‘महिलाएं समाज की दोहरा सर्वहारा हैं’- ये कथन इतना बड़ा सत्य है कि जो रोज-रोज और ज्यादा प्रासंगिक होता जा रहा है। समाज या देश दुनिया की कोई भी समस्या या स्थिति हो, महिलाएं ही उन्हें सबसे ज्यादा सामना करती हैं। प्रयागराज के महाकुंभ की जगमग चारों तरफ छाई हुई है। देश और दुनिया भर से लोग इस मेले में शिरकत करते हैं। मेला क्षेत्र की साफ-सफाई के लिए ढेर सारे मजदूर भी आते हैं, जिनके लिए माघ मेला रोजगार की तरह भी आता है। साथ ही आती हैं महिला सफाई कर्मी मजदूर भी जो मेला क्षेत्र में साफ-सफाई का काम करती हैं। महाकुंभ मेले में जगह-जगह से आईं सफाईकर्मी महिलाओं की स्थिति पर फेमिनिज़म इन इंडिया ने बातचीत की, तो पता चला कि जहां एक ओर महाकुंभ पर सरकार करोड़ों निवेश कर रही है, वहीं दूसरी तरफ इन महिला सफाईकर्मियों को अनेक असुविधाओं का सामना करना पड़ रहा है। सिंगल पन्नी वाले टेंट के सामने ये महिलाएं मिट्टी का चूल्हा बनाकर खाना बनाती हैं।
चूल्हे में जलाने वाली लकड़ी के लिए इन्हें काफी जूझना पड़ता है। महाकुंभ मेले के क्षेत्र सेक्टर-6 के सामने बख्शी बांध के किनारे अस्थायी बनी मजदूर बस्ती बनी हुई है। यह बस्ती नाले के पास बनी है, जहां कोई शौचालय नहीं बना है। पीने के पानी के साथ नल और बाथरूम की व्यवस्था नहीं है। शौचालय और नल तो मेला क्षेत्र में पास गुजरती सड़क के पास बने हैं। लेकिन नहाने के लिए कहीं आस-पास कोई व्यवस्था नहीं है। इन महिलाओं को नहाने के लिए काफी दूर सार्वजनिक बाथरूम में जाना होता है जहां दस-बीस रुपये देकर ये उनका इस्तेमाल करती हैं। इनके लिए बनाए गए टेंट भी रातभर ओस से भींगकर चूते रहते हैं। प्रयागराज के महाकुंभ मेले में जहां इतनी रोशनी है कि रात में लगता है कि चटक धूप में आकर खड़े हो गए हैं, वहीं ये सफाईकर्मी महिलाएं अंधेरे में अपना काम निपटाती हैं। कोई देश नागरिकों से बनता है। लेकिन देश नागरिकों के साथ अगर भेदभाव करे तो ये बहुत दुखद होता है।
मेले में आकर तो अच्छा लग रहा है। बस रात को मुश्किल होती है। बिजली की रोशनी न होने के कारण अंधेरे में कोई भी काम करना मुश्किल होता है। शौचालय तो फिर भी सड़क पर बना है जोकि बहुत दूर नहीं है। लेकिन बिजली न होने के कारण यहां महिलाओं को फोन चार्ज करने के लिए भी बहुत दिक्कत होती है।
मुनाफे के लिए ठेकेदारों की अनदेखी
![](https://hindi.feminisminindia.com/wp-content/uploads/2025/02/WhatsApp-Image-2025-02-03-at-17.15.47_3b95bcbf-1024x768.jpg)
फेमिनिज़म इन इंडिया के सफाईकर्मी महिलाओं से बातचीत में ये सामने आया कि ये निजी कम्पनियों के ठेकेदारों की लापरवाही होती है। वे अपने मुनाफे के लिए मजदूरों की अनदेखी करते हैं। बातचीत में ये पता चला कि रोशनी और बाथरूम के लिए उन्हें किस तरह की दिक्कतें झेलनी पड़ रही हैं। जिस समय हम सफाईकर्मी महिलाओं की टेंट बस्ती में पहुंचे, महिला सफाईकर्मी हीना मिट्टी का चूल्हा बना रहीं थीं। ये पूछे जाने पर कि मेले में आकर कैसा लग रहा है, वो कहती हैं, “मेले में आकर तो अच्छा लग रहा है। बस रात को मुश्किल होती है। बिजली की रोशनी न होने के कारण अंधेरे में कोई भी काम करना मुश्किल होता है। शौचालय तो फिर भी सड़क पर बना है जोकि बहुत दूर नहीं है। लेकिन बिजली न होने के कारण यहां महिलाओं को फोन चार्ज करने के लिए भी बहुत दिक्कत होती है। फोन चार्ज करने हम दुकानदारों के पास जाते हैं। यहां हमसे दस या बीस रुपए लिए जाते हैं।” हिना ने बताया कि देर रात को ओस पड़ने से उनका सारा सामान भींग जाता है क्योंकि उनका टेंट सिंगल पन्नी का बना हुआ टेंट है।
महाकुंभ मेले में सफाईकर्मियों के बच्चों की हालत
![](https://hindi.feminisminindia.com/wp-content/uploads/2025/02/WhatsApp-Image-2025-01-29-at-11.58.20_e3a8250a-1024x768.jpg)
प्रयाग महाकुंभ मेला क्षेत्र में सिंगल पन्नी से बने टेंटो में इन महिलाओं की चहलकदमी से जीवन गूंजने जैसा लगता है। लेकिन साथ ही निजी कम्पनियों की बेरुखी भी दिखती है। मेहनत करने वाले इन लोगों के दम पर ही ये सारे पर्व उत्सव, आयोजन चलते हैं। लेकिन, इन्हीं मेहनतकश लोगों का जीवन इतना कठिन बना दिया जाता है। ये निजी कम्पनियों की लूट है। ये सफाईकर्मी महिलाएं अपने साथ अपने बच्चों को भी लेकर आती हैं जो दिनभर टेंटो के आस-पास घूमते-खेलते रहते हैं। फेमिनिज़म इन इंडिया ने कुछ बच्चों से बातचीत की। उनसे उनके स्कूल जाने की बात पूछी तो पता चला कि ये जहां से आए हैं, वहां के सरकारी स्कूल में पढ़ने जाते थे। बातचीत में हमने देखा कि उन्हें काफी अक्षर ज्ञान भी था। यहां आकर वे दिनभर घूमते हैं, खेलते हैं। कुछ बच्चे मेला क्षेत्र में छोटे-छोटे खिलौने भी बेचते हैं।
सबसे ज्यादा तकलीफ़ हमें नहाने की हो रही है। यहां कोई बाथरूम नहीं बना है। नहाने के लिए हमें काफी दूर पब्लिक बाथरूम में जाना पड़ता है और बीस रुपये देने पड़ते हैं।
सुविधा के अभाव में जी रही महिलाएं
महाकुंभ की चकाचौंध में रोशनी के लिए तरसती ये जिंदगियां भी इंसान ही हैं, जिन्हें सिस्टम काम करने वाली मशीन समझती है। यहां आपस में हंसी-ठिठोली करती ये महिलाएं जैसे अभावों को हास्य में बदलकर जीवन के संघर्ष को सहज कर रही हैं। फेमिनिज़म इन इंडिया ने पाया कि इन सफाईकर्मी महिलाओं के लिए अलग से कोई शौचालय नहीं बनाया गया है। ये मेला क्षेत्र में बने सार्वजनिक शौचालय का ही उपयोग करती हैं।
आगरा से आई हुई सफाईकर्मी राजकुमारी कहती हैं, “सबसे ज्यादा तकलीफ़ हमें नहाने की हो रही है। यहां कोई बाथरूम नहीं बना है। नहाने के लिए हमें काफी दूर पब्लिक बाथरूम में जाना पड़ता है और बीस रुपये देने पड़ते हैं।” इसी तरह सफाईकर्मी महिला घूरा बताती हैं, “मुझे लगा कि आप हमारी समस्याओं को दूर कर सकती हैं।” घूरा बांस बरेली की रहने वाली हैं। जब उन्हें पता चला कि हम स्टोरी करने आए हैं तो उन्होंने विनती कि हम उनकी बात सरकार तक पहुंचाए। वह कहती हैं, “सिंगल पन्नी के टेंट में परेशानी होती है। मेरे छोटे-छोटे तीन बच्चे हैं। रात को जब टेंट से ओस चुने लगता है, तो वे किसी तरह बच्चों को ठंड से बचाती हैं।”
![](https://hindi.feminisminindia.com/wp-content/uploads/2025/02/WhatsApp-Image-2025-01-29-at-11.58.17_4582584b-1024x768.jpg)
कासगंज की रहने वाली सुनीता कहती हैं, “सफाईकर्मी बस्ती में बिजली न होने के कारण सबसे ज्यादा असुविधा हो रही है। रात का खाना दिन ढलने से पहले किसी तरह जल्दी-जल्दी बनाना पड़ता है। उसके बाद अगर अंधेरा हो जाता है जो खाना बनाना मुश्किल हो जाता है।” हमने सफाई नायक अशोक से बिजली कनेक्शन नहीं होने पर बात की तो वह कहते हैं, “बिजली कनेक्शन के लिए काफी जद्दोजहद की लेकिन बिजली कनेक्शन सफाईकर्मी की बस्तियों के लिए नहीं मिला। सफाई नायक अशोक आगे कहते हैं, “मैंने बिजली विभाग अफसर जेई तक से बात की। जेई का कहना था कि सफाईकर्मी बस्ती के लिए कोई बिजली की सुविधा नहीं है।”
सफाईकर्मी बस्ती में बिजली न होने के कारण सबसे ज्यादा असुविधा हो रही है। रात का खाना दिन ढलने से पहले किसी तरह जल्दी-जल्दी बनाना पड़ता है। उसके बाद अगर अंधेरा हो जाता है जो खाना बनाना मुश्किल हो जाता है।
हाशिये के समुदायों का क्या कुम्भ में हो रहा है लाभ
सफाईकर्मी महिलाओं की बातचीत से एक बात साफ थी कि वे अपने साथ हो रही अनदेखी को न सिर्फ महसूस कर रही थीं बल्कि उसे दर्ज कराने के लिए भी आगे आने को तैयार हैं। आज हर वर्ग की महिलाएं अपने अधिकारों को काफी हद तक समझने लगीं हैं और उसके लिए आवाज भी उठा रही हैं। ये महिला सफाईकर्मी बहुत दूर-दूर से और अलग-अलग क्षेत्रों से आई महिलाएं हैं। लेकिन इन सबके बीच एक बहनापे के भाव को साफ देखा जा सकता है। सभी भूमिहीन महिलाएं हैं। ये सारी महिलाएं मजदूरी करती हैं। इनके लिए लक्षित सभी सरकारी योजनाओं का इन्हें लाभ नहीं मिल पाता।
![](https://hindi.feminisminindia.com/wp-content/uploads/2025/02/WhatsApp-Image-2025-01-29-at-11.58.14_aea4f392-1024x768.jpg)
कितनी योजनाएं इन तक पहुंच नहीं पातीं। लेकिन, ये अपनी लड़ाई लड़ती जिंदगी से जद्दोजहद करती रहती हैं। नाममात्र की सुविधाओं में ये जीवन को खींचते हुए चल रही हैं। महाकुंभ में इतनी तैयारी और इतने खर्च के बावजूद, हाशिये पर रह रहा समुदाय वंचित ही है। महाकुंभ की चमक-धमक के बीच सफाईकर्मी महिलाओं की ज़िंदगी भी सम्मान और गरिमा की हकदार है। उनका संघर्ष हमें याद दिलाता है कि समाज में न्याय और समानता पाने के लिए अभी लंबा रास्ता तय करना बाकी है। सरकार और समाज दोनों की यह ज़िम्मेदारी है कि इन मेहनती महिलाओं को एक सम्मानजनक जीवन देने के उपाय करें। मुश्किल हालात में भी ये महिलाएं अपनी हिम्मत और धैर्य से आगे बढ़ती हैं। इनसे हमें जीवन जीने की जिद और जज्बे का खास सबक मिलता है।