“कृष्णा बन कर कहां घूम रहा है।” स्नातक के समय कई बार दोस्तों से ये बात सुनी थी। उस समय तो मुझे ये बातें काफ़ी अटपटी जान पड़ती थी। पर आज जब उन घटनाओं के बारे में सोचता हूं तो लगता है कि मैं अपने साथी महिला दोस्तों और जान पहचान वालों के साथ कब इतना सहज हो गया मुझे पता ही नहीं चला। मेरा सहज होना तो ठीक था पर उनका मेरे साथ सहज होना मेरे लिए आश्चर्य की बात थी। मैं कभी लड़कों के साथ इतना सहज नहीं था जितना मैं उनके साथ था। स्नातक में मैंने पहली बार अपनी एक महिला दोस्त को कहते सुना कि मैं अंकित के साथ सहज हूं। मुझे सुन कर पहले काफ़ी अजीब लेकिन अच्छा भी लगा। उस वक़्त मन की यही स्थिति थी। मैंने सोचा नहीं था कि कभी कोई मेरे लिए ऐसा कुछ कहेगा।
मैं तो बस हमेशा हर किसी को अपने आस-पास जैसा वो है वैसे रहने देने की कोशिश करता हूं। मैं नहीं चाहता कि कोई मेरी वजह से अपनी आदत या व्यवहार में बदलाव कर कुछ और बनने का प्रयास करे। वैसे तो मैं बचपन में कम ही लड़कियों के साथ रहा हूं। न ही मेरी कोई बहन थी। हाँ मेरी कजिन बहनें हैं पर उनके साथ ज़्यादा समय नहीं बिता, जिस कारण मेरे घर लड़कियों का आना-जाना कम ही रहा। मुझे नहीं पता कब और कैसे मैंने लड़कियों से बात करना सीखा। मैंने जो कुछ भी सीखा वो अपनी माँ से सीखा। मम्मी ने जानकर कभी भी लड़कियों के साथ अलग व्यवहार नहीं किया। वो हमेशा कोशिश करतीं जो जैसा है वो वैसा रहे और उनकी यही आदत मुझ में भी आ गई।
वैसे तो मैं बचपन में कम ही लड़कियों के साथ रहा हूं। न ही मेरी कोई बहन थी। हाँ मेरी कजिन बहनें हैं पर उनके साथ ज़्यादा समय नहीं बिता, जिस कारण मेरे घर लड़कियों का आना-जाना कम ही रहा। मुझे नहीं पता कब और कैसे मैंने लड़कियों से बात करना सीखा।
बॉयज स्कूल से पढ़ाई की शुरुआत और अनुभव
मैंने अपनी शुरुआती पढ़ाई बॉयज़ स्कूल में की थी। इस कारण बचपन में लड़कियों से मिलना तो दूर, मुझ जैसे लड़कों के लिए वो ‘एलियन’ थीं। पर जब मैंने अपनी सीनियर सेकेंडरी की पढ़ाई के लिए कॉ एड स्कूल में दाखिला लिया, तो मुझे बिल्कुल अंदेशा नहीं था जिनको मैं अभी तक एलियन समझ रहा था वो ही मुझे काफ़ी कुछ सिखाएंगी। बॉयज़ स्कूल से कॉ एड स्कूल आने वाले लड़कों का स्कूल में एडजस्ट करना बहुत मुश्किल होता है। एक तो उनका माँ और बहन के अलावा दूसरी लड़कियों के साथ पहली बार इंटरेक्शन करना जान से खेलने जैसा होता है। किशोर अवस्था में लड़कियों को ऑब्जेक्टिफाई न कर पाना भी उनके लिए भी बहुत मुश्किल होता है क्योंकि इसकी समझ उन्हें नहीं दी जाती है। इन सब जद्दोजहद के बीच पढ़ना और भी कठिन सा हो जाता है।

पर मेरे साथ इनमें से कुछ भी नहीं हुआ। मुझे लड़कियों के साथ एडजस्ट करने में बिल्कुल समस्या नहीं आई। मुझे सबके साथ सहजता से बातें करते देख स्कूल में नए आए बच्चों को यही लगता था कि मैं बचपन से ही कॉ एड स्कूल में पढ़ा हूं और ख़ास तौर से इसी स्कूल में जबकि मेरे लिए भी ये नयी जगह थी। स्कूल में मेरी एक साथी थी, जिसके साथ मैंने अपनी बारवीं की अधिकतर पढ़ाई की। इसका कारण उसका रोल नंबर मेरे तुरंत बाद होना भी हो सकता है। वो हमेशा मेरे साथ सहजता से पढ़ाई करती थी और मुझसे हमेशा खुल कर बातें करती। पर बारवीं ख़त्म होते-होते मुझे पता चला कि उसके परिवार वाले बहुत सख्त हैं। उनका उसका किसी भी लड़के के साथ बात करना पसंद नहीं था। ये जान कर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ क्योंकि वो स्कूल में मेरे साथ इससे बिल्कुल उलट थी।
मेरा व्यवहार कब और कैसे ऐसा हुआ मुझे नहीं पता पर इन सब के लिए मैं अपनी मम्मी को श्रेय तो देता हूं। पर मेरे इस व्यवहार को और निखारने का काम मेरी बहुत नजदीकी महिला मित्र ने किया। मेरी मुलाकात उनसे सीनियर सेकेंडरी की पढ़ाई के लिए कॉ एड स्कूल में में हुई थी।
मुझे याद है जब मैंने नए कॉ एड स्कूल में दाखिला लिया था तब कुछ ऐसा हुआ कि एक दो लोगों के बैठने वाले बेंच पर मैं और एक लड़की बैठे थे। हमारी टीचर ने उस लड़की को उसी बेंच पर बैठने को कहा। अगर वो बैठती तो मैं दो लड़कियों के बीच में हो जाता, इसलिए उसने मुझे बाहर कर खुद अंदर बैठी। उस समय तो मुझे उसका ऐसा करना बहुत अटपटा सा लगा पर जब मैंने लड़कियों को जाना और उसके परिवार वाली बात पता चली तब उसके ऐसा करने का मतलब समझ आया। स्नातक की पढ़ाई के समय हम पांच छह लोगों के ग्रुप में मैं इकलौता लड़का था। हम लोग साथ क्लासेज बंक करते और घूमने जाते। इसके चलते ही मेरी क्लास में बच्चे मुझे कृष्णा बोलते थे। यह मुझे काफ़ी बार अटपटा लगता। सिर्फ इसलिए नहीं कि उन्होंने मुझे कुछ बोला पर इसलिए भी कि इससे मेरी महिला मित्रों को बुरा न लगे।
मेरी माँ और मेरी महिला मित्र का श्रेय
मेरा व्यवहार कब और कैसे ऐसा हुआ मुझे नहीं पता पर इन सब के लिए मैं अपनी मम्मी को श्रेय तो देता हूं। पर मेरे इस व्यवहार को और निखारने का काम मेरी बहुत नजदीकी महिला मित्र ने किया। मेरी मुलाकात उनसे सीनियर सेकेंडरी की पढ़ाई के लिए कॉ एड स्कूल में में हुई थी। उन्होंने ही मुझे सही मायनों में लड़कियों को समझने में मदद की। मैं पहले लड़कियों के साथ नादानी में कई बार ऐसा व्यवहार करता था जो अनुचित था। समाज और परिवार की कंडीशनिंग के चलते लड़कियों को समाज की सो कॉल्ड परिभाषा के हिसाब से ‘आज्ञाकारी’ और ‘सुशील’ होना चाहिए।

अगर कोई लड़का उनके जैसा व्यवहार करे, तो समाज और परिवार को ये उचित नहीं लगता। मैं स्कूली दिनों में इन सब बातों से अंजान था। पर मेरे इस मित्र से मुलाक़ात के बाद मैंने इन बातों को समझा। फिर मेरे लिए समानता के मायने बहुत बदल गए। हमेशा सबके साथ समान व्यवहार करना समानता नहीं है। सब के साथ उनकी ज़रूरत के आधार पर भी व्यवहार करना है समानता है। लड़कियां लड़कों की तरह किसी एक क़िरदार में नहीं रहती हैं। उन्हें कई बार घर में बिना तनख्वाह के कामकाजी महिला, समाज में एक सुशील महिला और स्कूल या दफ़्तर में पुरुषों की बनाई दुनिया में ख़ुद को साबित करने वाली आधुनिक महिला का क़िरदार निभाना होता है। इन क़िरदारों में हक़ीक़त में ‘वो कौन थीं’ वो ख़ुद भूल जाती हैं।
मैं ये बिल्कुल नहीं कह रहा कि मैंने लड़कियों के लिए कुछ अनोखा किया है, बल्कि उन्होंने मेरे लिए जीवन को बहुत आसान बनाया है। मैंने सबसे ज़्यादा किसी से सीखा है तो वो महिलाएं ही हैं। बचपन में मम्मी ने सिखाया, थोड़ा बड़ा हुआ तो मेरी उस मित्र ने और बाक़ी महिला साथियों ने।
समानता की समझ और मेरा प्रयास
इसलिए मैं कोशिश करता हूं कि जैसी वो हैं वो वैसी रह सकें। काफ़ी बार लड़कियां समाज के जजमेंट से डरती हैं जिसके चलते वो ख़ुद जो हैं वैसा दिखाने या रहने से डरती हैं। समाज ने हमेशा लड़कियों को एक ढाँचे में ढालने की कोशिश की है। घर हो या कोई भी जगह उनको समाज के बेमतलब के खांचों में ही फिट होना पड़ता है। अगर इससे कोई अलग करे तो न जाने क्या-क्या झेलना पड़ता है। शायद इसलिए मैं बिना जजमेंटल हुए उन्हें उनकी सच्चाई जीने देने की कोशिश करता हूं। मैं कोशिश करता हूं कि वो मेरे साथ अपनी ज़िन्दगी के उन पलों को जी सकें जो उनके ख़ुद के हैं।

समाज की पितृसत्तात्मक बेड़ियां और अनगिनत शर्तें लड़कियों को उनकी ज़िन्दगी जीने नहीं देती हैं। मैंने जहां और जब भी संभव हुआ, अपने महिला मित्रों और जानने वालों को इन पितृसत्तामक बेड़ियों को तोड़ने के लिए प्रोत्साहित किया है। मैं जब अपने महिला साथियों को अपने शर्तों पर कुछ भी करते देखता हूं, तो मुझे बहुत खुशी होती है। इसी खुशी के लिए मैं भी हर बार समाज के बनाए इन खांचों को कुछ-कुछ तोड़ने की कोशिश करता हूं। मैं ये बिल्कुल नहीं कह रहा कि मैंने लड़कियों के लिए कुछ अनोखा किया है, बल्कि उन्होंने मेरे लिए जीवन को बहुत आसान बनाया है। मैंने सबसे ज़्यादा किसी से सीखा है तो वो महिलाएं ही हैं। बचपन में मम्मी ने सिखाया, थोड़ा बड़ा हुआ तो मेरी उस मित्र ने और बाक़ी महिला साथियों ने।
अगर मेरी शुरुआती ज़िन्दगी में लड़कियों से इंटरेक्शन नहीं होता तो शायद मैं भी आजीवन पितृसत्तात्मक समाज के खांचों में फिट बैठने का भरसक प्रयास करता रहता। मुझे जितना भी कुछ उन्होंने सिखाया उसके कारण ही मैं लड़कियों के साथ और वो मेरे साथ सहज होती हैं। अगर मेरी वह मित्र या स्कूल की महिला मित्रों ने मुझे सहज होना नहीं सिखाया होता तो शायद कभी भी मेरी महिला साथी मेरे आस-पास सहज नहीं रह पातीं। मेरा फ़ेमिनिस्ट जॉय उनसे कुछ सीखना ही है, चाहे वो ख़ुदको अभिव्यक्त करना हो या फिर दूसरों के साथ कैसे व्यवहार करना हो।

