इंटरसेक्शनलशरीर गर्भाशय हाइपोप्लेसिया: प्रजनन स्वास्थ्य पर असर डालने वाली स्थिति

गर्भाशय हाइपोप्लेसिया: प्रजनन स्वास्थ्य पर असर डालने वाली स्थिति

गर्भाशय हाइपोप्लेसिया एक जन्मजात समस्या है। लेकिन जन्म के बाद भी हार्मोनल असंतुलन होने के कारण भी यह समस्या उत्पन्न हो सकती है। आमतौर पर इसके बारे में तब पता चलता है, जब किसी लड़की को किशोरावस्था की उम्र पार करने के बाद भी पीरियड शुरू नहीं होते हैं।

गर्भाशय महिलाओं के शरीर का एक महत्वपूर्ण अंग है। यह वही जगह है जहां गर्भ ठहरता है और भ्रूण का विकास होता है। लेकिन कुछ महिलाओं में गर्भाशय जन्म से ही या बाद में पूरी तरह विकसित नहीं होता है। इस स्थिति को गर्भाशय हाइपोप्लेसिया कहा जाता है या कभी-कभी हाइपोप्लास्टिक गर्भाशय भी कहा जाता है। इस स्थिति में गर्भाशय का आकार सामान्य से छोटा होता है। इसका असर महिला की प्रजनन क्षमता, हार्मोनल संतुलन और पिरियड्स पर पड़ सकता है। जिस कारण महिलाओं को पीरियड देर से आते हैं या बिल्कुल ही नहीं आते और गर्भ धारण करना मुश्किल हो जाता है।

यह स्थिति केवल शारीरिक स्वास्थ्य को प्रभावित नहीं करती, बल्कि मानसिक और सामाजिक स्तर पर भी चुनौतियां खड़ी कर सकती है। खासकर हमारे पितृसत्तात्मक समाज में जहां मातृत्व को अक्सर महिलाओं की पहचान से जोड़ा जाता है। वहां इस समस्या के कारण महिलाओं को सामाजिक भेदभाव का सामना करना पड़ सकता है। लेकिन इस समस्या का समय पर उपचार कराया जाए तो इस से जुड़े हुए जोखिम काफी हद तक कम किए जा सकते हैं। 

गर्भाशय महिलाओं के शरीर का एक महत्वपूर्ण अंग है। यह वही जगह है जहां गर्भ ठहरता है और भ्रूण का विकास होता है। लेकिन कुछ महिलाओं में गर्भाशय जन्म से ही या बाद में पूरी तरह विकसित नहीं होता है। इस स्थिति को गर्भाशय हाइपोप्लेसिया कहा जाता है

क्या है गर्भाशय हाइपोप्लेसिया?

नैशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन (एनएलएम ) के मुताबिक, गर्भाशय हाइपोप्लेसिया एक जन्मजात समस्या है। लेकिन जन्म के बाद भी हार्मोनल असंतुलन होने के कारण भी यह समस्या उत्पन्न हो सकती है। आमतौर पर इसके बारे में तब पता चलता है, जब किसी लड़की को प्यूबर्टी (किशोरावस्था) की उम्र पार करने के बाद भी पीरियड शुरू नहीं होते हैं। हालांकि इसमें बाहरी कोई लक्षण ऐसे नहीं होते हैं,  जिससे पता चल सके कि किसी को यह स्वास्थ्य समस्या है या नहीं। गौरतलब है कि, इस स्थिति वाली महिलाएं पूरी तरह से स्वस्थ महसूस करती हैं और अपने दैनिक काम आराम से कर पाती हैं। यहां तक कि हाइपोप्लास्टिक गर्भाशय स्वस्थ यौन जीवन में भी कोई बाधा नहीं डालता है। लेकिन इस समस्या के कारण प्राकृतिक तौर पर गर्भधारण करना थोड़ा चुनौतीपूर्ण हो सकता है। 

यानी यह ऐसी स्वास्थ्य समस्या है जो महिला की रोजमर्रा की जिंदगी या यौन जीवन को प्रभावित नहीं करता, लेकिन प्रजनन क्षमता पर असर डाल सकती है।भारत में इनफर्टिलिटी एक ऐसी समस्या है जिसका दोष ज़्यादातर महिलाओं पर ही डाला जाता है। यह सोच महिलाओं के लिए बहुत निराशाजनक बन जाती है। उन्हें शर्म और अकेलेपन का एहसास होता है। गर्भधारण का लगातार दबाव उनके आत्मसम्मान और मानसिक स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा सकता है। जिससे महिलाएं खुद को दोषी मानने लगती हैं, निराश हो जाती हैं और कई बार उन्हें आत्महत्या जैसे खतरनाक विचार भी आ सकते हैं। 

गौरतलब है कि, इस स्थिति वाली महिलाएं पूरी तरह से स्वस्थ महसूस करती हैं और अपने दैनिक काम आराम से कर पाती हैं। यहां तक कि हाइपोप्लास्टिक गर्भाशय स्वस्थ यौन जीवन में भी कोई बाधा नहीं डालता है। लेकिन इस समस्या के कारण प्राकृतिक तौर पर गर्भधारण करना थोड़ा चुनौतीपूर्ण हो सकता है। 

हाइपोप्लेसिया के कारण और इनफर्टिलिटी

नैशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, अगर गर्भाशय का पूरा विकास होने से पहले हाइपरप्रोलैक्टिनीमिया हो जाए, तो यह गर्भाशय के छोटा रह जाने या हाइपोप्लेसिया का कारण बन सकता है। एक ऐसी स्थिति है जिसमें शरीर में प्रोलैक्टिन हार्मोन ज़रूरत से ज़्यादा बनने लगता है। यह हार्मोन आम तौर पर स्तनपान के समय दूध बनने में मदद करता है। जब यह समस्या वयस्क महिलाओं में होती है, तो आमतौर पर एमेनोरिया यानी पीरियड रुक जाना या गैलेक्टोरिया यानी ब्रेस्ट से बिना गर्भ या स्तनपान के दूध निकलना जैसी दिक्कतें दिखती हैं। गर्भाशय का विकास न हो पाने का एक कारण पेरॉल्ट सिंड्रोम जो की एक आनुवंशिक समस्या है यानी माता – पिता से बच्चे में भी यह समस्या हो सकती है। इस कारण भी गर्भाशय छोटा हो सकता है।

एनएलएम के मुताबिक, गर्भाशय हाइपोप्लेसिया वाली महिलाओं में इनफर्टिलिटी का होना आम बात है। इसके कई कारण हो सकते हैं जैसे कि, हार्मोन में बदलाव, जो गर्भाशय के सही काम में रुकावट डालते हैं। गैर-कार्यात्मक एंडोमेट्रियम, यानी गर्भाशय की भीतरी परत ठीक से विकसित नहीं होती, जिससे भ्रूण को टिकने में दिक्कत होती है। ग्रेम जर्नल में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, जन्मजात गर्भाशय संबंधी विसंगतियां यानी जन्म से ही गर्भाशय विकास में समस्या होना भी महिलाओं में इनफर्टिलिटी का एक कारण बन सकती हैं। इसका पता तब चलता है, जब कोई महिला बार-बार अबॉर्शन या गर्भधारण में कठिनाई का सामना करती है। लगभग 3 से 5 फीसदी मामलों में इन समस्याओं का पता 16 साल से ज़्यादा उम्र में चलता है, और इनमें ज़्यादातर लड़कियों में पीरियड न आने की समस्या भी देखी जा सकती है। 

अगर गर्भाशय का पूरा विकास होने से पहले हाइपरप्रोलैक्टिनीमिया हो जाए, तो यह गर्भाशय के छोटा रह जाने या हाइपोप्लेसिया का कारण बन सकता है। एक ऐसी स्थिति है जिसमें शरीर में प्रोलैक्टिन हार्मोन ज़रूरत से ज़्यादा बनने लगता है।

इन समस्याओं का कारण गर्भ में भ्रूण के विकास के दौरान गर्भाशय बनने की प्रक्रिया में कमी होती  है। आमतौर पर गर्भधारण के लगभग छठे हफ्ते में भ्रूण में दो तरह की नलिकाएं बनती हैं, वोल्फियन और मुलरियन जैसे-जैसे भ्रूण का विकास 8 से 12 हफ्तों के बीच आगे बढ़ता है, ये मुलरियन नलिकाएं मिलकर फैलोपियन ट्यूब, गर्भाशय, गर्भाशय ग्रीवा और योनि के ऊपरी हिस्से का निर्माण करती हैं। गौरतलब है कि, अगर इस प्रक्रिया में कोई गलती हो जाए, तो गर्भाशय के आकार गड़बड़ी हो सकती है, जिसे मुलरियन विकृति कहा जाता है और इसकी दर हर एक महिला में अलग – अलग होती है। सामान्य महिलाओं में लगभग 5.5 फीसदी, जो महिलायें माँ नहीं बन सकती हैं उनमें 8 फीसदी, जबकि बार-बार अबॉर्शन का सामना करने वाली महिलाओं में 12.3फीसदी इससे यह साफ तौर पर देखा जा सकता है कि यह समस्या महिलाओं को गर्भधारण और स्वस्थ गर्भावस्था बनाए रखने की क्षमता को प्रभावित करती हैं।

निदान और परीक्षण

टेक्सास चिल्ड्रन्स में छपे एक लेख के मुताबिक, निदान की शुरुआत पूरे चिकित्सा इतिहास और शारीरिक परीक्षण से होती है, जिसमें पैल्विक परीक्षा भी शामिल है। इसके अलावा खून की जांच भी की जाती है। यह मेयर-रोकिटांस्की-कुस्टर-हाउसर (एमआरकेएच ) सिंड्रोम जैसी स्थिति की जांच के लिए किया जाता है। इसमें गर्भाशय और योनि जन्म से अनुपस्थित या अधूरी हो सकती हैं, और अन्य असामान्यताएं भी पता चल सकती हैं। प्रजनन अंगों (गर्भाशय, अंडाशय आदि) की तस्वीरें देखने के लिए अल्ट्रासाउंड किया जाता है। साथ ही प्रजनन अंगों और उनकी संरचना की साफ तस्वीरें देखने के लिए एमआरआई भी किया जाता है। पीरियड मामले में, मरीजों को अक्सर खून का बहाव कम होने की समस्या होती है। कभी-कभी यह इतनी गंभीर हो जाती है कि पीरियड बिल्कुल बंद हो जाता है।

खून की जांच भी की जाती है। यह मेयर-रोकिटांस्की-कुस्टर-हाउसर सिंड्रोम जैसी स्थिति की जांच के लिए किया जाता है। इसमें गर्भाशय और योनि जन्म से अनुपस्थित या अधूरी हो सकती हैं, और अन्य असामान्यताएं भी पता चल सकती हैं। प्रजनन अंगों की तस्वीरें देखने के लिए अल्ट्रासाउंड किया जाता है।

नैशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन के एक अध्ययन में 24 महिलाओं को शामिल किया गया जिनका एचएसजी जांच से हाइपोप्लास्टिक गर्भाशय का निदान हुआ था। इनमें से 15 महिलाएं ऐसी थीं जिन्हें गर्भ में डाईइथाइलस्टिलबेस्‍ट्रोल (डीईएस )नाम की दवा दी गई थी। लेकिन बाद में इसके दुष्प्रभाव सामने आए। इन 15 महिलाओं में से एक महिला को पहले एक सफल गर्भावस्था हुई थी, लेकिन बाद में वो दोबारा गर्भधारण नहीं कर पाई। बाकी 14 महिलाओं को कुल 32 बार गर्भधारण हुआ, लेकिन उनमें से एक भी जीवित बच्चा पैदा नहीं हुआ। बाकी 9 महिलाओं को प्राथमिक इनफर्टिलिटी थी, यानी वे कभी गर्भवती नहीं हुईं।

 एनएलएम की रिपोर्ट के मुताबिक, जेफकोट और लेरर के अनुसार, हाइपोप्लास्टिक गर्भाशय की पहचान करने का सबसे अच्छा तरीका उसका आकार मापना है। पहले के पुराने तरीके दो अंगुलों से मापना और हिस्टेरोमीटर से गर्भाशय गुहा की लंबाई मापना अब प्रचलन में नहीं है। इन गर्भाशय संबंधी विसंगतियों के निदान के लिए एचएसजी का अक्सर उपयोग किया जाता रहा है, फिर भी इसके लिए कोई सर्वमान्य मानदंड नहीं हैं।

जेफकोट और लेरर के अनुसार, हाइपोप्लास्टिक गर्भाशय की पहचान करने का सबसे अच्छा तरीका उसका आकार मापना है। पहले के पुराने तरीके दो अंगुलों से मापना और हिस्टेरोमीटर से गर्भाशय गुहा की लंबाई मापना अब प्रचलन में नहीं है।

इलाज या उपचार कैसे हो सकता है ?

एनएलएम की रिपोर्ट के मुताबिक, ‘हाइपोप्लास्टिक’ या ‘शिशु गर्भाशय’ वाले रोगियों के लिए कई तरह के उपचार उपलब्ध हैं। सही उपचार चुनने के लिए यह जानना जरूरी है कि गर्भाशय की समस्या किस प्रकार की है। इसके लिए मरीज का पूरी तरह से मूल्यांकन करना जरूरी होता है, जिसमें हार्मोन के स्तर की जांच भी शामिल होती है। साल 1934 के दशक में क्लॉबर्ग ने रेडियोलॉजिकल जांच के दौरान यह दिखाया कि एस्ट्रोजन देने से गर्भाशय का आकार बढ़ सकता है, हालांकि यह प्रभाव अस्थायी था। बाद में लार्डारो ने 30 हाइपोप्लास्टिक गर्भाशय वाले रोगियों को 14 हफ्तों तक इंट्रामस्क्युलर स्टिलबेस्ट्रोल या एक सिंथेटिक एस्ट्रोजन दिया। लेकिन उससे भी केवल 5 रोगियों में ही गर्भाशय का आकार बढ़ा, और ज्यादातर मामलों में यह वृद्धि अस्थायी रही। यानी एस्ट्रोजन थेरेपी केवल उन्हीं मामलों में फायदेमंद होती है जहां गर्भाशय का विकास एस्ट्रोजन की कमी के कारण रुक गया हो।

डे ला पुएंते लानफ्रेंको ने 66 हाइपोप्लास्टिक गर्भाशय वाले महिलाओं का अध्ययन किया। जिसमें महिलाओं को 2-3 बार पीरियड साइकिल के दौरान 10 मिलीग्राम एस्ट्राडियोल बेंजोएट के 10 इंजेक्शन दिए गए। इसके परिणाम काफी अच्छे रहे। इनमें से 28.7 फीसदी महिलाएं गर्भवती हुईं, जबकि 27.3 फीसदी महिलाओं के गर्भाशय का आकार सामान्य हुआ, 19.6 फीसदी महिलाओं में आंशिक सुधार हुआ वहीं 24.4 फीसदी मामलों में उपचार असफल रहा। लेखकों ने निष्कर्ष निकाला कि एस्ट्रोजन थेरेपी हाइपोप्लास्टिक गर्भाशय के उपचार में प्रभावी है, खासकर प्राथमिक इंफर्टिलिटी और हल्के हाइपोप्लास्टिक गर्भाशय और युवा मरीजों में। 

गर्भाशय हाइपोप्लेसिया महिलाओं के प्रजनन स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उनका दैनिक जीवन या यौन जीवन प्रभावित होगा। समय पर निदान और सही उपचार से गर्भाशय का आकार और कार्य बेहतर हो सकता है, और प्रजनन क्षमता बढ़ सकती है। साथ ही, मानसिक और सामाजिक सहयोग भी बहुत  भी जरूरी है, क्योंकि इस स्थिति से महिलाओं को मानसिक दबाव और सामाजिक भेदभाव का सामना करना पड़ सकता है। जागरूकता और सही चिकित्सा मदद से महिलाएं अपने स्वास्थ्य और आत्मसम्मान को बनाए रख सकती हैं और अपनी ज़िंदगी बिना किसी दबाव के जी सकती हैं। 

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