उच्च शिक्षा प्राप्त करने और समाज में नेतृत्वकारी भूमिका निभाने के लिए प्रोत्साहित किया। उनका जीवन यह सिखाता है कि समाज में परिवर्तन लाने के लिए शिक्षा सबसे प्रभावशाली साधन है। उस दौर में महिलाओं के लिए स्कूली शिक्षा हासिल करना भी अपने-आप में बहुत बड़ी बात थी और चंद्रमुखी बसु ने समाज में महिलाओं के लिए उदाहरण पेश किया और महिलाओं को शिक्षा हासिल करने के लिए प्रेरित किया।
Source: