नारीवाद मेरा फेमिनिस्ट जॉय: साहित्य के माध्यम से नारीवादी सोच और समझ

मेरा फेमिनिस्ट जॉय: साहित्य के माध्यम से नारीवादी सोच और समझ

अब मैं समाज में पितृसत्ता के खिलाफ़ बोलने लगा हूं। जब भी कोई मिसोजिनिस्ट या सेक्सिस्ट बातें कर रहा होता है या रही होती है, मैं उनका विरोध करने लगता हूं। नारीवादी साहित्य को पढ़कर मेरे विरोध और तर्कों को मजबूती मिली है।

मैं मूल रूप से झारखंड के कोल्हान क्षेत्र के एक आदिवासी समाज से आता हूं। शुरुआत से ही मुझे मेरे समाज में लैंगिक भेदभाव अन्य ब्राह्मणवादी पितृसत्तातमक समाज से कम लगा। यहां कई क्षेत्र में महिलाएं समान रूप से भागीदार थीं। खेतों में मैंने पुरुषों और महिलाओं सबको साथ काम करते देखा था। शिक्षा के अवसर जो मुश्किल से समाज में पहली या दूसरी पीढ़ी तक ही आई थी, लड़के और लड़कियों के लिए उतना ही था। मेरे दादाजी जो स्कूल में शिक्षक थे, उन्होंने सभी बेटे-बेटियों को समान रूप से पढ़ाया। मुझे लगा मैं एक प्रगतिशील समाज और परिवार का हिस्सा हूं। 

लेकिन, युवा होने पर मुझे समाज में मौजूद लैंगिक भेदभाव साफ दिखने लगे। समाज में आधुनिकता का मतलब ब्राह्मणवाद की ओर झुकाव बन गया। साथ ही महिलाओं और पुरुषों के बीच की दूरी और उनके कामों में भूमिका में अंतर नजर आने लगा। अब हम महिलाओं के व्यवहार से लेकर, उनकी सोच, उनके पहनावे और उनके हर निर्णय को पितृसत्ता के आदर्शों से तय करने लगे। सिनेमा, साहित्य और टेलीविज़न ने पितृसत्ता को और मजबूत ही किया। वो एकता कपूर के सीरियल्स और 90 के दशक की बॉलीवुड फ़िल्मों का दौर था। पितृसत्ता के अंदर मैंने इस भेदभाव को सामान्य और स्वाभाविक समझ लिया। 

नारीवादी नजरिए से मेरा परिचय

साहित्य से लगाव के कारण मैंने अंग्रेजी विषय में ग्रेजुएशन करना चुना। कॉलेज के शुरूआती समय में भी हमारे सिलेबस को नारीवादी नजरिए से नहीं देखा गया। कभी गहराई से ये नहीं सोचा कि क्यों 18वीं सदी तक का साहित्य जो हम पढ़ रहे थे, उसमें शायद ही कोई महिला द्वारा लिखी कविताएं, सोनेट्स, लघुकथाएं या नोवल हैं। कई महिलाओं ने पुरुषों वाले उपनाम से कविताएं, कहानियां और लेख लिखे। हमने हेनरिक इबसन की ए डॉल्स हाउस (A Doll’s House) और जॉर्ज बर्नार्ड शॉ की कैंडिडा (Candida) पढ़ी और नारीवाद को समझने की कोशिश की। ये नाटक भी पुरुषों के ही लिखे गए थे, जो पुरुषों के नजरिए से महिला सशक्तिकरण और उनकी मनोदशा और सामाजिक परिस्थितियों पर बात कर रहे थे। 

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए रितिका बैनर्जी

ग्रेजुएशन के आखिरी साल में आधुनिक साहित्य में मैने वर्जीनिया वुल्फ और नारीवाद के सिद्धांत को पढ़ा। उनके नोवेल्स और लेखों ने मेरे नारीवाद के समझ को दिशा दी। उनका नोवेल ऑरलैंडो में एक ऐसे किरदार की कहानी है जो इतिहास के विभिन्न दौर को कभी पुरुष और कभी महिला होकर अनुभव करता है और ऐतिहासिक रूप से जेंडर रोल्स पर सवाल करता है। ए रूम ऑफ वंस ऑन के एक लेख ‘शेक्सपियर्स सिस्टर’ में वो शेक्सपियर के बहन की कल्पना करती है, जो समान रूप से प्रतिभाशाली होने के बावजूद पुरुषवादी समाज की रूढ़ियों और बंधनों की वजह से अपनी पहचान नहीं बना पाती।

घरों में मौजूद पितृसत्ता की कहानी

मास्टर्स की पढ़ाई के लिए मैं शिलांग आ गया। एक सेंट्रल युनिवर्सिटी होने की वजह से यहां देश के हर हिस्से से छात्र-छात्राएं थे। हमने पाया कि सभी अपने-अपने घरों और समाज में पितृसत्ता से जूझ रहे हैं। मेघालय में खासी समुदाय में मातृसत्ता होने के बाद भी वहां अपरोक्ष रूप से पितृसत्ता के प्रभाव को मैंने समझा। मास्टर्स के कोर्स के दौरान दलित और ट्राइबल साहित्य, अश्वेत अमरीकी साहित्य और अफ्रीकन साहित्य पढ़कर हमने फेमिनिज्म में अंतर्विभाजन को समझा। हम आपस में बातें किया करते थे कि कैसे हम यूनिवर्सिटी में पितृसत्ता को खत्म करने का नारा लगाते हैं पर वापस घर लौटकर समाज के उसी पितृसत्तातमक व्यवस्था में घुल जाते हैं।

फेमिनिज़म इन इंडिया के लिए श्रेया टिंगल

पर अब मैं समाज में पितृसत्ता के खिलाफ़ बोलने लगा हूं। जब भी कोई मिसोजिनिस्ट या सेक्सिस्ट बातें कर रहा होता है या रही होती है, मैं उनका विरोध करने लगता हूं। नारीवादी साहित्य को पढ़कर मेरे विरोध और तर्कों को मजबूती मिली है। समाज में बदलाव आने में समय लगता है और उसके लिए आवाज़ उठाते रहने की जरुरत है। अब मैं खुद को नारीवादी विचारधारा का समर्थक मानता हूं। अब मैं समाज, साहित्य और सिनेमा को नारीवादी नजरिए से समझने की कोशिश करता हूं और पितृसत्तात्मक विचारों को अस्वीकार करता हूं।

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