इंटरसेक्शनलग्रामीण भारत आदिवासी महिलाओं का संघर्ष: हसदेव अरंड को बचाने की जंग और सरकार की अनदेखी

आदिवासी महिलाओं का संघर्ष: हसदेव अरंड को बचाने की जंग और सरकार की अनदेखी

खनन के कारण विस्थापन की मार सबसे अधिक महिलाओं पर पड़ी है। उन्हें आजीविका की हानि, काम का बोझ बढ़ने, शारीरिक समस्याओं और उत्पीड़न जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। इसके बावजूद वे "हसदेव बचाओ आंदोलन" का नेतृत्व कर रही हैं और सरकार तथा कॉर्पोरेट कंपनियों के खिलाफ डटी हुई हैं।

देश की राजधानी दिल्ली हर साल वायु प्रदूषण की गंभीर समस्या से जूझती है। प्रदूषण इतना बढ़ जाता है कि सरकार को स्कूल, कॉलेज और ऑफिस तक बंद करने पड़ते हैं। यह स्थिति बताती है कि इंसानों को स्वच्छ हवा यानी ऑक्सीजन की कितनी आवश्यकता होती है। स्वच्छ हवा हमें जंगलों से ही मिलती है, लेकिन इन दिनों भारत का फेफड़ा कहे जाने वाला हसदेव अरंड संकट में है। छत्तीसगढ़ का हसदेव अरंड जंगल, जो भारत के सबसे समृद्ध और घने वनों में शामिल है, अब धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है। यहां अब तक करीब 3,00,000 पेड़ काटे जा चुके हैं और रिपोर्ट्स के अनुसार, यह संख्या 8,00,000 तक पहुंच सकती है। जंगल के नीचे करोड़ों टन कोयले का भंडार होने के कारण यहां लगातार कोयला खनन हो रहा है। इसका असर पर्यावरण के साथ-साथ वहां के मूलनिवासियों पर भी पड़ रहा है।

हसदेव बचाओ आंदोलन और आदिवासी महिलाओं की भागीदारी

हसदेव आंदोलन: जंगल हमारे जीने का सहारा है
तस्वीर साभार: कलेक्टिव इंडिया

हसदेव अरंड को बचाने के लिए 2010 से आंदोलन चल रहा है। इस आंदोलन में आदिवासी महिलाएं सक्रिय रूप से भाग ले रही हैं और अपने जल, जंगल, जमीन की रक्षा के लिए संघर्ष कर रही हैं। खनन के कारण विस्थापन की मार सबसे अधिक महिलाओं पर पड़ी है। उन्हें आजीविका की हानि, काम का बोझ बढ़ने, शारीरिक समस्याओं और उत्पीड़न जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। इसके बावजूद वे “हसदेव बचाओ आंदोलन” का नेतृत्व कर रही हैं और सरकार तथा कॉर्पोरेट कंपनियों के खिलाफ डटी हुई हैं। हसदेव अरंड में वनों की कटाई की शुरुआत 2010 में यूपीए सरकार के कार्यकाल में हुई, जब राज्य की भाजपा सरकार ने खनन के लिए अनुमति दी। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की वन सलाहकार समिति (FAC) ने इस क्षेत्र को “नो-गो एरिया” मानने के बावजूद परसा ईस्ट और केते बासन कोयला खनन परियोजना को मंजूरी दी। इसके बाद यह परियोजना राजस्थान राज्य विद्युत निगम लिमिटेड (RVPNL) को दी गई, जिसने इसे अडानी समूह को सौंप दिया। तब से लेकर अब तक हजारों पेड़ काटे जा चुके हैं।

खनन के कारण विस्थापन की मार सबसे अधिक महिलाओं पर पड़ी है। उन्हें आजीविका की हानि, काम का बोझ बढ़ने, शारीरिक समस्याओं और उत्पीड़न जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। इसके बावजूद वे “हसदेव बचाओ आंदोलन” का नेतृत्व कर रही हैं और सरकार तथा कॉर्पोरेट कंपनियों के खिलाफ डटी हुई हैं।

आंदोलन का दमन, वनों की कटाई और खनन का पर्यावरण पर प्रभाव

आदिवासी जब अपने जंगलों को बचाने के लिए विरोध करते हैं, तो सरकार और प्रशासन उन पर दमन करता है। कई बार पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर लाठीचार्ज किया और जबरन पेड़ों की कटाई करवाई। हाल ही में 17 अक्टूबर 2023 को 6,000 पेड़ों की कटाई के विरोध में प्रदर्शन कर रहे आदिवासियों पर फिर से पुलिस ने हमला किया। हरे-भरे जंगल अब व्यापार के लिए छोटे-छोटे टुकड़ों में बांट दिए गए हैं। वनों की कटाई से पर्यावरण को गंभीर नुकसान हो रहा है। इसके परिणामस्वरूप जैव विविधता का नुकसान, जलवायु परिवर्तन में वृद्धि, मिट्टी का क्षरण, जल स्रोतों की कमी और कार्बन उत्सर्जन जैसी समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। हसदेव जंगल 170,000 हेक्टेयर क्षेत्र में फैला हुआ है और छत्तीसगढ़ की जल आपूर्ति के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह न केवल पूरे भारत की जलवायु को संतुलित करने में मदद करता है, बल्कि ऑक्सीजन का भी एक बड़ा स्रोत है।

तस्वीर साभार: Newsclick

लेकिन जंगलों की कटाई और खनन के कारण यहां झरने सूख रहे हैं, जल स्रोत प्रदूषित हो रहे हैं और खेती के लिए पानी का संकट खड़ा हो गया है। हसदेव जंगल की कटाई से वहां के वन्यजीव विलुप्ति के कगार पर आ गए हैं। जंगल का विनाश कई जीव-जंतुओं के भोजन और आश्रय को खत्म कर रहा है। हाथियों का झुंड, जो हसदेव जंगल में सबसे अधिक संख्या में पाया जाता है, खनन के धमाकों से डरकर गाँवों में घुस रहा है और तोड़फोड़ कर रहा है। कई बुजुर्ग और बच्चे हाथियों के हमले में मारे गए हैं। जंगल खत्म होने से पक्षियों की संख्या भी तेजी से घट रही है और कई जानवर भोजन के अभाव में मर रहे हैं।

हसदेव अरंड केवल एक जंगल नहीं है, बल्कि आदिवासियों का घर, लाखों जीव-जंतुओं का आश्रय और पर्यावरण का संरक्षक है। जंगलों की कटाई और कोयला खनन न केवल स्थानीय समुदायों को विस्थापित कर रहा है, बल्कि पूरे भारत के पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुँचा रहा है। आदिवासियों का संघर्ष और महिलाओं की भागीदारी इस लड़ाई को और भी महत्वपूर्ण बनाते हैं। यह समय है कि सरकार और समाज हसदेव को बचाने के लिए ठोस कदम उठाए, ताकि आने वाली पीढ़ियों को स्वच्छ हवा, जल और वन्यजीवों का संरक्षण मिल सके।

जो महिलाएं पहले जंगल पर निर्भर थीं, अब वे घरों में झाड़ू-पोंछा करने को मजबूर हैं। जंगल उजड़ने से केवल इंसानों का नहीं, बल्कि वन्यजीवों का भी घर नष्ट हो गया है। इस वजह से हाथियों के झुंड गाँवों में घुसकर नुकसान पहुँचा रहे हैं।

जल, जंगल और ज़मीन बचाने की लड़ाई

हसदेव आंदोलन: जंगल हमारे जीने का सहारा है
तस्वीर साभार: कलेक्टिव इंडिया

“महिलाएं अपने जल, जंगल, ज़मीन और अधिकार बचाने के लिए पूरी हिम्मत के साथ संघर्ष कर रही हैं,” यह कहना है आंदोलनकारी सुनीता का। उनके अनुसार, हर दिन करीब 100 महिलाएं धरना स्थल पर पहुंचती हैं और बारी-बारी से आंदोलन का नेतृत्व करती हैं। वे जंगलों को बचाने के लिए एकजुट होकर खड़ी हैं और किसी भी कीमत पर अपने अधिकारों से समझौता करने को तैयार नहीं हैं। खनन और वनों की कटाई के कारण पानी का संकट गहराता जा रहा है। पानी के स्रोत इतने कम हो गए हैं कि महिलाओं को लंबी दूरी तय करनी पड़ती है। पहले जंगल से उन्हें कई सुविधाएं मिलती थीं—लकड़ी, भोजन, तेंदू-चार, सरई के पत्ते, जिससे वे पत्तल बनाकर अपनी आजीविका चलाती थीं। लेकिन अब, जब से खनन शुरू हुआ है, पानी काला पड़ गया है, जल स्रोत दूषित हो गए हैं, और हवा में धूल व कोयले की मोटी परतें जम गई हैं। इसका सीधा असर महिलाओं और उनके परिवारों के स्वास्थ्य पर पड़ा है।

विस्थापन और महिलाओं की रोज़मर्रा की मुश्किलें

खनन और जंगल कटाई के चलते महिलाओं को विस्थापन की मार झेलनी पड़ रही है। कई परिवारों को मुआवज़ा मिला, लेकिन पुरुषों ने शराब में पैसे उड़ा दिए, जिससे महिलाएं और भी असहाय हो गईं। जो महिलाएं पहले जंगल पर निर्भर थीं, अब वे घरों में झाड़ू-पोंछा करने को मजबूर हैं। जंगल उजड़ने से केवल इंसानों का नहीं, बल्कि वन्यजीवों का भी घर नष्ट हो गया है। इस वजह से हाथियों के झुंड गाँवों में घुसकर नुकसान पहुँचा रहे हैं। आंदोलन के दौरान महिलाओं को पुलिस दमन और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। जब वे जंगलों को बचाने के लिए विरोध करती हैं, तो पुलिस उन पर लाठीचार्ज करती है, उनके साथ यौन हिंसा करती है और देर रात तक थानों में बैठाए रखती है। इसके बावजूद महिलाएं डरने के बजाय दृढ़ता से अपने हक़ की लड़ाई लड़ रही हैं।

“महिलाएं अपने जल, जंगल, ज़मीन और अधिकार बचाने के लिए पूरी हिम्मत के साथ संघर्ष कर रही हैं,” यह कहना है आंदोलनकारी सुनीता का। उनके अनुसार, हर दिन करीब 100 महिलाएं धरना स्थल पर पहुंचती हैं और बारी-बारी से आंदोलन का नेतृत्व करती हैं।

महिलाएं जंगल को अपनी सहेली मानती हैं। वे दिनभर किसी न किसी काम से जंगल में ही रहती थीं—कोई लकड़ी लाती, कोई पशु चराती, कोई जड़ी-बूटियां इकट्ठा करती। जंगल उन्हें शांत और शुद्ध वातावरण देता था। लेकिन अब, जैसे ही पुलिस या खनन कंपनियों के लोग जंगल में आते हैं, महिलाएं हाथ पकड़कर उन्हें रोकने के लिए खड़ी हो जाती हैं और पेड़ों से चिपक जाती हैं, ताकि वे कटाई न कर सकें। खनन से चारों ओर धूल और धुएं की काली परत जम रही है, जिसका सीधा प्रभाव खेती की भूमि और फसलों पर पड़ रहा है। मिट्टी की गुणवत्ता खराब हो रही है और खाद्य उत्पादन में गिरावट आ रही है। पर्यावरणीय असंतुलन बढ़ता जा रहा है, लेकिन महिलाएं इस नुकसान के खिलाफ अपनी लड़ाई जारी रखने के लिए प्रतिबद्ध हैं।

तस्वीर साभार: Indian Express

सुनीता कहती हैं, “हम डरते नहीं हैं। जब तक ज़रूरत होगी, हम लड़ते रहेंगे। हमारे पास खोने को कुछ भी नहीं है। जंगल हमारे जीने का सहारा है। जंगल नहीं बचा, तो न हम बचेंगे और न ही पर्यावरण।” महिलाओं ने पहले सिर्फ रास्ता दिखाने का काम किया, लेकिन अब वे इस लड़ाई की नेता बन चुकी हैं। वे इस संघर्ष को अंतिम दम तक जारी रखने का संकल्प ले चुकी हैं, क्योंकि जंगल सिर्फ ज़मीन का एक टुकड़ा नहीं, बल्कि उनकी पूरी ज़िंदगी का आधार है। खनन और जंगल कटाई के कारण विस्थापित किए जाने के बाद अब बच्चों की शिक्षा पर भी असर पड़ने लगा है। स्कूल चलाने वाले अधिकारी बच्चों का जाति प्रमाण पत्र बनाने से इनकार कर रहे हैं, जिससे उन्हें शिक्षा प्राप्त करने में कठिनाइयां हो रही हैं। विस्थापन के कारण गाँव और स्कूलों के बीच दूरी बढ़ गई है, जिससे बच्चों के लिए स्कूल जाना मुश्किल हो गया है।

विस्थापितों के साथ भेदभाव

विस्थापित परिवारों को कहा जा रहा है कि तुम सब बाहर से आए हो, यहां नहीं रह सकते। इस तरह की मानसिकता से वे अपने ही घर में बेगानों की तरह महसूस कर रहे हैं। साल 2021 में हरियरपुर गाँव की महिलाओं ने अपने अधिकारों की मांग को लेकर लंबा आंदोलन चलाया। वे सवाल करती हैं, “हमारी क्या गलती है? हम बस अपना जल, जंगल, ज़मीन वापस चाहते हैं और अपने अधिकार माँग रहे हैं। लेकिन हमारे साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार किया जा रहा है।” महिलाएं कहती हैं कि उन्होंने अपने आसपास के जंगलों को उजड़ते देखा, लेकिन अब वे अपने गाँव को बर्बाद नहीं होने देंगी। वे चिंतित हैं कि उनके बच्चों का भविष्य अंधकार में है। जंगल कटने से सिर्फ लोगों का ही नहीं, बल्कि पूरे पर्यावरण का भी नुकसान होगा। इतिहास गवाह है कि हर आंदोलन में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। वे हमेशा बड़ी संख्या में अपने अधिकारों के लिए सड़क पर उतरी हैं। हसदेव आंदोलन की महिलाओं का यह संघर्ष भी वर्षों तक याद किया जाएगा। उन्होंने वन संरक्षण और पर्यावरण बचाने का ज़िम्मा उठाया है और देशभर की महिलाओं को अपने हक़ की लड़ाई लड़ने के लिए प्रेरित कर रही हैं।

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