ठंड के मौसम में चिलचिलाती धूप और हवा में मौजूद बारूद की गंध की वजह से साँस लेने में तकलीफ़ दे रही है। दोपहर के ठीक तीन बजने को है एक एक कर सिलसिलेवार धमाके की आवाज इलाक़ों के साथ दिल को दहला देने वाली है। ये धमाके छत्तीसगढ़ के कोरबा ज़िले के गेवरा माइंस ( कोयला खदान ) की है जो देश के सबसे बड़े कोयला खदानों में से एक है। कोयले की चट्टानों को तोड़ने के लिए डायनामाइट से विस्फोट किया जाता है। ये सिलसिला पिछले कई सालों से चलता आ रहा है और कोरबा के लोगों की ज़िंदगी इसी बीच चल रही है।
कोरबा ज़िले के गेवरा इलाक़े के ग्रामीण बस अपने दिन जिन रहे हैं कुछ दिनों की ही बात है ये गावँ और उसके साथ कोरबा ज़िला भी कोयले की खुली खदान में तब्दील हो जाएगा। यही चिंता गेवरा के दामोदर श्याम के साथ साथ कोरबा वसियों को पिछले कई साल से सता रही है। कोरबा शहर के अंदर प्रवेश करते ही लगता है मानों हरियाली और आसमान का नीलापन खतम हो गया हो और एक काला मोटा परत ने पूरे कोरबा को घेर रखा है।
विश्व की 5 सबसे बड़ी कोयला खदानों में छत्तीसगढ़ की तीन खदानों को स्थान मिला है एसईसीएल (SECL) की गेवरा और कूसमूँड़ा खदान और दिपका कोयला खदानों को वर्ल्डएटलस डॉटकॉम द्वारा जारी दुनिया की टॉप 10 कोयला खदानों की सूची में दूसरा और चौथा स्थान मिला है।
विश्व की 5 सबसे बड़ी कोयला खदानों में छत्तीसगढ़ की तीन खदानों को स्थान मिला है एसईसीएल (SECL) की गेवरा और कूसमूँड़ा खदान और दिपका कोयला खदानों को वर्ल्डएटलस डॉटकॉम द्वारा जारी दुनिया की टॉप 10 कोयला खदानों की सूची में दूसरा और चौथा स्थान मिला है। कोरबा ज़िले में स्थित एसईसीएल के गेवरा और दिपका खदान में मेगा प्रोजेक्ट द्वारा वर्ष 2023-24 में 100 टन (MT) से अधिक का कोयला उत्पादन किया गया जोकि भारत के कुल कोयला उत्पादन का लगभग 19 फीसद है। इसी तरह कूसमूँड़ा खदान द्वारा भी वित्तीय वर्ष 2023-24 में 50 मिलियन टन कोयला उत्पादन किया गया। वर्ष 1981 में शुरू हुई गेवरा खदान में 900 मिलियन टन से अधिक का कोयला भंडार मौजूद है।
ग्रामीणों के अनुसार इन खदानों में स्थिति देख कोयला खनन के लिए वैश्विक स्तर पर अत्याधुनिक मशीन जैसे सरफेस माइनर का भी प्रयोग किया जाता है यह मशीन बिना ब्लास्टिंग के कोयला खनन कर उसे काटने में सक्षम है। खदान से कोयला निकलने के बाद 40 से 45 ट्रकों में लोड कर ट्रेनों में भर कर छत्तीसगढ़ से बाहर ले ज़ाया जाता है कोरबा के रेलवे स्टेशन से देखने से ये महसूस होता है मानों स्टेशन सिर्फ़ और सिर्फ़ कोयले के आयात निर्यात के लिए ही बनाया गया है। कोयला मंत्रालय ने के ज़रिए प्रेस रिलीज़ कर बताया कि गेवरा माइंस अकेले ही 40 वर्षों से भी अधिक समय से देश की ऊर्जा सुरक्षा में योगदान दे रही है। इस खदान की स्ट्राइक लेंथ क़रीब 10 किलोमीटर है और इसकी चौड़ाई 4 किलोमीटर है। देश में ऊर्जा संबंधित विकास तो किया जा रहा है, लेकिन उन लोगों या ग्रामीणों का क्या जिनको विस्थापित किया गया जो आज भी अपना घर चलाने के लिए उस प्रदूषण भरी खदान में कम वेतन में भी काम करने को मजबूर हैं। उन जीव-जंतुओं का क्या जिनके रैन बसेरा को जलाकर काला कर दिया गया ?
ब्लास्टिंग के कारण ज़ोरदार कंपन और धूल उड़ती है। इससे लोगों के घरों को नुकसान होता है और हवा में भारी मात्रा में प्रदूषण फैलता है। रेलवे साइडिंग में कोयले की लोडिंग-अनलोडिंग और ट्रकों की लगातार आवाजाही से वायु प्रदूषण चरम पर पहुंच चुका है।
खदान में कार्यरत मजदूरों का संघर्ष और ज़मीन अधिग्रहण
चेतन (बदला हुआ नाम) पिछले आठ साल से कोयला खदान में काम कर रहे हैं। कभी कोयला ट्रक में लोड करने का काम करते हैं तो कभी ट्रक चलाने का। खदान की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा, “ऐसे ही खदान में काम करता हूं। खदान तो हमारे घरों तक पहुंच गई है। फिर भी क्या करें, जीने के लिए उसी खदान पर ही काम करते हैं।” चेतन का घर भी अब खदान की चपेट में आ चुका है। मुआवज़े के रूप में जो पैसे मिले थे, उसी से उन्होंने दो कमरों का घर बनाया, जहां वे अपने परिवार के साथ रहते हैं। उन्होंने बताया कि खदान के अंदर उन्हें कोई सेफ़्टी या सुरक्षा नहीं दी जाती। अगर दुर्घटना हो जाए और किसी मज़दूर की जान चली जाए, तो मुआवज़ा नाम मात्र ही मिलता है। चेतन कहते हैं, “कमाएँ तो भी मरें, ना कमाएँ तो भूख से मरें, बस साँस ले रहे हैं। खदानों में ज़्यादातर मज़दूर बाहर, दूसरे राज्यों से लाए जाते हैं। स्थानीय मज़दूर बहुत कम संख्या में कार्यरत हैं। अगर होते भी हैं, तो केवल मिट्टी निकालने या ट्रक चलाने जैसे कामों में लगाए जाते हैं। जो सुपरवाइज़र या हेल्पर के पद पर काम करते हैं, वो भी बाहरी मज़दूर ही होते हैं।”
वह आगे कहते हैं, “ज़्यादातर काम तो मशीन ही कर लेती है। बड़ी-बड़ी मशीनें हैं। कम लागत पड़े, इसलिए मशीनें लाई गई हैं और जो मज़दूर हैं, वो बेरोज़गार हो रहे हैं।” कोरबा का अधिकांश हिस्सा खदान से प्रभावित है। यहां तीन मेगा प्रोजेक्ट्स को मिलाकर लगभग 40 से 45 प्राइवेट कंपनियां सक्रिय हैं। ज़मीन लेने से पहले लोगों से वादा किया जाता है कि मुआवज़े के साथ खदान में नौकरी भी दी जाएगी। लेकिन जैसे ही ज़मीन मिल जाती है, लोगों को यह पता चलता है कि या तो पैसा मिलेगा या नौकरी। हर एक परिवार को प्रति एकड़ ज़मीन या खेत के बदले लगभग 20 हज़ार रुपये मुआवज़े के रूप में दिए जाते हैं, जो मौजूदा समय की बढ़ती महंगाई के सामने बेहद कम है। एक ग्रामीण की बात को दोहराते हुए चेतन कहते हैं, “यहां के किसान, मज़दूर देशहित के लिए अपनी ज़मीन दे देते हैं। पर 100 में से सिर्फ़ 20 परिवारों को ही नौकरी नसीब होती है और बाकी लोगों को कुछ भी नहीं मिलता।”
खदान खुलने से हमें किसी भी प्रकार का लाभ नहीं मिला है। यह खदान हमारे गांव, शहर और जीवन को दीमक की तरह काट रही है और लगातार फैलती जा रही है। खदानों से निकलने वाले काले धुएं और राख के कारण कोरबा का पर्यावरण बेहद तेज़ी से प्रदूषित हो रहा है। कोरबा में SECL की तीन बड़ी खुली कोयला खदानें सक्रिय हैं।
कोरबा में खनन की शुरुआत और ज़मीन अधिग्रहण की कहानी
कोरबा में कोयला खदान की शुरुआत वर्ष 1978 में हुई थी। दामोदर श्याम, जो कोरबा के निवासी हैं और ‘भू-विस्थापित रोज़गार एकता संघ’ से जुड़े हैं, बताते हैं कि खदान की खुदाई, ज़मीन अधिग्रहण और मुआवज़े की पूरी प्रक्रिया छत्तीसगढ़ शासन की देखरेख में की गई। दामोदर बताते हैं, “1985 में जब मैं छोटा था, हमारे घर और खेत का अधिग्रहण किया गया। मुआवज़े के रूप में प्रति एकड़ केवल तीन हज़ार रुपये मिले।” उन्होंने बताया कि उस समय कुल 12 गांवों के 28 खातेदारों की ज़मीन को खदान के लिए अधिग्रहित किया गया। दामोदर श्याम का खुद का घर भी इस अधिग्रहण का हिस्सा था। यह खदान साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड (SECL) की थी, जो केंद्र सरकार के अधीन है। वहीं दूसरी ओर, निजी कंपनियाँ कोरबा के दूसरे हिस्से में खनन कर रही हैं।
दामोदर स्पष्ट कहते हैं, “खदान खुलने से हमें किसी भी प्रकार का लाभ नहीं मिला है। यह खदान हमारे गांव, शहर और जीवन को दीमक की तरह काट रही है और लगातार फैलती जा रही है। खदानों से निकलने वाले काले धुएं और राख के कारण कोरबा का पर्यावरण बेहद तेज़ी से प्रदूषित हो रहा है। कोरबा में SECL की तीन बड़ी खुली कोयला खदानें सक्रिय हैं। ब्लास्टिंग के कारण ज़ोरदार कंपन और धूल उड़ती है। इससे लोगों के घरों को नुकसान होता है और हवा में भारी मात्रा में प्रदूषण फैलता है। रेलवे साइडिंग में कोयले की लोडिंग-अनलोडिंग और ट्रकों की लगातार आवाजाही से वायु प्रदूषण चरम पर पहुंच चुका है।”
कानून का उल्लंघन और निगरानी की कमी
वायु प्रदूषण (निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1981 के तहत, किसी भी ऐसी गतिविधि के लिए, जिससे वायु प्रदूषण हो सकता है, राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से अनुमति लेना अनिवार्य है। लेकिन कोरबा में मौजूद सभी रेलवे साइडिंग छत्तीसगढ़ पर्यावरण संरक्षण मण्डल की अनुमति के बिना ही चल रही हैं। यह एक गंभीर पर्यावरणीय और प्रशासनिक चूक को दर्शाता है। दामोदर बताते हैं, “कसईपाली गांव के पास बहने वाला सलीहा नाला अब प्रदूषित हो चुका है। चाकाबुड़ा स्थित रिजेक्ट बेस्ड पॉवर प्लांट और कोल वॉशरी, जिसे ACB (इंडिया) लिमिटेड संचालित करता है, वहां से निकलने वाला काला दूषित पानी और राखयुक्त अपशिष्ट सीधे इस नाले में छोड़ा जा रहा है। इससे आसपास रहने वाले ग्रामीणों को भारी समस्या हो रही है क्योंकि वे इस नाले के पानी का उपयोग घरेलू और कृषि कार्यों में करते हैं।” इसी तरह, लीलागर नदी भी स्पेक्ट्रम पॉवर लिमिटेड द्वारा फैलाए जा रहे जल प्रदूषण से बुरी तरह प्रभावित है। यह कंपनी एक ‘ज़ीरो-डिस्चार्ज यूनिट’ होने का दावा करती है, लेकिन इसके बावजूद यह लगातार प्रदूषित पानी नदी में छोड़ रही है।
1985 में जब मैं छोटा था, हमारे घर और खेत का अधिग्रहण किया गया। मुआवज़े के रूप में प्रति एकड़ केवल तीन हज़ार रुपये मिले।” उन्होंने बताया कि उस समय कुल 12 गांवों के 28 खातेदारों की ज़मीन को खदान के लिए अधिग्रहित किया गया। दामोदर श्याम का खुद का घर भी इस अधिग्रहण का हिस्सा था। यह खदान साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड (SECL) की थी, जो केंद्र सरकार के अधीन है।
प्रदूषण और स्वास्थ्य समस्याएं
दामोदर श्याम बताते हैं कि कोरबा में प्रदूषण के कारण वायरल बुखार, दाँत कड़कना, बाल सफेद होना, खुजली, जलन और सांस की तकलीफ जैसी बीमारियां आम हो गई हैं। इलाके में प्रदूषण मापने के यंत्र तक नहीं हैं। SECL के अस्पताल केवल अपने कर्मचारियों का इलाज करते हैं, आम लोगों के लिए इलाज की कोई सुविधा नहीं है। 1 नवंबर 2021 से “भू-विस्थापित रोज़गार एकता संघ” के बैनर तले ग्रामीण आंदोलन कर रहे हैं। इसमें 70-80 ग्रामीण मज़दूर शामिल हैं। ग्रामीण चाहते हैं कि अधिग्रहण बंद हो, प्रदूषण रोका जाए, सभी को काम मिले और ज़मीन पर उनका हक बना रहे। कंपनी ने मुआवज़ा देने की पेशकश की है, लेकिन ग्रामीणों ने पुनर्वास और रोज़गार की मांग पूरी न होने तक मुआवज़ा लेने से मना कर दिया है। धरने पर बैठे लोगों के पास अब तक न कोई सरकारी प्रतिनिधि पहुँचा है, न ही मीडिया ने उनकी आवाज़ उठाई है।
कोरबा को कोयला खदानों, वाशरी और थर्मल पावर प्लांट्स के औद्योगिक क्लस्टर के रूप में विकसित किया गया है। 2009 तक यहाँ का वायु, जल और भूमि प्रदूषण खतरनाक स्तर तक पहुँच गया था। इसी वजह से केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) ने इसे Critically Polluted Area (CPA) घोषित करने की सिफारिश की थी। उस समय कोरबा का Comprehensive Environmental Pollution Index (CEPI) स्कोर 83 था, जो बेहद ऊंचा था। प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए विस्तृत कार्य योजना बनाई गई और नई औद्योगिक परियोजनाओं पर रोक लगा दी गई। हालांकि, 2013 में CEPI स्कोर में थोड़ी गिरावट आई, जिससे CPA टैग हटा लिया गया और नई परियोजनाओं को कानूनी मंजूरी मिल गई।
औद्योगिक विस्तार, बढ़ता बोझ और ग्रामीणों की अनदेखी
इसके बाद से कोरबा में कई नई औद्योगिक इकाइयाँ स्थापित हुईं और पुरानी इकाइयों की क्षमता दोगुनी-तिगुनी कर दी गई। दीपका और गेवरा खदानें अब लगभग 50 और 70 मिलियन टन प्रतिवर्ष उत्पादन कर रही हैं। बाल्को के स्मेल्टर की क्षमता भी तीन गुना हो चुकी है। खदानें अब धीरे-धीरे बस्तियों के और नजदीक पहुँच रही हैं। बठोरा और नराइबोध जैसे इलाकों के लोग विस्थापन के संकट में हैं। करतली गांव में प्रस्तावित अम्बिका कोयला खदान के लिए ग्रामीणों के विरोध के बावजूद SECL ने काम शुरू कर दिया है। विकास के नाम पर सरकार और कंपनियाँ आगे बढ़ रही हैं, लेकिन स्थानीय लोग प्रदूषण, भूख और रोज़गार की कमी से जूझ रहे हैं। उन्हें ना मुनाफ़े में हिस्सा मिल रहा है, ना ही पुनर्वास। जिन लोगों ने अपनी ज़मीनें दीं, वे बेघर हो गए, और बदले में सिर्फ़ काला धुआं और बीमारी मिली। SECL एक केंद्रीय सरकार का प्रोजेक्ट है, लेकिन सवाल यह उठता है कि इन विस्थापित और प्रभावित लोगों की जिम्मेदारी कौन लेगा?