भारत अपनी विविधता और लोकप्रिय संस्कृतियों के लिए मशहूर है। भारतीय संस्कृति की तरह यहां की जनजातियां भी बहुत अलग-अलग हैं। हर जनजाति की अपनी खास पहचान होती है, जैसे उनकी भाषा, पोशाक, रहन-सहन, लोक नृत्य, कला और परंपराएं। ये सब उनकी सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा हैं और उन्हें समाज में अलग पहचान दिलाते हैं। इसी कड़ी में मध्यप्रदेश की एक पुरानी और महत्वपूर्ण जनजाति है भील समुदाय, जो अपनी ‘हलमा’ परंपरा के लिए जाना जाता है। हलमा एक खास लोक कला और सांस्कृतिक अनुष्ठान है, जो राज्य के कई हिस्सों में प्रचलित है। यह खासतौर पर आदिवासी इलाकों में सामूहिक एकता और सहयोग को बढ़ावा देने के लिए मनाया जाता है। हलमा भील समाज की एक ‘मदद की परंपरा’ है। जब कोई व्यक्ति या परिवार किसी संकट में फँस जाता है और खुद उससे नहीं निकल पाता, तो पूरे गांव के लोग उसकी मदद के लिए एकजुट हो जाते हैं।
देखा जाए तो आज के समय में हलमा जल संरक्षण और पर्यावरण बचाने का एक बड़ा जरिया बन गया है। मध्य प्रदेश के झाबुआ के एक गैर सरकारी संस्था जो ग्राम विकास के माध्यम से टिकाऊ जीवन के पारिस्थितिकी तंत्र पर काम कर रही है, हलमा ने 1,300 गांवों को पानी की कमी के कारण पलायन करने से बचाया है। हलमा उन लोगों के लिए एक संदेश है, जो सामाजिक एकता, भाईचारे और अपनी संस्कृति से दूर होते जा रहे हैं। आज लोग एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में जाति-धर्म और ऊँच-नीच के भेदभाव में उलझ गए हैं। लेकिन हलमा हमें सिखाता है कि हमें मिलकर रहना चाहिए, साथ चलना चाहिए और अपनी संस्कृति व परंपराओं को सहेजना चाहिए। भील जनजाति के लोग आज भी इस परंपरा को निभा रहे हैं और आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं।
जब गांव का कोई व्यक्ति किसी संकट में फंस जाता है और अपनी पूरी कोशिश के बावजूद उससे बाहर नहीं निकल पाता, जैसे किसी की फसल कटाई के लिए तैयार है लेकिन मज़दूरों को मेहनताना देने के लिए पैसे नहीं हैं, किसी को घर या कुआँ बनवाना है, खेत तैयार करना है—तो वह हलमा का आह्वान करता है।
क्या है हलमा?
हलमा भील समाज की एक प्राचीन परंपरा है। इसका शाब्दिक अर्थ ‘साथ चलना’, ‘साथ काम करना’ या ‘मदद के लिए पुकारना’ होता है। इसका मुख्य उद्देश्य सामूहिक श्रम को सम्मान और एकजुटता को बढ़ावा देना है। हलमा, भील समाज की एक अनूठी मदद की परंपरा है। जब गांव का कोई व्यक्ति किसी संकट में फंस जाता है और अपनी पूरी कोशिश के बावजूद उससे बाहर नहीं निकल पाता, जैसे किसी की फसल कटाई के लिए तैयार है लेकिन मज़दूरों को मेहनताना देने के लिए पैसे नहीं हैं, किसी को घर या कुआँ बनवाना है, खेत तैयार करना है—तो वह हलमा का आह्वान करता है। गांव के लोग सामाजिक दायित्व निभाते हुए उसकी मदद के लिए आगे आते हैं। हलमा की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसमें सभी लोग निस्वार्थ भाव से श्रमदान करते हैं। इसमें आदिवासी समुदाय के लोग और किसान शामिल होते हैं, और उनके सामूहिक प्रयास से यह परंपरा आगे बढ़ती है।

यह आदिवासी समाज में कृषि कामों और सामाजिक ज़िम्मेदारियों को साझा करने का एक माध्यम भी है। इस विषय पर साँड़ गांव के किसान खुमान किहोरी बताते हैं, “हलमा उनके पूर्वजों से चला आ रहा है। गांव के लोग एकजुट होकर जरूरतमंद की बड़े स्तर पर मदद करते हैं। झाबुआ ज़िले और उसके आस-पास के गांवों में ज़्यादातर छोटे किसान रहते हैं, जिनके लिए खेती ही आजीविका का मुख्य साधन है। गर्मियों में इस क्षेत्र में पानी की भारी किल्लत होती थी, जिससे खेती संभव नहीं हो पाती थी। पशुओं को भी दिन में सिर्फ़ एक बार पानी मिल पाता था, और गांवों में कई मुश्किलें खड़ी हो जाती थीं। इसी समस्या के समाधान के लिए हलमा को जल संरक्षण के लिए अपनाया गया।”
झाबुआ ज़िले और उसके आस-पास के गांवों में ज़्यादातर छोटे किसान रहते हैं, जिनके लिए खेती ही आजीविका का मुख्य साधन है। गर्मियों में इस क्षेत्र में पानी की भारी किल्लत होती थी, जिससे खेती संभव नहीं हो पाती थी। पशुओं को भी दिन में सिर्फ़ एक बार पानी मिल पाता था, और गांवों में कई मुश्किलें खड़ी हो जाती थीं। इसी समस्या के समाधान के लिए हलमा को जल संरक्षण के लिए अपनाया गया।
हलमा का इतिहास

हलमा भील समुदाय की एक प्राचीन परंपरा है, जो आपसी सहयोग और सामूहिक श्रम पर आधारित है। यह परंपरा सदियों से चली आ रही है, लेकिन हाल के दशकों में इसे जल संरक्षण और पर्यावरण बचाव के लिए संगठित रूप में अपनाया गया है। हलमा की सटीक ऐतिहासिक जानकारी उपलब्ध नहीं है, लेकिन यह भील समाज में पीढ़ियों से संजोई गई परंपरा है। इसका मुख्य उद्देश्य सामूहिक श्रमदान के माध्यम से समस्याओं का समाधान निकालना है। जब कोई व्यक्ति या परिवार संकट में होता है, तो पूरा समुदाय उसकी सहायता के लिए आगे आता है।
हलमा हमारे लिए एक त्योहार की तरह है, जिसमें ज़रूरतमंदों की मदद की जाती है। महिलाएँ इसमें अपनी स्वेच्छा से शामिल होती हैं, उन पर कोई दबाव नहीं होता।” महिलाओं की सक्रिय भागीदारी हलमा को और अधिक समावेशी बनाती है। वे जल संरक्षण और सामुदायिक विकास में योगदान देकर समाज को सशक्त बना रही हैं।
केशव भूरिया, जो कभी झाबुआ के निवासी थे बताते हैं, “हलमा भील आदिवासी समाज और किसानों की संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। पुराने समय में संसाधनों की कमी के कारण लोग अकेले खेतों का काम नहीं कर पाते थे, तब पूरा गाँव एक-दूसरे की मदद करता था।” आज भील समुदाय ने हलमा को जल संरक्षण और पर्यावरण बचाव के लिए एक नई दिशा दी है। झाबुआ और उसके आसपास के गाँवों में गर्मियों में पानी की भारी किल्लत होती है, जिससे खेती और पशुपालन प्रभावित होता है और लोगों को पलायन करना पड़ता है। हलमा अब इन चुनौतियों का समाधान निकालने का एक सशक्त माध्यम बन गया है, जो सामाजिक एकजुटता और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण को बढ़ावा देता है।
हलमा में महिलाओं की भूमिका
हलमा में महिलाओं की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है। भील समाज में घरेलू जिम्मेदारियों के बावजूद वे सामूहिक श्रमदान में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती हैं। वे कुआँ खोदने, मिट्टी हटाने, जल स्रोतों के संरक्षण और पौधारोपण जैसे कार्यों में अहम योगदान देती हैं। झाबुआ ज़िले में जल संकट से निपटने के लिए जब हलमा शुरू हुआ, तब महिलाओं ने तालाब खुदाई, जल स्रोतों की सफाई और जल प्रबंधन में सक्रिय भागीदारी निभाई। वे सिर्फ़ श्रमदान ही नहीं करतीं, बल्कि सामुदायिक निर्णय-निर्माण की प्रक्रिया में भी शामिल रहती हैं। वे यह तय करने में भूमिका निभाती हैं कि हलमा कब और किन कामों के लिए किया जाए। हलमा की सफलता में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों के समान महत्वपूर्ण रही है। वे फावड़ा, गैंती जैसे औज़ारों के साथ उत्साहपूर्वक श्रमदान में शामिल होती हैं, उनके साथ बच्चे भी भाग लेते हैं।

ग्राम गुलाबपुरा की महिला किसान सविता डामोर बताती हैं, “पहले हलमा में पुरुषों की भागीदारी अधिक थी, लेकिन अब महिलाओं और बच्चों की संख्या ज़्यादा होती है।” उनका कहना है कि महिलाएं पानी की अहमियत समझती हैं, क्योंकि कुएँ-तालाब से पानी लाने से लेकर घर के सभी कामों में इसकी ज़रूरत होती है। वहीं, पाली अमलियार बताती हैं, “हलमा हमारे लिए एक त्योहार की तरह है, जिसमें ज़रूरतमंदों की मदद की जाती है। महिलाएँ इसमें अपनी स्वेच्छा से शामिल होती हैं, उन पर कोई दबाव नहीं होता।” महिलाओं की सक्रिय भागीदारी हलमा को और अधिक समावेशी बनाती है। वे जल संरक्षण और सामुदायिक विकास में योगदान देकर समाज को सशक्त बना रही हैं।
हलमा भील आदिवासी समाज और किसानों की संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। पुराने समय में संसाधनों की कमी के कारण लोग अकेले खेतों का काम नहीं कर पाते थे, तब पूरा गाँव एक-दूसरे की मदद करता था।” आज भील समुदाय ने हलमा को जल संरक्षण और पर्यावरण बचाव के लिए एक नई दिशा दी है।
हलमा और जल संरक्षण का संबंध और महत्व
हलमा के महत्व, जल संकट और जल संरक्षण के महत्व को समझने के लिए हमने यहां के गैर सरकारी संस्था शिवगंगा से बात की। इस संस्था ने साल 2005 में झाबुआ क्षेत्र में आए जल संकट को दूर करने का प्रयास शुरू किया था। संस्था के कार्यकर्ता राजेंद्र डिंडोड़ बताते हैं, “संस्था के संस्थापक महेश शर्मा 1997 में झाबुआ आए और यहां के भील समुदाय की परंपरा हलमा का अध्ययन किया। उन्होंने देखा कि उस समय सबसे बड़ी समस्या जल संकट थी। उन्होंने गांव-गांव जाकर लोगों से संवाद किया, बैठकें की और उन्हें जागरूक किया। उन्होंने लोगों को बताया कि जब किसी व्यक्ति पर संकट आता है, तो हलमा के माध्यम से उसकी सहायता की जाती है। आज पूरा क्षेत्र जल संकट से जूझ रहा है, इसलिए इस समस्या के समाधान के लिए भी हलमा को अपनाने की ज़रूरत थी। इस जागरूकता अभियान के ज़रिए जल संरक्षण की प्रक्रिया हलमा के माध्यम से शुरू हुई।” राजेंद्र बताते हैं कि झाबुआ के 300 से अधिक गावों में पर्यावरण संरक्षण दृष्टि से तालाब, झील, बोरी बंधान, स्टॉप डैम, कंटूर ट्रेंचेस, हैंडपंप का निर्माण, आदि कितने ही जल संरचनाओं का निर्माण हलमा द्वारा किया गया है।
समय के साथ हलमा का बदलता स्वरूप
समय के साथ हलमा परंपरा में कुछ बदलाव भी आए हैं। वर्तमान समय में हलमा एक बड़े आंदोलन और उत्सव का रूप ले चुका है, जो जल संरक्षण के साथ-साथ पर्यावरण संरक्षण का भी काम करता है। झाबुआ ज़िले के 12,000 हेक्टेयर में फैली हाथीपावा पहाड़ी पर 2,35,000 कंटूर ट्रेंच बनाए गए, जो पानी के संरक्षण और कृषि सुधार के लिए महत्वपूर्ण तकनीक है। राजेंद्र बताते हैं, “झाबुआ में 1320 गाँवों में 20 लाख जनजातीय लोग रहते हैं। वर्ष 2023 में हुए हलमा में 40,000 परिवारों को आमंत्रित किया गया था, जिसमें मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी शामिल हुए।”

वहीं युवा महिला पाली अमलियार बताती हैं, “पहले पानी की कमी के कारण भील समुदाय सिर्फ़ बरसाती फसल उगा पाता था और ग्रीष्मकाल में पलायन करना पड़ता था। हलमा के माध्यम से कुएं, तालाब, स्टॉप डैम, हैंडपंप और अन्य जल संरचनाएं बनाई गईं, जिससे अब डबल फसल संभव हो पाई और पलायन की दर घटी है।” आज हलमा जल संरक्षण से जन आंदोलन बन गया है। यह अब झाबुआ के जनजातीय समुदाय के लिए एक उत्सव और वार्षिक आयोजन का रूप ले चुका है, जिसमें छात्र, शोधार्थी, विशेषज्ञ और विभिन्न संस्थाओं के लोग भाग लेते हैं। हलमा न सिर्फ़ पारंपरिक एकजुटता का प्रतीक है, बल्कि जलवायु संकट के समाधान का भी एक महत्वपूर्ण मॉडल बन चुका है।