इंटरसेक्शनलजेंडर संगीत और समाज: बदलाव की धुन या भेदभाव की गूंज?

संगीत और समाज: बदलाव की धुन या भेदभाव की गूंज?

फ़िल्म फटा पोस्टर निकला हीरो का गाना ‘गंदी बात’ गाने का पूरा सार यही था कि वह लड़की के आने का इंतज़ार कर रहा था। उसने अच्छा बनने की कोशिश की, लेकिन वह दिलचस्पी नहीं ले रही थी (राजा बेटा बनके मैंने जब शराफत दिखाई, तूने बोला 'हट्ट मवाली' भाव नहीं दिया रे)।

संगीत ने पीढ़ियों से दुनिया भर की संस्कृतियों और समाज को आकार दिया है। संगीत की कोई भाषा नहीं होती। इसमें किसी के मूड को बदलने, धारणाओं को बदलने और बदलाव को प्रेरित करने की शक्ति है जबकि हर किसी के संगीत के साथ व्यक्तिगत संबंध होता है। गीतों के साथ हमारे रोज़मर्रा के अनुभव के मूल में, इसका उपयोग आराम करने, खुद को व्यक्त करने, अपनी भावनाओं को समझने और समझाने, अपनी आवाज़ या विचार दूसरों तक पहुंचाने के लिए करते हैं। गीत एक ऐसा माध्यम है जिससे बहुत ही सरलता से कोई बात या विचार कही जा सकती है। आज दुनिया में कई प्रकार के गाने मिलते हैं जैसे मोहब्बत के गीत, क्रांतिकारी गीत, धार्मिक गीत, लोकगीत, शिक्षा के गीत, युद्ध के गीत आदि।

पर सोचने वाली बात ये है कि क्या अभी के दौर में जो गाने सुनने को मिलता है, उसमें समाज में बराबरी या समाज सुधार को लेकर गीत बनाए या गायें जाते हैं? एक समय था जब फ़िल्मों के साथ-साथ कई गाने भी प्रगतिशील बनाए जाते थे। गानों में भेदभाव को व्यक्त करने, एक तबके के साथ सामाजिक असमानता, प्रकृति से लेकर, महिलाओं की आज़ादी तक तमाम विषयों पर गानें बनते थे। पर सोचने वाली बात है कि क्या अब वर्तमान में ऐसे गाने सुने जा सकते हैं? अगर हम ध्यान दें तो पिछले कुछ दशकों के गीतों को सुनकर यह पता लगता है कि हमारे बीच कुछ ही ऐसे गाने हैं जिन्हें ‘प्रगतिशील’ कहा जा सकता है। अगर सिनेमा के गानों के बात करें, तो कुछ एक गाने ऐसे हैं जो सीधे जेंडर, जाति या महिलाओं के शरीर को लक्ष्य करते हैं।

गाना दिलबरों की कुछ लाइनें हैं- ‘फसलें जो काटी जाएं उगती नहीं, बेटियां जो ब्याही जाएं मुड़ती नहीं है।’ ऐसे गीत महिलाओं के लिए मुश्किल खड़े करते हैं, खासकर तब जब उसके साथ मैरिटल रेप, घरेलू हिंसा हो और उसे उम्मीद ही न हो कि उसका अपना घर है जहां वो वापस जा सकती है।

गानों में लीड करते पुरुष कलाकार

भारतीय समाज में जाति और जेंडर के मुद्दे गहरे रूप से जुड़े हुए हैं, और गीतों ने इन मुद्दों को निरंतर उजागर किया है। कभी नकारात्मक तरीक़े से, तो कभी सकारात्मक दृष्टिकोण से। बात करें जेंडर की, तो सिनेमा हो या उसके गानों, महिलाओं को अक्सर ऑब्जेक्टिफ़ाई किया जाता रहा है। ट्रांस समुदाय को भी एक निम्न और अपमानजनक रूप में दिखाया जाता रहा है। सिनेमा या गानों में पुरुषों को कभी असहाय या ऑब्जेक्टिफ़ाई नहीं किया जाता। उन्हें अमूमन शक्तिशाली, बलवान, अल्फा या सिग्मा पुरुषों के छवि के रूप में दिखाया जाता है। कुछ गाने उदाहरण के रूप में देख सकते हैं जहां गीत की रचना उस गीत को फ़िल्माया जाना महिला और ट्रांस जेंडर पर आधारित नहीं होता है। ये अधिकतर पुरुषों को केंद्र कर के फिल्माए जाते हैं जो ज़्यादातर गाने को लीड करता है।

यौन हिंसा और रूढ़िवाद को बढ़ावा देते गाने

तस्वीर साभार: Dainik Bhaskar

इसी के साथ कुछ गानों के माध्यम से यौन हिंसा और रूढ़िवाद को बढ़ावा भी मिलता है। कुछ गाने तो नामों को लेकर भी बनाया गया है जैसे-मुन्नी बदनाम हुई, शिला की जवानी, पिंकी है पैसे वालों की में इन नामों के महिलाओं को कई तरह की यौन हिंसा का सामना करना पड़ा है। चाहे वो स्कूल हो या कॉलेज या ऑफ़िस या राह चलती महिलाएं। सिनेमा में और भी ऐसे कई गानें है जो लैंगिक भेदभाव से भरे हुए हैं। फ़िल्म नसीब अपना अपना का एक गीत है, जिसके बोल हैं ‘भला है बुरा है जैसा भी है मेरा पति मेरा देवता है।‘ यहाँ पुरुष को ‘देवता’ के रूप में मानने के लिए महिलाओं को मजबूर किया जा रहा है। फिर चाहे वो कैसा भी हो और कुछ भी करे। क्या ऐसे गाने पितृसत्ता को बढ़ावा नहीं देती है?

फ़िल्म दंगल के गीत ‘धाकड़’ दुनिया के सामने लड़कियों का लोहा मनवाने के लिए एक एंथम से कम नहीं है। फ़िल्म पिंक का एक गाना ‘पिंक एंथम’ में महिलाओं को अपने अनोखे तरीक़े ज़िंदगी का जश्न मानते हुए दिखाया गया है। ऐसे कई गाने है जो रूढ़िवाद और पितृसत्ता को टक्कर देता है।

फ़िल्म राज़ी का एक गाना दिलबरों की कुछ लाइनें हैं- ‘फसलें जो काटी जाएं उगती नहीं, बेटियां जो ब्याही जाएं मुड़ती नहीं है।’ ऐसे गीत महिलाओं के लिए मुश्किल खड़े करते हैं, खासकर तब जब उसके साथ मैरिटल रेप, घरेलू हिंसा हो और उसे उम्मीद ही न हो कि उसका अपना घर है जहां वो वापस जा सकती है। ऐसे गीत इन समस्याओं को बढ़ावा देता है। कुछ गानें रूढ़िवाद को भी आगे बढ़ने में लगे हुए हैं। उदाहरण के लिए, एक भोजपुरी गाना है ‘लहंगा उठा दे रीमोर्ट से।’ ऐसे गाने समाज में यौन हिंसा को बढ़ावा देने का काम करता है। ऐसे गाने किसी महिला के साथ हुए यौन हिंसा और रेप से कम नहीं।

ऐसे गाने जैसे, ‘दाबे से जो दबे ना, ऐसी ठाकुर जात है,’ ‘बहु बन जा राजपूताने की,’ ‘भारत का बच्चा-बच्चा जय-जय श्रीराम बोलेगा,’ और ‘राम नाम के नारों से बाबर की बाबरी टूट गई’, समाज में भेदभाव को बढ़ावा देते हैं। ये गाने न केवल जातिगत और धार्मिक भेदभाव को मजबूत करते हैं, बल्कि समाज में हिंसात्मक माहौल भी पैदा करते हैं।

महिलाओं के न का मतलब नहीं समझना

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

फ़िल्म फटा पोस्टर निकला हीरो का गाना ‘गंदी बात’ गाने का पूरा सार यही था कि वह लड़की के आने का इंतज़ार कर रहा था। उसने अच्छा बनने की कोशिश की, लेकिन वह दिलचस्पी नहीं ले रही थी (राजा बेटा बनके मैंने जब शराफत दिखाई, तूने बोला ‘हट्ट मवाली’ भाव नहीं दिया रे)। यह उसे मानना नहीं चाहता था, इसलिए उसने सभ्य व्यवहार करना बंद कर दिया और ‘गंदी बात’ के साथ आगे की कार्रवाई करने की सोची। इस गाने में कहीं न कहीं एक धमकी भी नज़र आती है। इसी तरह ‘चिट्टिया कलाइयाँ’ हालांकि सुनने में तो ठीक लगेगा पर उसके कुछ पंक्ति भेदभाव पैदा करता है। ‘मुझे शॉपिंग पर ले चलो’ ‘मुझे मूवी देखने के लिए बाहर ले चलो’ और यह कि लड़की को इस बात पर बहुत गर्व है कि वह गोरी है। क्या एक महिला की कीमत केवल उसके गोरेपन पर आधारित है?

जातिगत और धार्मिक भेदभाव और ध्रुवीकरण को बढ़ावा देते गाने

ट्रांसजेंडर समुदाय को अक्सर गीतों में गलत और अपमानजनक तरीके से दिखाया जाता है। एक उदाहरण है गाना ‘तय्यब अली प्यार का दुश्मन हाए हाए’। इसमें ट्रांसजेंडर लोगों को ‘हाए हाए’ कहते हुए सड़कों पर ताली बजाकर नाचते हुए दिखाया गया है। यह उनकी छवि को केवल उत्सवों या सड़कों, ट्रेनों और बसों में नाचकर पैसे मांगने वाले तक सीमित कर देता है। ठीक इसी तरह कुछ ऐसे गाने भी है जो जाति पर आधारित होती है या जाति विशेष गाने सुनने को मिलता है। ऐसे गाने जैसे, ‘दाबे से जो दबे ना, ऐसी ठाकुर जात है,’ ‘बहु बन जा राजपूताने की,’ ‘भारत का बच्चा-बच्चा जय-जय श्रीराम बोलेगा,’ और ‘राम नाम के नारों से बाबर की बाबरी टूट गई’, समाज में भेदभाव को बढ़ावा देते हैं। ये गाने न केवल जातिगत और धार्मिक भेदभाव को मजबूत करते हैं, बल्कि समाज में हिंसात्मक माहौल भी पैदा करते हैं। इस तरह के गाने अक्सर नफरत फैलाते हैं और कई बार दंगों और झगड़ों का कारण बन जाते हैं। समाज में शांति और समानता बनाए रखने के लिए ऐसे गानों पर रोक लगाना जरूरी है।

एक उदाहरण है गाना ‘तय्यब अली प्यार का दुश्मन हाए हाए’। इसमें ट्रांसजेंडर लोगों को ‘हाए हाए’ कहते हुए सड़कों पर ताली बजाकर नाचते हुए दिखाया गया है।

गिने-चुने प्रगतिशील गाने

तस्वीर साभार: Times of India

वर्तमान स्थिति में बेरोज़गारी, ग़रीबी, शिक्षा, किसानों की समस्या, महिलाओं के मुद्दों पर बहुत ही कम गाने सुनने को मिलता है। कुछ प्रगतिशील लेखक, सिंगर या संगठन के तरफ़ से गाने बनाए जाते हैं। पर उनका भी कई बार विरोध किया जाता है। इसी के साथ कुछ ऐसे गाने और रचनाकार हैं जो जाति विरोधी और यौन हिंसा जैसे समाज की समस्याओं को टक्कर देती है। फ़िल्म हाईवे के गीत ‘पटाका गुड्डी’ महिलाओं के आज़ादी को समर्पित है। फ़िल्म दंगल के गीत ‘धाकड़’ दुनिया के सामने लड़कियों का लोहा मनवाने के लिए एक एंथम से कम नहीं है। फ़िल्म पिंक का एक गाना ‘पिंक एंथम’ में महिलाओं को अपने अनोखे तरीक़े ज़िंदगी का जश्न मानते हुए दिखाया गया है। ऐसे कई गाने है जो रूढ़िवाद और पितृसत्ता को टक्कर देता है।

जाति और जेंडर के मुद्दों पर गीतों ने समाज के विचारों को प्रभावित किया है, और कई बार उन्होंने इन भेदभावपूर्ण दृष्टिकोणों को चुनौती दी है। गानें, फ़िल्म, रेडियो ये सभी सिर्फ़ मनोरंजन के भर साधन नहीं है बल्कि समाज में विचारों के प्रचार-प्रसार का भी एक महत्वपूर्ण कारक है, जो लोगों की मानसिकता पर गहरा प्रभाव डालता है। इसी कारण ये ज़रूरी है कि गीतकार और रचनाकार या लेखक, फ़िल्म बनाने वाले जो इस कला से जुड़े हैं, वे इस बात को समझे और ऐसी फ़िल्म या गाने बनाए जाए जो समाज में जागरूकता लाए, न कि किसी भी तरह के अपराध या हिंसा को बढ़ावा देने की मानसिकता को बढ़ावा दे।

Leave a Reply

संबंधित लेख

Skip to content