इतिहास सहोद्राबाई देवी राय: स्वतंत्रता सेनानी से सफल राजनेत्री तक का सफर| #IndianWomenInhistory

सहोद्राबाई देवी राय: स्वतंत्रता सेनानी से सफल राजनेत्री तक का सफर| #IndianWomenInhistory

नेहरू की प्रेरणा से साल 1957 में उन्होंने सागर लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा और 1,41,400 वोटों से जीतकर पहली महिला सांसद बनीं। उन्होंने कुल 5 चुनाव लड़े, जिनमें से 4 में उन्होंने जीत हासिल की। एक चुनाव उन्होंने दमोह लोकसभा सीट से भी लड़ा और जीतकर दमोह की पहली महिला सांसद बनीं।

जब भी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की बात होती है, तो झांसी की रानी लक्ष्मीबाई जैसी वीर महिलाओं का नाम सबसे पहले लिया जाता है। लेकिन भारत के कई हिस्सों में ऐसी बहादुर महिलाओं का जन्म हुआ, जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मध्य प्रदेश की ऐसी ही एक वीर महिला थीं सहोद्राबाई देवी राय। न सिर्फ वह एक स्वतंत्रता सेनानी थीं, बल्कि आगे चलकर उन्होंने राजनीति में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। आज जब समाज में महिलाओं को अक्सर पुरुषों के मुकाबले कमतर समझा जाता है, तब हमें ऐसी महिलाओं की कहानियों को याद करना जरूरी हो जाता है, जिन्होंने सौ साल पहले ही अपनी ताकत और साहस का परिचय दिया था।

प्रारंभिक जीवन और बाल विवाह

सहोद्राबाई देवी राय का जन्म अप्रैल 1919 में मध्य प्रदेश के दमोह जिले के एक छोटे से गांव बोतराई में हुआ था। उनका असली नाम सुखरानी था। उनके पिता वीरेन्द्र सिंह खंगार एक साधारण किसान थे, जो अंग्रेजों के अत्याचारों से पीड़ित थे और चाहते थे कि भारतवासियों के हाथ में सत्ता आए। बचपन से ही सहोद्राबाईको कबड्डी, गुल्ली-डंडा, लंगड़ी दौड़, तलवारबाजी जैसे खेलों का शौक था। उन्होंने अपने गांव की लड़कियों को इकट्ठा कर ‘सहोद्रा सेना’ बनाई, जो स्वतंत्रता संग्राम के दौरान प्रभात फेरियों में सबसे आगे रहती थी। 15 वर्ष की उम्र में उनका विवाह मुरलीधर नामक युवक से कर दिया गया। लेकिन विवाह के कुछ वर्षों बाद ही उनके पति का निधन हो गया। लेकिन, इस घटना ने उन्हें मानसिक और भावनात्मक रूप से मजबूत बनाया।

बचपन से ही सहोद्राबाईको कबड्डी, गुल्ली-डंडा, लंगड़ी दौड़, तलवारबाजी जैसे खेलों का शौक था। उन्होंने अपने गांव की लड़कियों को इकट्ठा कर ‘सहोद्रा सेना’ बनाई, जो स्वतंत्रता संग्राम के दौरान प्रभात फेरियों में सबसे आगे रहती थी।

मजदूरों और महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई

तस्वीर साभार: Dainik Bhaskar

पति की मृत्यु के बाद ससुराल वालों ने उन्हें अपने घर से निकाल दिया, जिसके बाद वे अपनी बड़ी बहन के पास कर्रापुर (सागर) आकर रहने लगीं। कर्रापुर में अधिकांश महिलाएं बीड़ी बनाने का काम करती थीं, लेकिन उन्हें समय पर मजदूरी नहीं मिलती थी। जब सहोद्रा ने यह अन्याय देखा, तो उन्होंने महिलाओं को इकट्ठा कर बीड़ी कंपनी के दफ्तर में प्रदर्शन किया, जिसके बाद कंपनी को मजदूरी तुरंत देनी पड़ी। इस घटना के बाद वे एक मजबूत नेता के रूप में उभरीं। इसी दौरान उनकी मुलाकात डॉ. लक्ष्मीनारायण सिलाकारी से हुई, जो मजदूरों के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे थे। उनके प्रभाव से सहोद्राबाई में राजनीतिक चेतना विकसित हुई और उन्होंने महिलाओं और गरीबों के हक की लड़ाई को अपना लक्ष्य बना लिया।

स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी भूमिका

साल 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में सहोद्राबाई ने सक्रिय भाग लिया। उन्होंने कई गतिविधियों और विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लिया। इस दौरान वे 1600 सत्याग्रहियों के साथ गिरफ्तार हुईं और छह महीने तक जेल में रहीं। भारत को 1947 में आज़ादी तो मिल गई, लेकिन गोवा अभी भी पुर्तगालियों के कब्जे में था। साल 1955 में गोवा को आज़ाद कराने के लिए जब आंदोलन शुरू हुआ, तो सहोद्राबाईने भी इसमें भाग लेने का फैसला किया। जब वे गोवा पहुंचीं, तो तिरंगा फहराते समय पुर्तगाली सैनिकों ने उन पर गोलियां चला दीं। उन्हें तीन गोलियां लगीं लेकिन उस वक्त भी उन्होंने तिरंगे को गिरने नहीं दिया। उनके घायल होने की खबर जब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तक पहुंची, तो वे उनसे मिलने अस्पताल पहुंचे और उनके साहस से प्रभावित होकर उन्हें राजनीति में आने की सलाह दी।

कर्रापुर में अधिकांश महिलाएं बीड़ी बनाने का काम करती थीं, लेकिन उन्हें समय पर मजदूरी नहीं मिलती थी। जब सहोद्रा ने यह अन्याय देखा, तो उन्होंने महिलाओं को इकट्ठा कर बीड़ी कंपनी के दफ्तर में प्रदर्शन किया, जिसके बाद कंपनी को मजदूरी तुरंत देनी पड़ी।

पहली महिला सांसद बनने का सफर

नेहरू की प्रेरणा से साल 1957 में उन्होंने सागर लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा और 1,41,400 वोटों से जीतकर पहली महिला सांसद बनीं। उन्होंने कुल 5 चुनाव लड़े, जिनमें से 4 में उन्होंने जीत हासिल की। एक चुनाव उन्होंने दमोह लोकसभा सीट से भी लड़ा और जीतकर दमोह की पहली महिला सांसद बनीं। साल 1975 में जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाया, तो सहोद्राबाईने इसके खिलाफ आवाज उठाई। साल 1979 में जब इंदिरा गांधी को गिरफ्तार किया गया, तो उन्होंने सत्याग्रह किया और उन्हें जेल जाना पड़ा।

उनके और उनके काम की विरासत

उनका स्वास्थ्य अंतिम समय में खराब रहने लगा और 26 मार्च 1981 को 61 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया। उनका जीवन महिलाओं के नेतृत्व और संघर्ष की प्रेरणा है। उनका जीवन यह साबित करता है कि जब महिलाएं नेतृत्व करती हैं, तो समाज और देश को नई दिशा मिलती है। वे सिर्फ एक स्वतंत्रता सेनानी नहीं थीं, बल्कि महिला सशक्तिकरण, मजदूरों के अधिकारों और सामाजिक न्याय की लड़ाई में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका जीवन हमें सिखाता है कि राजनीति में महिलाओं की भागीदारी लोकतंत्र को मजबूत बनाती है और समाज में सकारात्मक बदलाव लाती है।

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