संस्कृतिकला मेरा फेमिनिस्ट जॉयः सिनेमा, नाटक और रोज़मर्रा की बातचीत में कला के माध्यम से जीवन को देखना

मेरा फेमिनिस्ट जॉयः सिनेमा, नाटक और रोज़मर्रा की बातचीत में कला के माध्यम से जीवन को देखना

कॉमेडी, थ्रिलर, रोमांटिक सब धाराओं में बेहतरीन काम देखना मेरी आदत है। इस सबके बीच अगर कोई एक फिल्म है जिसने मुझे घरेलू जीवन की बारीकियों को देखने पर मजबूर किया तो वह 'द ग्रेट इंडियन किचन' थी। यह फिल्म बेहद साधारण तरीके से रोजमर्रा के जीवन को दिखाती है लेकिन इसकी गहराई बहुत ज्यादा है।

कला और सिनेमा सिर्फ मनोरंजन नहीं होते बल्कि वे हमारे सोचने, महसूस करने और दुनिया को देखने के तरीके को भी बदलते हैं। मैं हमेशा से फिल्में देखने और नाटक पढ़ने का शौक़ीन रहा हूं लेकिन जब मैंने इन्हें एक गहरे दृष्टिकोण से देखना शुरू किया तो अहसास हुआ कि ये माध्यम सिर्फ कहानी कहने के लिए नहीं बल्कि हमें आत्मविश्लेषण करने और अपने अनुभवों को समझने का मौका भी देते हैं। व्यस्तता से भरे जीवन में भी मैं ये दोनों काम करना नहीं छोड़ता हूं। यह मेरे अस्तित्व को गहराई भी देते हैं और मेरे विचारों को संवेदनशील धार भी देते हैं। आत्मिक खुशी मुझे इनसे ही मिलती है।

सिनेमा: कल्पना और यथार्थ के बीच एक पुल

सिनेमा में मुझे हमेशा से दो तरह की फिल्में आकर्षित करती हैं एक वो जो यथार्थ के क़रीब होती हैं और दूसरी वो जो हमें कल्पना की अनंत दुनिया में ले जाती हैं। दोनों ही अपने तरीक़े से कला को परिभाषित करती हैं। ‘ओल्डबॉय’ साऊथ कोरियन फिल्म जिसे पार्क चान वू ने निर्देशित किया है, को जब मैंने पहली बार देखा तो यह सिर्फ एक बदले की कहानी लगी। लेकिन जब फिल्म खत्म हुई तो मुझे एहसास हुआ कि यह बदले से कहीं ज़्यादा एक मनोवैज्ञानिक पहेली थी। फिल्म का नैरेटिव हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम सच में अपनी स्मृतियों पर भरोसा कर सकते हैं? यह फिल्म सिनेमेटोग्राफी और एडिटिंग के प्रयोग से दर्शकों को उलझन में डालती है लेकिन साथ ही उनके साथ एक अनोखा रिश्ता भी बनाती है।

सिनेमा की तरह नाटक भी जीवन को समझने का एक ज़रिया है। नाटक में दृश्य सीमित होते हैं लेकिन संवाद और अभिनय की ताकत इतनी अधिक होती है कि वे दर्शकों के दिलो-दिमाग़ में गहराई तक उतर जाते हैं।

‘इनसेप्शन’ और ‘इंटरस्टेलर’ क्रिस्टोफर नोलन की दो फिल्में समय और चेतना की सीमाओं को तोड़ते हुए एक अनोखी सिनेमाई भाषा रचती हैं। ‘इनसेप्शन’ में ड्रीम लेयर्स की अवधारणा केवल कहानी को रोमांचक नहीं बनाती बल्कि यह हमारी अपनी वास्तविकता पर सवाल उठाने की क्षमता भी रखती है। क्या हम जो महसूस करते हैं वह सच है या सिर्फ किसी और की कल्पना का हिस्सा? वहीं इंटरस्टेलर में विज्ञान और भावनाओं का संतुलन देखने लायक़ है। यह फिल्म हमें दिखाती है कि ब्रह्मांड की खोज सिर्फ तकनीकी नहीं बल्कि मानवीय भी हो सकती है। जब कूपर और मर्फ़ के रिश्ते को देखते हैं तो यह केवल पिता-पुत्री का रिश्ता नहीं रह जाता बल्कि यह समय और दूरी के उस संबंध को भी दर्शाता है जिसे हम भौतिक रूप से नहीं बल्कि भावनात्मक रूप से महसूस कर सकते हैं। इस फिल्म को मैं हमेशा अकेले कमरे में देखता हूं, इसे देखना ध्यान करने जैसा है। इसे यूं अब तक मैं चार-पांच बार देख चुका हूं लेकिन जब इसे पहली बार देखा था तब मैं अपने आसपास के वातावरण को बहुत सवालिया रूप से देख रहा था।

तस्वीर साभारः Tripadvisor

इसके मानसिक प्रभाव मैं अपने ऊपर मेरे स्वप्नों के माध्यम से महसूस कर पाता हूं। इनके अलावा हिंदी सिनेमा में ‘अर्धसत्य’ जैसी फ़िल्में सिनेमा की उस धारा का प्रतिनिधित्व करती हैं जो समाज और व्यक्ति के आंतरिक संघर्ष को सामने लाती हैं। गोविंद निहलानी द्वारा निर्देशित यह फिल्म पुलिस व्यवस्था, राजनीति और एक व्यक्ति की अंतरात्मा के टकराव की कहानी कहती है। ओम पुरी का अभिनय इस फिल्म को और भी सशक्त बनाता है जहां उनके किरदार को सिस्टम से लड़ते हुए अपने ही भीतर झांकना पड़ता है। वहीं ‘कागज़ के फूल’, गुरु दत्त की सबसे चर्चित फिल्मों में से एक है। कला और व्यक्तिगत जीवन के बीच संतुलन के संघर्ष को दिखाती है। यह फिल्म केवल फिल्म उद्योग की कहानी नहीं कहती बल्कि एक कलाकार की संवेदनशीलता और उनके जीवन की त्रासदी को भी उजागर करती है। इसमें छायांकन और गीतों का जो मेल है वह इसे एक कविता की तरह बहने वाली फिल्म बना देता है।

मेरी रुचि व्यापक है, कॉमेडी, थ्रिलर, रोमांटिक सब धाराओं में बेहतरीन काम देखना मेरी आदत है। इस सबके बीच अगर कोई एक फिल्म है जिसने मुझे घरेलू जीवन की बारीकियों को देखने पर मजबूर किया तो वह ‘द ग्रेट इंडियन किचन’ थी। यह फिल्म बेहद साधारण तरीके से रोजमर्रा के जीवन को दिखाती है लेकिन इसकी गहराई बहुत ज्यादा है। इसमें नाटकीयता कम और सच्चाई ज़्यादा है जो इसे और भी प्रभावी बनाती है। हालांकि लोग इसे बोरिंग फिल्म की कैटेगरी में अधिक डालते हैं लेकिन सच हमेशा रोमांचक नहीं होता है।

नाटक: संवाद और आत्मविश्लेषण का माध्यम

तस्वीर साभारः NSD

सिनेमा की तरह नाटक भी जीवन को समझने का एक ज़रिया है। नाटक में दृश्य सीमित होते हैं लेकिन संवाद और अभिनय की ताकत इतनी अधिक होती है कि वे दर्शकों के दिलो-दिमाग़ में गहराई तक उतर जाते हैं। ‘आषाढ़ का एक दिन’, मोहन राकेश द्वारा लिखा गया हिंदी नाटकों की दुनिया में एक अलग पहचान रखता है। यह नाटक हमें केवल कालीदास की कहानी नहीं सुनाता बल्कि यह कला और कर्तव्य के द्वंद्व को भी उजागर करता है।

कालीदास और मल्लिका के बीच का संबंध सिर्फ प्रेम तक सीमित नहीं होता है बल्कि यह त्याग और समय के प्रभाव को भी दिखाता है और यह भी कि प्रेम में पुरुष की हद कितनी हो सकती है हालांकि इस बहाने सामान्यीकरण से भी बचना चाहिए। मेरा और पसंदीदा नाटक शेक्सपियर का क्लासिक ‘मैकबेथ’ नाटक है जो सत्ता और महत्वाकांक्षा की एक गहरी कहानी कहता है। नाटक में त्रासदी सिर्फ ‘मैकबेथ’ की नहीं बल्कि हर उस व्यक्ति की है जो शक्ति की खोज में अपने नैतिक मूल्यों को पीछे छोड़ देता है। इसका कथानक हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या शक्ति हमेशा पतन का कारण बनती है या यह हमारे निर्णयों पर निर्भर करता है?

ग्रेट इंडियन किचन पुरुषों की समझ को नई दिशा देने के लिए बढ़िया काम है लेकिन क्योंकि मैं बचपन से घर के कामों में बराबर रूप से शामिल रहा हूं तो मेरे लिए इसका प्रभाव बहुत अधिक नहीं रहा लेकिन दोस्तों में इसे लेकर बार बेशक उन्हें बेहतर इंसान बनने में भूमिका निभा सकती है।

मोहन राकेश का एक और नाटक है – ‘आधे अधूरे’, यह एक परिवार की कहानी के बहाने समाज की जटिलताओं को सामने लाता है। इस नाटक में संवाद की जो सहजता और गहराई है वह इसे खास बनाती है। हर किरदार अधूरा है, हर रिश्ता अपूर्ण है, और यही इस नाटक की सबसे बड़ी ताकत है। रोज़मर्रा की बातचीत और कला का प्रभाव मेरा यह भी मानना है कि कला सिर्फ देखने या पढ़ने के लिए नहीं होती बल्कि यह हमारी सोच और बातचीत में भी प्रवेश कर जाती है। मुझे इसका एहसास तब हुआ जब मैंने अपने दोस्तों से फिल्मों और नाटकों पर चर्चा करना शुरू किया। पहले ये चर्चाएं केवल प्लॉट और किरदारों तक सीमित थीं लेकिन धीरे-धीरे हम इस पर बात करने लगे कि ये कहानियां हमारे अपने जीवन से कैसे जुड़ती हैं।

‘कागज़ के फूल’, गुरु दत्त की सबसे चर्चित फिल्मों में से एक है। कला और व्यक्तिगत जीवन के बीच संतुलन के संघर्ष को दिखाती है। यह फिल्म केवल फिल्म उद्योग की कहानी नहीं कहती बल्कि एक कलाकार की संवेदनशीलता और उनके जीवन की त्रासदी को भी उजागर करती है।

एक बार मैंने इनसेप्शन पर एक दोस्त से चर्चा की, तो उसने एक बहुत रोचक सवाल पूछा, “अगर तुम्हें अपनी सबसे प्यारी याद को हमेशा के लिए जीने का मौका मिले, तो क्या तुम असली दुनिया छोड़ दोगे?” यह सवाल सिर्फ फिल्म तक सीमित नहीं था, बल्कि हमारे अपने निर्णयों और वास्तविकता को देखने के तरीके पर भी था। वहीं ग्रेट इंडियन किचन पुरुषों की समझ को नई दिशा देने के लिए बढ़िया काम है लेकिन क्योंकि मैं बचपन से घर के कामों में बराबर रूप से शामिल रहा हूं तो मेरे लिए इसका प्रभाव बहुत अधिक नहीं रहा लेकिन दोस्तों में इसे लेकर बार बेशक उन्हें बेहतर इंसान बनने में भूमिका निभा सकती है।

किसी फिल्म या नाटक को देखने का असली आनंद तभी आता है जब हम उसे केवल एक मनोरंजन की चीज़ न मानकर एक अनुभव के रूप में देखें। जब हम किसी कहानी में सिर्फ किरदारों को नहीं बल्कि खुद को भी ढूंढना शुरू कर देते हैं तब हमें अहसास होता है कि कला की असली ताकत क्या होती है। मैं इस कला को रोज़ जीता हूं और एक शांति भरी खुशी से खुद को भरा हुआ पाता हूं। कला को महसूस करना और जीना दोनों मेरे जीवन का सबसे बड़ा जॉय है।


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