संस्कृतिकिताबें सुजाता गिडला की ‘एंट्स अमंग एलिफ़ेंट्स’: जाति, जेंडर और असमानता की गवाही देती किताब

सुजाता गिडला की ‘एंट्स अमंग एलिफ़ेंट्स’: जाति, जेंडर और असमानता की गवाही देती किताब

गिडला ने यह साबित किया कि न्याय और बराबरी तब तक अधूरी है जब तक हर हाशिए की औरत की कहानी न सुनी जाए। किताब पाठक को जोड़ती है, सोचने पर मजबूर करती है और समाज में बदलाव की आवश्यकता महसूस कराती है। किताब हमें याद दिलाती है कि बराबरी की लड़ाई केवल कानूनों या कागज़ी अधिकारों तक सीमित नहीं रह सकती, बल्कि ज़मीनी हक़ीक़त में दिखनी चाहिए।

भारत में लोकतंत्र का सपना बराबरी और स्वतंत्रता पर टिका है। हमारी संविधानिक व्यवस्थाएं हर नागरिक को समान अधिकार देने का दावा करती हैं। लेकिन वास्तविक जीवन में, जाति और पितृसत्ता जैसी पुरानी जडें आज भी हमारे समाज के हर पहलू को प्रभावित करती हैं। दलित होना, यानी सामाजिक ढांचे में सबसे निचले स्तर पर होना, पहले ही कठिन है। लेकिन दलित औरत होना इस चुनौती को और दोगुना कर देता है। एंट्स अमंग एलिफ़ेंट्स सुजाता गिडला की लिखी एक महतवपूर्ण किताब है, जो भारतीय समाज में दलित औरतों के संघर्ष और हाशिए पर जीने के अनुभव को सामने लाती है। किताब का शीर्षक ही संकेत देता है कि समाज में दलित लोग, खासकर महिलाएं, शक्तिशाली जातियों और वर्गों के बीच हमेशा दबाव और खतरे में रहते हैं। सुजाता गिडला का जन्म 1963 में आंध्र प्रदेश के खम्मम ज़िले में एक दलित ईसाई परिवार में हुआ। उनका परिवार शिक्षित था, और उन्होंने स्वयं आईआईटी मद्रास से पढ़ाई की।

लेकिन पढ़ाई और शिक्षा के बावजूद जातिवाद और सामाजिक भेदभाव उनके जीवन का हिस्सा बने रहे। गिडला ने अपने बचपन में यह अनुभव किया कि स्कूल में दलित बच्चों को अलग बैठाया जाता था, उन्हें अक्सर अपमानित किया जाता था और सार्वजनिक स्थानों पर उन्हें अलग तरह से व्यवहार किया जाता था। यह अनुभव उनके लिए केवल व्यक्तिगत दर्द नहीं था, बल्कि उन्होंने इसे समाज में जड़ जमाए जातिवाद और पितृसत्ता की संरचनाओं के रूप में देखा। बाद में अमेरिका जाकर न्यूयॉर्क मेट्रो में कंडक्टर के रूप में काम करने के दौरान उन्होंने मजदूर वर्ग के संघर्ष को करीब से देखा। यह अनुभव उनके परिवार की कहानियों और सामाजिक अनुभवों के साथ जुड़कर किताब में जीवंत रूप में सामने आता है।

एंट्स अमंग एलिफ़ेंट्स सुजाता गिडला की लिखी एक महतवपूर्ण किताब है, जो भारतीय समाज में दलित औरतों के संघर्ष और हाशिए पर जीने के अनुभव को सामने लाती है। किताब का शीर्षक ही संकेत देता है कि समाज में दलित लोग, खासकर महिलाएं, शक्तिशाली जातियों और वर्गों के बीच हमेशा दबाव और खतरे में रहते हैं।

किताब में गिडला अपने परिवार की कहानियों के माध्यम से यह दिखाती हैं कि जातिवाद सिर्फ पुरानी परंपरा नहीं है, बल्कि आज भी हमारी ज़िंदगी के हर स्तर को प्रभावित करता है। उनके पिता, जो शिक्षित थे और सरकारी नौकरी में थे, ऊंची जातियों के दबाव और अपमान का सामना करते हैं। उनके परिवार की महिलाएं घर में पितृसत्ता के दबाव में रहती हैं, समाज में कथित ऊंची जातियों के हिंसा का सामना करती हैं और जब नारीवाद की बात आती है, तब उनकी आवाज़ अक्सर अनसुनी रह जाती है। उनकी माँ एक साहसी और मजबूत महिला थीं, जिन्होंने अपने परिवार और समुदाय के लिए लगातार संघर्ष किया। उनका जीवन यह दिखाता है कि दलित औरत का संघर्ष सिर्फ पुरुषों से बराबरी पाने की लड़ाई नहीं है, बल्कि जाति और पितृसत्ता दोनों के खिलाफ लड़ाई है। दलित औरतें अक्सर तीन तरह की जंजीरों में जकड़ी रहती हैं। घर के भीतर पितृसत्ता, समाज में ऊंची जातियों से हिंसा और अपमान, और नारीवाद में उनकी आवाज़ नजरअंदाज हो जाना। जाति केवल इतिहास की बात नहीं बल्कि वर्तमान भी इसमें जकड़ा हुआ है आज भी जाति तय करती है कि कौन किस स्कूल में पढ़ेगा, किसे नौकरी मिलेगी, और कौन रोज़ अपमान सहता रहेगा।

दलित और आदिवासी औरतों का अनुभव और सामाजिक असमानताएं

यह किताब न केवल दलित और आदिवासी औरतों के अनुभवों को सामने लाती है, बल्कि यह दिखाती है कि समाज में असमानता कितनी जटिल और बहुआयामी है। गिडला बताती हैं कि उनके चाचा नक्सलवादी आंदोलनों में शामिल रहे और उनकी माँ स्थानीय सामाजिक आंदोलनों में महिलाओं की शिक्षा और अधिकारों के लिए लगातार काम करती रही। यह दिखाता है कि व्यक्तिगत अनुभव सामूहिक संघर्ष से जुड़ा हुआ है। किताब में यह भी बताया गया है कि दलित औरतें अक्सर सबसे कठिन और कम दाम वाले काम करने के लिए मजबूर होती हैं। उन्हें जमीन, संसाधन और राजनीतिक सत्ता से दूर रखा जाता है। किताब के किरदार भी इसका महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। लेखिका की माँ और दादी के संघर्ष, उनके आसपास की औरतों की कहानियां, समाज में दलित महिलाओं की स्थिति को गहराई से दिखाती हैं। उनके पिता और पुरुष रिश्तेदार जातिवाद और समाज के दबावों से जूझते हैं, लेकिन घर में पितृसत्ता को बनाए रखते हैं। यह दिखाता है कि दलित महिलाओं का अनुभव बिल्कुल अलग और विशिष्ट होता है। कथित ऊंची जाति की औरतें पितृसत्ता से लड़ती हैं, लेकिन जातिवाद के दबाव से बची रहती हैं। यही समावेशिता गिडला की किताब की सबसे बड़ी ताक़त है।

दलित औरतें अक्सर तीन तरह की जंजीरों में जकड़ी रहती हैं। घर के भीतर पितृसत्ता, समाज में ऊंची जातियों से हिंसा और अपमान, और नारीवाद में उनकी आवाज़ नजरअंदाज हो जाना। जाति केवल इतिहास की बात नहीं बल्कि वर्तमान भी इसमें जकड़ा हुआ है आज भी जाति तय करती है कि कौन किस स्कूल में पढ़ेगा, किसे नौकरी मिलेगी, और कौन रोज़ अपमान सहता रहेगा।

जाति व्यवस्था और सामाजिक विघटन

गिडला की लेखनी सरल, स्पष्ट और निडर है। उन्होंने कहीं भी दिखावा या अलंकरण नहीं किया। उनकी शैली डॉक्यूमेंट्री जैसी है, जहां हर अनुभव अपने आप में गवाही देता है। स्कूल में अलग बैठाए जाने, सार्वजनिक स्थानों पर अपमान, खेतों और घर में काम करने वाली औरतों की कठिनाइयां। ये सभी उदाहरण पाठक को यह समझाते हैं कि जातिवाद और पितृसत्ता की जड़ें कितनी गहरी हैं। उनकी किताब दलित नारीवाद का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है। किताब में हिंसा का चित्र बहुत ही स्पष्ट और असरदार ढंग से पेश किया गया है। इसे पढ़ते समय डॉ. भीमराव अंबेडकर की बात कि भारत में कोई एक जाति नहीं है, बल्कि कई जातियां हैं सच में महसूस होती है। अंबेडकर का कहना था कि भारत की वास्तविकता न तो भाईचारे और मेल-जोल से भरी है और न ही साम्प्रदायिक सद्भाव से। असलियत यह है कि जातियां ही समाज की मुख्य वास्तविकता हैं। यही वह हकीकत है जो लोगों को वर्ग में बांट देती है और उन्हें एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर देती है। इस वजह से लोग हिंसा के खिलाफ़ एक साथ नहीं लड़ पाते और समाज में पितृसत्ता और जातिवाद जैसी प्रथाएं कायम रहती हैं। उन्मेष की एक पंक्ति याद आती है कि “जाति है कि जाती नहीं।”

किताब यह भी स्पष्ट करती है कि भारतीय नारीवाद अक्सर ऊंची जातियों और पढ़ी-लिखी महिलाओं तक सीमित रहा है। मुख्यधारा नारीवाद में दलित और आदिवासी महिलाओं की कहानियों को जगह नहीं मिली। गिडला इसे चुनौती देती हैं और दिखाती हैं कि असली नारीवाद तभी संभव है जब जाति और वर्ग के शोषण की कहानियां भी उसमें शामिल हों। उदाहरण के लिए, किताब में लेखिका की माँ और उनके आसपास की महिलाओं के संघर्ष यह दिखाते हैं कि दलित औरतों की आवाज़ न सुनी जाए तो बराबरी का सपना अधूरा रहेगा। किताब में दिए गए अनुभव यह भी बताते हैं कि जातिवाद और पितृसत्ता सिर्फ सामाजिक मुद्दे नहीं हैं, बल्कि राजनीतिक और आर्थिक संरचना से जुड़े हैं। दलित औरतें सबसे कठिन काम करती हैं, कम वेतन पाती हैं, और उनके पास संसाधनों तक पहुंच नहीं है। यह दिखाता है कि बराबरी की लड़ाई केवल कागज़ी अधिकारों या कानूनों तक सीमित नहीं रह सकती। वास्तविक लोकतंत्र तब संभव है जब हर वर्ग और जाति की औरतों को सम्मान और अवसर मिले।

लेखिका की माँ और दादी के संघर्ष, उनके आसपास की औरतों की कहानियां, समाज में दलित महिलाओं की स्थिति को गहराई से दिखाती हैं। उनके पिता और पुरुष रिश्तेदार जातिवाद और समाज के दबावों से जूझते हैं, लेकिन घर में पितृसत्ता को बनाए रखते हैं।

आज भी एंट्स अमंग एलिफ़ेंट्स की प्रासंगिकता उतनी ही है जितनी लिखी गई थी। हाथरस, उन्नाव जैसी घटनाएं याद दिलाती हैं कि दलित महिलाएं लगातार हिंसा और उत्पीड़न का सामना करती हैं। गिडला हमें यह समझाती हैं कि लोकतंत्र केवल संविधान की किताब तक सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि ज़मीनी हक़ीक़त में दिखना चाहिए। दलित औरत की कहानियां केवल व्यक्तिगत नहीं हैं; वे सामूहिक राजनीतिक संघर्ष का हिस्सा हैं। किताब पढ़ते समय यह स्पष्ट होता है कि हर दलित महिला का अनुभव अलग और अनोखा होता है। कथित ऊंची जाति की औरतें पितृसत्ता के खिलाफ संघर्ष कर रही होती हैं, लेकिन जाति के शोषण से बची रहती हैं। दलित पुरुष जातिवाद से पीड़ित हैं, लेकिन घर में पितृसत्ता बनाए रखते हैं। दलित औरतें दोनों- जाति और लिंग के दबाव में होती हैं। किताब केवल एक साहित्यिक कृति नहीं है, बल्कि यह भारतीय समाज की असमानताओं की सच्चाई को सामने लाने वाला दस्तावेज़ है।

उन्होंने यह साबित किया कि न्याय और बराबरी तब तक अधूरी है जब तक हर हाशिए की औरत की कहानी न सुनी जाए। किताब पाठक को जोड़ती है, सोचने पर मजबूर करती है और समाज में बदलाव की आवश्यकता महसूस कराती है। किताब हमें याद दिलाती है कि बराबरी की लड़ाई केवल कानूनों या कागज़ी अधिकारों तक सीमित नहीं रह सकती, बल्कि ज़मीनी हक़ीक़त में दिखनी चाहिए। एंट्स अमंग एलिफ़ेंट्स हमें दिखाती है कि दलित औरत का संघर्ष क्यों अलग और अनोखा है। वह एक साथ जाति और पितृसत्ता दोनों से जूझती हैं। जब तक दलित औरतों की आवाज़ नारीवाद के केंद्र में नहीं होगी, बराबरी अधूरी रहेगी। यह किताब केवल साहित्यिक समीक्षा नहीं है। यह हमें सोचने, समझने और लड़ने की प्रेरणा देती है। न्याय और बराबरी की लड़ाई तभी जीती जा सकती है जब वह समावेशी हो, और उसमें हर हाशिए की औरत की कहानी शामिल हो।

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