संस्कृतिकिताबें ‘कौन से देस उतरने का’: अपने ही देश में बेघर लोगों की कहानी

‘कौन से देस उतरने का’: अपने ही देश में बेघर लोगों की कहानी

आज जब देश विकास और चमकते शहरों की बात करता है, वहीं उसी विकास में कुछ इंसान ऐसे भी हैं। जो अपने ही देश में खो से गए हैं। जिनके पास काम तो है, लेकिन रहने के लिए जगह नहीं है। ऐसे ही लोगों की कहानी है सविता पाठक का उपन्यास ‘कौन से देस उतरने का’।

आज के आधुनिक दौर में हर जगह विकास का परचम लहरा रहा है। भाषणों और टीवी में अक्सर हमें देश के विकास से जुड़ी हुई बातें दिखाई और सुनाई देती हैं। आज जब देश विकास और चमकते शहरों की बात करता है, वहीं उसी विकास में कुछ इंसान ऐसे भी हैं। जो अपने ही देश में खो से गए हैं। जिनके पास काम तो है, लेकिन रहने के लिए जगह नहीं है। ऐसे ही लोगों की कहानी है सविता पाठक का उपन्यास ‘कौन से देस उतरने का’। उपन्यास की शुरुआत मेट्रो की भीड़ में एक आदमी से होती है, जो बार-बार पूछता है ‘भाई, कौन से देस उतरने का तुमको?’ वह आदमी किसी से पूछ रहा था। उसे जवाब देने के बजाय अगले आदमी ने कानों से अपनी इयरफोन को थोड़ा सा सरकाया और अजीब सा चेहरा बनाकर बोला ‘व्हाट!’ पूछने वाला आदमी घबरा गया और वह वापस आकर मेट्रो की बर्थ पर बैठ गया। यह सवाल सिर्फ एक मुसाफ़िर का नहीं, बल्कि हर उस व्यक्ति का है जो अपने ही देश में बेघर और अनसुना रह गया है। 

उपन्यास अपने शुरुआती अंशों में ही बता देता है कि इसके पात्र कौन लोग हैं और कौन लोग उन्हें देख कर अनदेखा करते हैं। गांव से निर्वासित जीवन शहर में पनाह के लिए आता है। लेकिन शहर के पास उनके लिए जगह नहीं है। ऐसा ही कोई गांव से आया मजदूर मेट्रो में बड़बड़ा रहा है ‘मेंटली डिस्टर्ब लगता है,पास बैठी एक मैडम ने अपनी राय प्रकट की। वह रोते हुए बोला ‘अरे मैडम टिकट लेकर गाड़ी में बैठा हूं।‘ यह देखने वाली बात है कि किस तरह एक गरीब और दुखी इंसान को समाज और व्यवस्था की भीड़ पागल करार देने लगती है। वो आदमी बार-बार मेट्रो में सवार लोगों से पूछ रहा है कि ‘भाई तुमको कौन से देश उतरने का, मेरे को सीलमपुर उतार देना’ बगल में खड़े कोट पैंट पहने भाई साहब ने थोड़ा मुस्कुरा कर कहा जरूर बता दूंगा, अब चुप करके बैठो, अरे भाई बड़ी मेहरबानी वह फिर अकेला रोने लगा।

गांव से निर्वासित जीवन शहर में पनाह के लिए आता है। लेकिन शहर के पास उनके लिए जगह नहीं है। ऐसा ही कोई गांव से आया मजदूर मेट्रो में बड़बड़ा रहा है ‘मेंटली डिस्टर्ब लगता है,पास बैठी एक मैडम ने अपनी राय प्रकट की। वह रोते हुए बोला ‘अरे मैडम टिकट लेकर गाड़ी में बैठा हूं।‘

पितृसत्ता की छाया में दबा ग्रामीण जीवन

इस उपन्यास के सारे किरदार अपनी पुरानी यादों और वर्तमान की सच्चाई के बीच लगातार झूलते नजर आते  हैं। लेकिन उनकी यादों में कोई पुरानी खुशियों की मिठास नहीं है। यही छूटा हुआ परिवेश उपन्यास का केंद्र बनता जाता है। बड़ेलाल हों या परदेशी बाबू नंदा हो या अमृता या फिर राजेश्वरी देवी सबका जीवन समाजिक व्यवस्था और राज्य व्यवस्था का मारा हुआ जीवन है। इस उपन्यास की एक किरदार नंदा जो शहर से गांव लौटती है, लेकिन वो गांव में नहीं रह पाती है। उसका पति माइक्रो फाइनेंस कंपनियों से लोन लेकर छला जाता है और तनाव में एक दिन घर छोड़कर चला जाता है। नंदा असहाय सी सास और अपनी बच्ची को लेकर गांव चली जाती है। गांव में वह पड़ोस के घरों में कुछ छोटे-छोटे काम करके जीवन चला रही थी। 

लेकिन सास के गुजरने के बाद उसे एहसास हो जाता है कि गांव में अकेले रहना कितना कठिन है। वह अपने ऊपर कुदृष्टि को झेल रही थी, लेकिन एक दिन जब अमृता के साथ गांव का ही एक व्यक्ति यौन हिंसा करने की कोशिश करता है, तो नंदा कांप जाती है। नन्ही अमृता रोते हुए बताती है कि अंधेरे में सुमेश चाचा उसे जबरदस्ती चूम रहे थे। अक्सर गांव में इस तरह के अपराध होते रहते हैं लेकिन उन्हें परिवार और गांव की इज्जत के नाम पर छुपा दिया जाता है। खुले में सोती बच्चियां और महिलाएं  हमेशा से यहां यौनिक अपराध का सामना करती रही हैं । गांव की यादें (नास्टेल्जिया) भी महिलाओं और दलितों के लिए सुखद नहीं होतीं। वहां ताकतवर लोगों का दबदबा रहता है और कमजोर लोगों को अक्सर सताया जाता है।

राजेश्वरी के पति बच्चों के खाने से पहले साहब खाना खाते थे। अभी खाना चल ही रहा था कि साहब के कदमों की आहट हुई वो सहज हो गई लड़के ने जल्दी-जल्दी मुंह चलाना शुरु कर दिया, साहब ने भद्दी सी गाली उछाली। वो कुछ कहना चाहती थी कि खाते समय कुछ ना कहो, लेकिन आवाज गले तक जाकर अटक गई ।

महिला और पुरुष के लिए समाज के दोहरे मानदंड 

इस उपन्यास में राजेश्वरी देवी के पति साहेब का किरदार गांव के सामन्ती और दोहरे चरित्र के यौन कुंठित व्यक्तियों की खूब याद दिलाता है। साहेब अपनी पत्नी राजेश्वरी को हंसने, नाचने -गाने और किसी से बातचीत करने पर भी दंडित करते हैं और अपने जीवन में खुद अपने विकलांग बेटे की बहू के साथ  यौन हिंसा करते हैं। साहेब आर्मी में नौकरी करते थे और गांव दो और तीन साल बाद आते थे। इसी लम्बी अवधि में युवा राजेश्वरी का अपने घर के एक आत्मीय नौकर से एक दिन देह-संबंध बन जाता है और उसे गर्भ ठहर जाता है। परिवार में सब सन्न रह जाते हैं। साहेब को तार देकर बुलाया जाता है और फिर शुरू होता है, राजेश्वरी देवी के जीवन की अंतहीन यात्रा का दौर।

साहेब उन्हें तिरस्कार और असहनीय दंड हर पल देते रहते हैं। मुनीश माँ की यातनाओं का साक्षी ही नहीं, बल्कि उस हिंसा का भी सामना कर रहा है। वहीं यातनाएं अब बीमारी में उसकी यादों में घूमती रहती हैं। उसके सपने कोई नींद के सपने नहीं हैं। सपने में वह आठवीं कक्षा का छात्र है, स्कूल से आया है, नीले रंग की कमीज है और गहरे नीले रंग की हाफ पैंट पहनी हुई है। सपने में उसे अम्मा दिखती है।अम्मा का चेहरा नज़दीक और नज़दीक आता जा रहा है। उनकी उदासी पूरे घर में फैल गई है लेकिन फिर भी वह लगातार काम कर रही थी और बीच-बीच में साहब का बिस्तर ठीक करती थी।राजेश्वरी के पति बच्चों के खाने से पहले साहब खाना खाते थे।अम्मा बहुत कम बोलतीं थी। पूरे गांव में उनको सब लोग साहब बहू कहते थे। अभी खाना चल ही रहा था, कि साहब के कदमों की आहट हुई वो सहज हो गई । लड़के ने जल्दी-जल्दी मुंह चलाना शुरु कर दिया साहब ने भद्दी सी गाली उछाली।

जिस समाज मे पुरुषों का अवैध संबंध सामान्य बात होती है। वहीं महिला की एक गलती को अपराध मान लिया जाता है, साहेब कहते हैं कि ‘साले पता नहीं किसके बच्चे हैं। एक ही वाक्य काफी है अम्मा बेटों के आगे शर्मिंदा हो जाती हैं ।

जब माँ बैठ कर खिला रही है तो साले काम क्यों करें। वो कुछ कहना चाहती थी कि खाते समय कुछ ना कहो लेकिन आवाज गले तक जाकर अटक गई मुनीश ने जल्दी-जल्दी खाना खाया और थाली लेकर उठ गया।  पिता को मुनीश  ने इसी रूप में जाना था । कभी भी उन्होंने पिता के साथ बराबर बैठकर बात नहीं की बड़े बेटे को छोड़कर पिता अपने सभी बेटों से नाराज रहते थे। मुनीश का छोटा भाई कभी भी पिता के आगे नहीं आता था। जिस समाज मे पुरुषों का अवैध संबंध सामान्य बात होती है। वहीं महिला की एक गलती को अपराध मान लिया जाता है, साहेब कहते हैं कि ‘साले पता नहीं किसके बच्चे हैं। एक ही वाक्य काफी है अम्मा बेटों के आगे शर्मिंदा हो जाती हैं।’ 

असमानता और हिंसा के बीच अमृता की जागरूकता 

अमृता अपनी माँ नंदा के दुखों में उसके साथ रहती है और उसे संभालती भी है। वह एक पढ़ी-लिखी कामकाजी लड़की है और मेट्रो में रोज सफर करती है। उसकी बोली में उपन्यास जैसे ताज़गी और रवानगी से निखर जाता है। ‘तब तक मेरा स्टेशन यानी मेरा देश आ गया मैं उतर गई। मुझे थोड़ा पैदल चलकर दूसरी लाइन की मेट्रो पकड़नी थी। उतरने से पहले मैंने हल्के से उस आदमी को फिर देखा, फटलस का देश कौन सा है। फिर ख्याल आया कि पिछली मकान मालकिन हर बार दिल्ली से बाहर वालों से पूछती थी तुम्हारा मुल्क किधर है।’ वह उपन्यास में एक खबर को याद करती है कि ‘ कुछ दिन पहले, कुछ महिलाओं ने सोशल मीडिया पर लिखा था। हम तो मेट्रो में सफर करते हैं कोई बस में तो जाते नहीं की मुफ्त की सवारी मांगे। कुछ तो खास है मेट्रो में। मैं फोन पर यह न्यूज़ देख रही थी और हिसाब लगा रही थी कि अगर मेट्रो में किराया न लगे तो क्या-क्या हो सकता है।’

‘कुछ दिन पहले, कुछ महिलाओं ने सोशल मीडिया पर लिखा था। हम तो मेट्रो में सफर करते हैं कोई बस में तो जाते नहीं की मुफ्त की सवारी मांगे। कुछ तो खास है मेट्रो में। मैं फोन पर यह न्यूज़ देख रही थी और हिसाब लगा रही थी कि अगर मेट्रो में किराया न लगे तो क्या-क्या हो सकता है।’

अमृता हर बार जिस दुनिया की बात करती है, वो दुनिया एक ओझल दुनिया है। जिसे समाज और राज्य व्यवस्था अनदेखा करती है। ये फुटपाथ से स्लम और शहर के पुलों के नीचे पसरी रहती है। वो वहां की यातना और विपन्नता यानी जो गरीबी या कठिनाइयों में जी रहा हो। उस से मुंह नहीं फेर पाती क्योंकि उसकी आत्मा का एक हिस्सा यहीं कहीं गुम हो गया है। समाज के इन निर्वासित ,उपेक्षित लोगों से भले सरकार, समाज का कोई सरोकार नहीं लेकिन उसका है। फुटपाथ पर पड़े  मुनीश को देखकर वो पास जाती है और ध्यान से देखती है कि आदमी की सांस चल रही है कि नहीं । फिर उसे दिसम्बर की ठंड का खयाल आता है।

वो सोचती है मर रहा आदमी दूसरी दुनिया में जाकर पूरी इंसानियत के बारे में क्या जवाब देगा।उसने अपनी शॉल उतार कर दे दी और बगल में बैठे आदमी से कहा भैया यह ओढ़ा दो। ये उपन्यास बहुत सहजता से उन जगहों से जुड़ता है, जिनके लिए राज्य और समाज कोई नहीं सोचता।आखिर देश किसका होता है? उनका जो यहां से वहां खदेड़े जाते हैं। इनके लिए न इनके गाँव में कोई जगह है और न ही शहर में। आखिर ये कहां जाएं? अमृता हर उस उजड़े और गायब मनुष्य को लेकर सोचती है जो व्यवस्था की क्रूरता के शिकार होते हैं जो समाज की जातीय और साम्प्रदायिक हिंसा के शिकार होते हैं।

सविता पाठक का उपन्यास ‘कौन से देस उतरने का’ हमें दिखाता है, कि आज के विकास और चमक-दमक के बीच भी बहुत से लोग अपने ही देश में खोए हुए हैं। शहर में भी उन्हें जगह नहीं मिलती और गांव में भी सुरक्षा और सम्मान नहीं मिल पाता। इसके पात्र हमें यह समझाते हैं कि समाज और राज्य की नज़रों में कमजोर लोग अक्सर अनदेखे रह जाते हैं। इसमें यह भी साफ तौर पर देखा जा सकता है कि महिलाओं और कमजोर वर्गों पर पितृसत्ता और हिंसा का असर कितना गहरा होता है। साहेब जैसे किरदार समाज में मौजूद दोहरे मानदंड और अत्याचार को सामने लाते हैं। वहीं अमृता जैसे किरदार हमें दिखाते हैं कि संवेदनशीलता और दया के छोटे-छोटे काम भी इंसानियत को बचा सकते हैं। यह उपन्यास हमें सोचने पर मजबूर करता है कि असली देश वही है, जहां  हर इंसान को सुरक्षा, सम्मान और जीवन का अधिकार मिले।

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