“इसके पैर तो घर पर टिकते ही नहीं हैं। पता नहीं कितना घूमती रहती है! और उसके मम्मी-पापा उसे कैसे अकेले या दोस्तों के साथ बाहर भेज देते हैं? ऊपर से उम्र भी बढ़ रही है लेकिन पढ़ाई खत्म ही नहीं हो रही, न जाने और कितना पढ़ना बाकी है!” ऐसी बातें मुझे साल में दो-तीन बार तो ज़रूर सुनने को मिल ही जाती हैं। कभी रिश्तेदारों से, कभी पड़ोसियों से, और कई बार तो अजनबियों से भी। हमारे समाज में अक्सर यह कहा जाता है कि “लड़कियों का काम है घर संभालना, ज़्यादा घूमने से उनकी आदतें बिगड़ जाती हैं।” ये लाइनें बड़ी सहजता से बोली जाती हैं, लेकिन इनका असर गहरा होता है। मेरे लिए घूमना और पढ़ना सिर्फ़ शौक़ नहीं हैं, बल्कि मेरी पहचान का हिस्सा हैं। यही वो रास्ते हैं जिनसे मैंने न सिर्फ़ दुनिया को देखा बल्कि खुद को भी बेहतर तरीके से जाना। जब कोई मुझसे कहता है, “इतना क्यों घूमती हो?” या “अभी तक पढ़ाई कर रही हो?” तो मुझे गुस्सा या हंसी नहीं आती बल्कि मुझे याद आ जाता है वो हर पल, जब मैंने इन दोनों चीज़ों को अपनी ज़िंदगी का अहम हिस्सा बनाने के लिए जिद की थी।
हालांकि इस सफर की शुरुआत इतनी आसान नहीं थी। क्लास 9 में जब स्कूल से शिमला या मनाली जैसी जगहों पर जाने का मौका मिला, तो पापा ने साफ़ मना कर दिया। मैं चुपचाप सोचती थी कि एक दिन मैं ज़रूर बड़ी होऊंगी, नौकरी करूंगी और तब दुनिया देखूंगी। मेरे पूरे परिवार और गाँव में सिर्फ़ मैं और मेरी बड़ी बहन ही कॉलेज तक पढ़ पाए। ज़्यादातर लोगों को आगे पढ़ने का कभी मौका ही नहीं मिला। गाँव में उस समय यह सोच आम थी कि आठवीं तक पढ़ाई काफ़ी है। उसके बाद लड़कियों से कहा जाता था कि अब घर का काम सीखो, क्योंकि शादी के बाद वही काम करना होगा। मैं अपने परिवार की पहली लड़की थी जिसे दिल्ली यूनिवर्सिटी में दाख़िला मिला। इससे पहले हमारे परिवार से किसी को भी वहाँ पढ़ने का अवसर नहीं मिला था। मेरे लिए दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ना सच में एक बहुत बड़ी बात थी। शायद लोगों ने इसे और बड़ा बना दिया था, क्योंकि वे लगातार इस पर बात करते रहते थे।
“इसके पैर तो घर पर टिकते ही नहीं हैं। पता नहीं कितना घूमती रहती है! और उसके मम्मी-पापा उसे कैसे अकेले या दोस्तों के साथ बाहर भेज देते हैं? ऊपर से उम्र भी बढ़ रही है लेकिन पढ़ाई खत्म ही नहीं हो रही, न जाने और कितना पढ़ना बाकी है!” ऐसी बातें मुझे साल में दो-तीन बार तो ज़रूर सुनने को मिल ही जाती हैं।
कॉलेज में दाखिला और घूमने-फिरने का मौका

मुझे याद है, कॉलेज में एडमिशन मिलते ही हमारे रिश्तेदारों के फोन आने लगे। वे बार-बार यही पूछते कि मैं आख़िर पढ़ क्या रही हूं। उस समय हर किसी के लिए यह सिर्फ़ मेरी पढ़ाई नहीं थी, बल्कि पूरे परिवार और गाँव के लिए एक चर्चा का विषय बन गया था। मुझे इन सब चीज़ों को सुनने का ज़्यादा मौका ही नहीं मिला था। एक बार मैंने सिर्फ़ एक शब्द सुना ‘मैनिफ़ेस्टेशन’। उस समय उसका सही मतलब तो समझ नहीं आया, लेकिन मैंने इसे अपने कॉलेज के दिनों से ही इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था। कॉलेज के दौरान मैंने सिर्फ़ क्लासेज़ ही अटेंड नहीं कीं, बल्कि पढ़ाई के साथ-साथ हर अनुभव को जीने की कोशिश की। जब भी अवसर मिला, मैंने अपने दोस्तों को, जो अलग-अलग राज्यों से आए थे, दिल्ली घूमने ले गई क्योंकि सच कहूं तो घूमना-फिरना मेरी नस-नस में बसता था। यही मेरा शौक़ भी था और सुकून भी।
शहरों की ओर नौकरी के साथ मेरी असली यात्रा
कॉलेज खत्म होते ही मैंने नौकरी शुरू कर दी। मैं अपने परिवार की पहली महिला थी जो ऑफिस जाकर काम करती थी। यह उस दौर की बात है, जब कोविड के बाद ज़िंदगी धीरे-धीरे पटरी पर लौट रही थी। मुझे याद है कि जब अम्मी ने मुझसे कहा था कि नौकरी की बात किसी को मत बताना। मैंने हैरानी से पूछा कि क्यों? उनका जवाब बस इतना था कि नहीं बताना है। उस पल मैंने महसूस किया कि एक लड़की के काम करने को लेकर समाज और परिवार में कितनी झिझक और डर है। मेरी पहली नौकरी डेवलपमेंट सेक्टर में थी। इसका सबसे बड़ा कारण यही था कि मुझे नए-नए लोगों से मिलना, उनकी ज़िंदगी को समझना और अलग-अलग जगहों की कहानियां जानना बहुत पसंद था। इस काम ने मुझे सिर्फ एक पहचान ही नहीं दी, बल्कि मेरे घूमने और नई जगहें देखने के सपने को भी सच कर दिया। दिल्ली जैसे बड़े शहरों के अलावा मुझे चंडीगढ़, बेंगलुरु और बिजनौर जैसे शहरों में भी काम के सिलसिले में जाने का मौका मिला।
मुझे समझ आया कि मेरा असली फेमिनिस्ट जॉय घूमना और पढ़ना ही है। काम करते हुए और नई जगहों की ओर बढ़ते हुए, धीरे-धीरे यह एहसास पक्का होता गया कि मुझे सबसे ज़्यादा खुशी इन्हीं अनुभवों से मिलती है। यह बात तब और साफ़ हो गई जब मैंने अपनी एक दोस्त के साथ जयपुर की यात्रा की।
यही वो समय था जब मोहल्ले की महिलाएं कानों में फुसफुसाकर कहती थीं कि इनकी लड़की तो कई-कई दिन तक घर नहीं आती। मुझे आज भी वो दिन याद है जब मुझे पहली बार ऑफिस के काम से बेंगलुरु जाना था। पूरी रात नींद नहीं आई। मन में बस यही ख्याल चलता रहा कि अगली सुबह मैं ज़िंदगी में पहली बार हवाई जहाज़ में बैठूंगी। मैं अक्सर छत पर खड़े होकर आसमान में उड़ते जहाज़ों को देखा करती थी। तब मन में यही सोच आती थी कि कितने खुशकिस्मत होंगे वो लोग जो इसमें बैठे हैं! उस दिन लगा जैसे मैं भी उन्हीं खुशकिस्मत लोगों में शामिल होने जा रही हूं। वो दिन मेरे लिए वैसे ही बहुत ख़ास था। लेकिन और भी यादगार तब बन गया, जब मैंने पहली बार हवाई जहाज़ से अपनी एक सेल्फ़ी पापा को भेजी। पापा ने वह तस्वीर बड़े गर्व से पूरे गाँव को दिखाई और कहा कि देखो, मेरी बेटी हवाई जहाज़ में बैठी है। मुझे तब अंदाज़ा भी नहीं था कि उस एक छोटे से पल में मैं सिर्फ़ अपनी नहीं, बल्कि पापा की भी कोई अधूरी ख्वाहिश पूरी कर रही थी।
क्यों महिलाओं की आज़ादी किस्मत कही जाती है

मुझे समझ आया कि मेरा असली फेमिनिस्ट जॉय घूमना और पढ़ना ही है। काम करते हुए और नई जगहों की ओर बढ़ते हुए, धीरे-धीरे यह एहसास पक्का होता गया कि मुझे सबसे ज़्यादा खुशी इन्हीं अनुभवों से मिलती है। यह बात तब और साफ़ हो गई जब मैंने अपनी एक दोस्त के साथ जयपुर की यात्रा की। हम दोनों उस शहर में नए थे। लेकिन वहां की गलियों में घूमते हुए, अनजान लोगों से बात करते हुए, ऐसा लगा जैसे हमने खुद को और गहराई से जाना हो। उसी सफ़र के दौरान मैंने पहली बार गहराई से समझा कि समाज ने औरतों की आज़ादी को कितना सीमित कर दिया है। वो आज़ादी जिसमें एक लड़की सिर्फ़ अपने लिए कुछ करना चाहती है, पढ़ना, अकेले सफ़र करना, या बस अपने मन की करना। लेकिन इन छोटी-छोटी चीज़ों को आज भी किस्मत कहा जाता है। मुझे आज भी याद है, मेरी कई दोस्त मुझसे कहती थीं कि मैं कितनी किस्मत वाली हूं। उसे कोई रोक-टोक नहीं है। जहां मन करे घूम आती है। पढ़ाई भी कर रही है, नौकरी भी कर ली थी।
ऐसे शब्द सुनकर कुछ पल के लिए अच्छा लगता है। लेकिन हर बार दिल में एक सवाल उठता है कि क्यों नहीं? हर लड़की को ये ‘किस्मत’ क्यों नहीं मिलती? क्यों आज़ादी अब भी इतनी बड़ी मांग लगती है? मेरा हमेशा से सपना रहा है कि मैं जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करूं। इस ख्वाहिश को पूरा करने के लिए मैंने दो बार एंट्रेंस एग्ज़ाम दिया, लेकिन हर बार नाकामी हाथ लगी। उस समय ऐसा लगा जैसे शायद यह सपना कभी पूरा नहीं हो पाएगा। इन सालों में मैंने नौकरी की, अलग-अलग शहरों में रही और बहुत कुछ सीखा। लेकिन जब ग्रेजुएशन को दो साल हो गए, तो मन में फिर वही सवाल उठा – क्या एक बार और कोशिश नहीं करनी चाहिए? मैंने दोबारा एग्ज़ाम दिया। इस बार मेरी मेहनत रंग लाई और आखिरकार मुझे जामिया में एडमिशन मिल गया। हालांकि यह सफ़र बिल्कुल आसान नहीं था। इसमें संघर्ष, धैर्य और कई बार खुद पर शक करने वाले पल भी शामिल थे। लेकिन आज पीछे मुड़कर देखती हूं तो लगता है कि हर नाकामी, हर रुकावट ने मुझे और मज़बूत बनाया और मेरे सपने तक पहुंचने का रास्ता तैयार किया।
मेरा हमेशा से सपना रहा है कि मैं जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करूं। इस ख्वाहिश को पूरा करने के लिए मैंने दो बार एंट्रेंस एग्ज़ाम दिया, लेकिन हर बार नाकामी हाथ लगी। उस समय ऐसा लगा जैसे शायद यह सपना कभी पूरा नहीं हो पाएगा।
मेरी कहानी सिर्फ़ मेरी नहीं है, बल्कि उन सभी लड़कियों की है जो अपने सपनों को पूरा करने के लिए सवालों, तानों और रुकावटों से लड़ती हैं। पढ़ना और घूमना मेरे लिए सिर्फ़ शौक़ नहीं, बल्कि मेरी आज़ादी, पहचान और फेमिनिस्ट जॉय का हिस्सा है। यही वो खुशी है, जब मैं खुद को सीमाओं से बाहर निकलते हुए, अपने सपनों को जीते हुए देखती हूं। समाज आज भी औरतों की आज़ादी को किस्मत कहता है, जबकि सच यह है कि यह उनका हक़ है। अगर मैं अपनी मेहनत और धैर्य से यहां तक पहुंच सकती हूं, तो कोई भी लड़की अपने सपनों को पूरा कर सकती है। मेरे लिए यह सफ़र सिर्फ़ मंज़िल तक पहुंचने का नहीं है, बल्कि खुद को जानने, अपनी शर्तों पर जीने और अपने हक़ की आज़ादी को हासिल करने का है और यही मेरा असली फेमिनिस्ट जॉय है।

