खेल हमेशा से मानव जीवन का एक ज़रूरी हिस्सा रहे हैं। क्योंकि खेलों ने हमेशा एक देश के लोगों को दूसरे देश के लोगों से जोड़ने की कोशिश है। हमारे देश की एकता तब दिखती है जब इंडिया की हॉकी, क्रिकेट या कोई दूसरी टीम खेल के मैदान में उतरती है। तब सारे देश की नज़रें और उम्मीदें पूरी टीम से जुडी होती हैं। तब कोई नहीं सोचता कि उस टीम के खिलाड़ी किस जाति या धर्म से हैं। इस से यह देखा जा सकता है कि खेलें हमारे जीवन और देश में एकता बनाए रखने में किस तरह से सहयोगी हैं। लेकिन अब खेल सिर्फ मैदान तक सीमित नहीं रहे हैं ।
पिछले कुछ सालों में ये राजनीति, पैसा और ताकत दिखाने का एक बड़ा माध्यम बन गए हैं। अब खेल सिर्फ खिलाड़ियों की मेहनत नहीं, बल्कि सरकारों और बड़ी कंपनियों की छवि बनाने में देखे जाने लगे हैं। इसी से जुड़ा एक शब्द है ‘स्पोर्ट्सवॉशिंग’ यानी खेलों का इस्तेमाल अपनी खराब छवि को अच्छा दिखाने के लिए करना। खेलों की लोकप्रियता इतनी ज़्यादा है कि इससे लोगों का ध्यान असली समस्याओं से हटाना आसान हो जाता है। टीवी पर मैच, विज्ञापन और चमक-दमक के बीच लोग यह भूल जाते हैं कि खेलों के पीछे कभी-कभी सत्ता और राजनीति भी खेलती है।
अब खेल सिर्फ खिलाड़ियों की मेहनत नहीं, बल्कि सरकारों और बड़ी कंपनियों की छवि बनाने में देखे जाने लगे हैं। इसी से जुड़ा एक शब्द है ‘स्पोर्ट्सवॉशिंग’ यानी खेलों का इस्तेमाल अपनी खराब छवि को अच्छा दिखाने के लिए करना।
स्पोर्ट्सवॉशिंग क्या है ?
स्पोर्ट्सवॉशिंग उस प्रक्रिया को कहते हैं, जिसका उपयोग कोई देश, कंपनी या कोई व्यक्ति खेलों का इस्तेमाल अपनी छवि सुधारने के लिए करता है जैसे किसी टूर्नामेंट की मेजबानी करना, किसी टीम को खरीदना या बड़े खेल आयोजनों को स्पॉन्सर करना, ताकि लोग उनकी बुराइयों या विवादों को भूल जाएं। यानी जब खेलों का इस्तेमाल अपनी छवि को अच्छा दिखाने के लिए किया जाता है, उसे ही स्पोर्ट्सवॉशिंग कहा जाता है। इस शब्द का पहली बार इस्तेमाल स्पोर्ट्स या राइट्स कैंपेन ने साल 2015 में किया गया था।
इसका उद्देश्य यह था कि अज़रबैजान यूरोपीय खेलों के माध्यम से दुनिया का ध्यान अपने देश में हो रहे मानवाधिकार उल्लंघनों से हटाकर, खुद को एक आधुनिक और विकासशील देश के रूप में दिखाए। केवल यही नहीं बहुत से देशों ने कई बार आलोचकों को चुप कराने और अपनी छवि को अच्छा दिखाने के लिए खेलों का सहारा लिया है। ताकि वह इसकी आड़ में मानवाधिकार हनन से जुडी हुई किसी भी बात की आलोचना को शुरू होने से पहले ही खत्म कर सकें। ऐसे में मैदान में खेला जाने वाला मैच या खेल कई बार मैदान के बाहर की सच्चाइयों को छुपाने का एक माध्यम बन जाता है।
स्पोर्ट्सवॉशिंग उस प्रक्रिया को कहते हैं, जिसका उपयोग कोई देश, कंपनी या कोई व्यक्ति खेलों का इस्तेमाल अपनी छवि सुधारने के लिए करता है जैसे किसी टूर्नामेंट की मेजबानी करना, किसी टीम को खरीदना या बड़े खेल आयोजनों को स्पॉन्सर करना, ताकि लोग उनकी बुराइयों या विवादों को भूल जाएं।
स्पोर्टवॉशिंग का इतिहास
स्पोर्ट्सवॉशिंग की शुरुआत नई नहीं है, इसका इस्तेमाल कई दशकों से किया जा रहा है। हालांकि स्पोर्ट्स वॉशिंग शब्द हाल के सालों में लोकप्रिय हुआ, लेकिन देशों ने खेलों का इस्तेमाल अपनी राजनीतिक छवि सुधारने के लिए 20वीं सदी से ही शुरू कर दिया था । सबसे पुराना और प्रसिद्ध उदाहरण साल 1936 के बर्लिन ओलंपिक का है, जो नाज़ी काल के बर्लिन में आयोजित हुआ था। इस आयोजन से पहले बर्लिन शहर को लोगों को प्रभावित करने के लिए खूबसूरती से सजाया गया था। दुकानों और दीवारों से यहूदी-विरोधी सारे पोस्टर हटा दिए गए थे, ताकि शहर एक साफ-सुथरा और अच्छा दिखे। यानी यह न दिखे कि यहूदियों पर अत्याचार हो रहा है।
इसी तरह साल 1974 में मुहम्मद अली और जॉर्ज फोरमैन के बीच होने वाली ‘रंबल इन द जंगल’ फाइट आज के कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य में करवाई गई थी। उस समय के राष्ट्रपति मोबुतो सेसे सेको ने सौ से ज़्यादा लोगों को मौत की सजा दे दी थी। यह दिखाने के लिए कि देश सुरक्षित है। इसी तरह, फिलीपींस में तानाशाह फर्डिनेंड मार्कोस सीनियर ने साल 1965 से 1986 में अपने शासन के दौरान किए गए अत्याचारों से ध्यान हटाने के लिए साल 1978 में अंतरराष्ट्रीय बास्केटबॉल चैंपियनशिप की मेजबानी करवाई थी। हाल ही में साल 2024 के अंत में, अंतर्राष्ट्रीय फ़ुटबॉल संघ (फ़ीफ़ा) ने घोषणा की है, कि सऊदी अरब साल 2034 विश्व कप की मेज़बानी करेगा। इन सभी उदाहरणों में, शासकों ने खेलों का इस्तेमाल अपने अपराधों और अत्याचारों से ध्यान हटाने और खुद को अच्छा दिखाने के लिए किया है। इससे उनकी छवि तो सुधरी है, लेकिन यह एक खतरनाक तरीका बन गया है, जो आज भी कई देशों में जारी है।
सबसे पुराना और प्रसिद्ध उदाहरण साल 1936 के बर्लिन ओलंपिक का है, जो नाज़ी काल के बर्लिन में आयोजित हुआ था। इस आयोजन से पहले बर्लिन शहर को लोगों को प्रभावित करने के लिए खूबसूरती से सजाया गया था। दुकानों और दीवारों से यहूदी-विरोधी सारे पोस्टर हटा दिए गए थे, ताकि शहर एक साफ-सुथरा और अच्छा दिखे। यानी यह न दिखे कि यहूदियों पर अत्याचार हो रहा है।
स्पोर्ट्सवॉशिंग के प्रभाव
भारत में स्पोर्ट्सवॉशिंग का स्वरूप बाकी देशों से थोड़ा अलग है, लेकिन इसका असर उतना ही गहरा और राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है। यहां खेल केवल मनोरंजन या फिटनेस का माध्यम नहीं रहे हैं। वे राजनीति, पूंजी और जनमत को दिशा देने का साधन बन चुके हैं। भारत में कई राजनीतिक दलों और नेताओं ने खेल आयोजनों का इस्तेमाल अपनी जनता के बीच लोकप्रियता बढ़ाने के लिए किया है। यहां तक कि भारत में कई ऐसे खेल के ग्राउंड या स्टेडियम हैं जिनके नाम बदलकर नेताओं के नाम पर रख दिए गए हैं जैसे उदाहरण के लिए, अरुण जेटली स्टेडियम और नरेंद्र मोदी स्टेडियम इस बात की मिसाल है कि किस तरह खेल से जुड़ी चीज़ों जैसे स्टेडियम या टूर्नामेंट के नाम का इस्तेमाल सरकार या नेताओं की छवि और पहचान बढ़ाने के लिए किया जाता है। इससे लोगों के मन में यह संदेश जाता है कि खेल और सत्ता दोनों साथ-साथ हैं, और नेता का नाम देशभक्ति से जुड़ जाता है।
आईपीएल जैसी लीगों में कई बड़े उद्योगपति अपने ब्रांड और राजनीतिक प्रभाव को मज़बूत करने के लिए खेल का उपयोग करते हैं। स्क्रॉल में छपे एक लेख के मुताबिक, अगर आप दिल्ली में बॉक्स सीटों से कोई मैच देखते हैं, तो आपको एक टिकट मिलता है जिस पर 30,000 रुपये या ऐसा ही कुछ प्रमुखता से छपा होता है, लेकिन स्वाभाविक रूप से, आपने इतना भुगतान नहीं किया है, आपको यह भारी छूट पर मिला है। या किसी ने आपको यह मुफ़्त में दे दिया है जो आपकी मदद करना चाहता है। दरअसल, कोई भी इतने महंगे टिकटों के लिए पूरी कीमत नहीं चुकाता, जिससे लीग को यह दावा करने का मौका मिल जाता है कि ये मैच खास है। जिससे एक अच्छी छबि तो बनती है कि वो लोगों की मदद कर रहे हैं।
द जामिया रिव्यू पत्रिका के मुताबिक, टीवी और मीडिया ऐसा माहौल बना देते हैं कि दर्शक हिंदू-मुस्लिम के झगड़ों और राजनीति में ही उलझे रहते हैं, जिससे भारत और पाकिस्तान के बीच पहले से मौजूद तनाव और गलतफहमियां और बढ़ जाती हैं।
साथ ही आय भी बढ़ती है। अगर लोग टिकटों की आय के दावों पर सवाल उठाने लगेंगे, तो टीमों की वित्तीय स्थिति के कई अन्य पहलुओं का विश्लेषण शुरू हो जाएगा। साथ ही जब बेरोज़गारी, महंगाई या महिला सुरक्षा जैसे सवाल उभरते हैं, तो सोशल मीडिया का फोकस अचानक किसी मैच या मेडल पर शिफ्ट हो जाता है। टीवी चैनलों पर क्रिकेट मैचों को देशभक्ति बनाम देशद्रोह के रूप में दिखाया जाता है, खासकर जब भारत-पाकिस्तान का मैच होता है। द जामिया रिव्यू पत्रिका के मुताबिक, टीवी और मीडिया ऐसा माहौल बना देते हैं कि दर्शक हिंदू-मुस्लिम के झगड़ों और राजनीति में ही उलझे रहते हैं, जिससे भारत और पाकिस्तान के बीच पहले से मौजूद तनाव और गलतफहमियां और बढ़ जाती हैं।
जब किसी देश पर मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप लगते हैं, जैसे कि श्रमिकों का शोषण, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकारों का दमन, या अभिव्यक्ति की आज़ादी पर नियंत्रण तो ऐसे देश अक्सर खेलों का सहारा लेते हैं ताकि अपनी नकारात्मक छवि को ठीक कर सकें। इसके लिए जब स्टेडियम आदि बनाये जाते हैं तब बहुत से लोगों को समस्याओं का सामना करना पड़ता है। साउथ एशिया सिटिज़न्स वेब के मुताबिक, साल 2010 में दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेलों (सी डब्ल्यू जी) की तैयारियों के दौरान शहर के कामकाजी गरीबों, जिनमें बेघर, भिखारी, रेहड़ी-पटरी वाले और निर्माण मजदूर शामिल थे, जिन्हें बेदखल या बेघर कर दिया गया था और ये बेदखली स्टेडियमों के निर्माण, पार्किंग स्थलों के निर्माण, सड़कों को चौड़ा करना, शहर के सौंदर्यीकरण और सुरक्षा के नाम पर सड़कों को साफ करने जैसे कई कारणों से हुई थी। एचएलआरएन का अनुमान है कि साल 2004 से 2010 तक खेलों के प्रत्यक्ष परिणाम के रूप में दिल्ली में कम से कम 2,50,000 लोगों ने अपने घर खो दिए थे।
साउथ एशिया सिटिज़न्स वेब के मुताबिक, साल 2010 में दिल्ली में राष्ट्रमंडल खेलों (सी डब्ल्यू जी) की तैयारियों के दौरान शहर के कामकाजी गरीबों, जिनमें बेघर, भिखारी, रेहड़ी-पटरी वाले और निर्माण मजदूर शामिल थे, जिन्हें बेदखल या बेघर कर दिया गया था।
स्पोर्ट्सवॉशिंग पर रोक और सुधार के रास्ते
स्कूलों, कॉलेजों और खेल संस्थानों में यह चर्चा होना ज़रूरी है कि खेल केवल मनोरंजन नहीं बल्कि सामाजिक ज़िम्मेदारी से भी जुड़ा विषय है। अगर दर्शक और नागरिक जागरूक होंगे, तो सत्ता या कॉरपोरेट के लिए खेलों को प्रचार का औज़ार बनाना आसान नहीं रहेगा। जब भी कोई बड़ा खेल आयोजन हो, तो उसकी योजना और लाभ में स्थानीय लोगों को भी शामिल किया जाए। ताकि वे बेदखल या शोषित न हों, बल्कि उस आयोजन का हिस्सा बन सकें। मीडिया को खेलों की सिर्फ चमक-दमक दिखाने के बजाय यह भी दिखाना चाहिए कि उसके पीछे की सामाजिक और आर्थिक सच्चाई क्या है।
स्पोर्ट्सवॉशिंग सिर्फ खेलों की नहीं, बल्कि लोकतंत्र, मीडिया और जनता की समझ की भी परीक्षा है। खेलों का मुख्य उद्देश्य एकता, सहयोग और सम्मान है। लेकिन जब इन्हीं खेलों को सत्ता, पैसा और प्रचार का साधन बना दिया जाता है, तो वे समाज में भ्रम और असमानता बढ़ाने लगते हैं। इतिहास से लेकर आज तक, कई देशों ने खेलों का इस्तेमाल अपने अपराधों, मानवाधिकार उल्लंघनों और राजनीतिक असफलताओं को छुपाने के लिए किया है। भारत में भी यह प्रक्रिया दिखाई देती है, जब स्टेडियमों के नाम नेताओं के नाम पर रखे जाते हैं, जब मीडिया खेलों को राष्ट्रभक्ति का तमाशा बना देता है, और जब खेलों की आड़ में सामाजिक मुद्दों से ध्यान हटाया जाता है। ऐसे में ज़रूरत इस बात की है कि खेलों को एक राजनीतिक औज़ार नहीं, बल्कि जनभागीदारी, समानता और सामाजिक न्याय का मंच बनाया जाए। जब खेल मैदान से बाहर की असलियत को भी उजागर करेंगे, तब ही खेल असल में समाज को जोड़ने और बदलने की ताकत बन पाएंगे।

