भारत में खेलों की परंपरा पुरानी ज़रूर है, लेकिन महिलाओं की भागीदारी अपेक्षाकृत नई और संघर्षों से भरी रही है। किसी भी महिला खिलाड़ी की जीत केवल व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं होती, बल्कि वह उन अनगिनत लड़कियों की उम्मीदों का प्रतीक होती है जो सीमित संसाधनों और सामाजिक दबावों के बीच अपने सपनों को ज़िंदा रखती हैं। हाल ही में पेरिस ओलंपिक में निशानेबाज मनु भाकर ने दो पदक जीतकर इतिहास रच दिया। लेकिन हर पदक के पीछे आर्थिक, मानसिक और सामाजिक स्तर पर लंबा संघर्ष छिपा होता है। महिलाओं को मैदान तक पहुंचने और टिके रहने के लिए सुविधाओं की भारी कमी, प्रशिक्षण केंद्रों की बदहाली और संसाधनों की कमी का सामना करना पड़ता है।
वेतन असमानता भी एक गंभीर चुनौती है। ‘विमेन इन स्पोर्ट’ की 2022 की रिपोर्ट के मुताबिक, विश्व स्तर पर महिला खिलाड़ियों को पुरुषों की तुलना में औसतन 28 फीसद कम वेतन मिलता है। भारत में भी क्रिकेट, हॉकी और अन्य खेलों में यही प्रवृत्ति देखी जाती है। इसके अलावा, महिला खिलाड़ियों को यौन हिंसा और असुरक्षित माहौल का भी सामना करना पड़ता है। साल 2023 में भारतीय कुश्ती महासंघ के प्रमुख पर लगे यौन हिंसा के आरोपों ने इस समस्या को उजागर किया। इन घटनाओं से स्पष्ट है कि महिला खिलाड़ियों की सुरक्षा और समानता के लिए अभी लंबा रास्ता तय करना बाकी है।
‘विमेन इन स्पोर्ट’ की 2022 की रिपोर्ट के मुताबिक, विश्व स्तर पर महिला खिलाड़ियों को पुरुषों की तुलना में औसतन 28 फीसद कम वेतन मिलता है। भारत में भी क्रिकेट, हॉकी और अन्य खेलों में यही प्रवृत्ति देखी जाती है।
रूढ़ियों को तोड़ती महिलाएं

समाज में आज भी यह धारणा प्रचलित है कि महिलाओं को एक निश्चित उम्र के बाद दौड़ना-कूदना, भारी वजन उठाना या प्रतिस्पर्धात्मक खेलों में भाग लेना उचित नहीं। लेकिन, कर्णम मल्लेश्वरी ने इन सभी धारणाओं को चुनौती दी और वर्ष 2000 के सिडनी ओलंपिक में भारोत्तोलन में कांस्य पदक जीतकर भारत की पहली महिला ओलंपिक पदक विजेता बनीं। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि महिलाएं मानसिक और शारीरिक दोनों रूपों में पुरुषों के समान सक्षम और सशक्त होती हैं। कर्णम मल्लेश्वरी के बाद भारत की कई महिला खिलाड़ियों ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश का नाम रोशन किया। पी.वी. सिंधु ने बैडमिंटन में दो ओलंपिक पदक जीतकर इतिहास रच दिया। मैरी कॉम, छह बार की विश्व विजेता और ओलंपिक कांस्य पदक विजेता, ने मुक्केबाज़ी में महिला खिलाड़ियों के लिए नया रास्ता खोला। साक्षी मलिक ने साल 2016 रियो ओलंपिक में कुश्ती में कांस्य पदक जीतकर भारत की पहली महिला पहलवान ओलंपिक पदक विजेता बनने का गौरव प्राप्त किया।
खेलों में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी
भारत में खेलों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है, लेकिन यह अब भी पुरुषों की तुलना में काफी कम है। युवा कार्यक्रम एवं खेल मंत्रालय के अनुसार, वर्ष 2014 से 2022 के बीच खेलो इंडिया योजना और अन्य पहलों के अंतर्गत महिला खिलाड़ियों की भागीदारी में लगभग 35 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। वर्ष 2023 के कॉमनवेल्थ यूथ गेम्स में भारत की 60 प्रतिशत पदक विजेताएं महिलाएं थीं, जो इस सकारात्मक बदलाव का संकेत देती हैं। महिला खिलाड़ियों की इन उपलब्धियों के बावजूद अभी भी न्याय, समान अवसर और सुरक्षित वातावरण की दिशा में लंबा रास्ता तय करना बाकी है। खेल के मैदान में लैंगिक भेदभाव, संसाधनों की असमानता और रूढ़िवादी सोच जैसी समस्याएं महिलाओं के लिए बड़ी रुकावट बनती हैं।
कर्णम मल्लेश्वरी ने इन सभी धारणाओं को चुनौती दी और वर्ष 2000 के सिडनी ओलंपिक में भारोत्तोलन में कांस्य पदक जीतकर भारत की पहली महिला ओलंपिक पदक विजेता बनीं।
भारत की पहली महिला ओलंपियन

साल 1952 में, जब देश में महिलाओं की भूमिका को पारंपरिक सीमाओं में बांध दिया गया था, उसी समय 17 साल की एक लड़की ने इतिहास रचा। नीलिमा घोष ने हेलसिंकी ओलंपिक में दौड़ स्पर्धा में हिस्सा लेकर भारत की पहली महिला ओलंपियन होने का गौरव प्राप्त किया। भले ही वे पदक नहीं जीत सकीं, लेकिन उनका यह कदम हजारों भारतीय लड़कियों और महिलाओं के लिए खेल के क्षेत्र में प्रवेश का रास्ता खोलने जैसा था। भारत को ओलंपिक में पहला महिला पदक मिला साल 2000 में, जब कर्णम मल्लेश्वरी ने सिडनी ओलंपिक में वेटलिफ्टिंग (69 किलोग्राम वर्ग) में कांस्य पदक अपने नाम किया। आंध्र प्रदेश के छोटे से गांव गुदिवाड़ा से आने वाली कर्णम ने कई सामाजिक बाधाओं और पारिवारिक दबावों का सामना किया। एनडीटीवी को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया कि उन्हें अपनी मां तक का विरोध झेलना पड़ा क्योंकि उनका खेल स्त्री के पारंपरिक ‘महिला-सुलभ’ व्यवहार के विपरीत माना जाता था। उनकी यह उपलब्धि भारतीय खेल इतिहास में मील का पत्थर साबित हुई और महिलाओं के लिए नए रास्ते खोल दिए।
लंदन ओलंपिक में जब दो महिलाओं ने रचा इतिहास

साल 2000 के बाद भारत की महिला खिलाड़ियों ने धीरे-धीरे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी मौजूदगी दर्ज करानी शुरू की। साल 2012 का लंदन ओलंपिक भारतीय महिलाओं के लिए ऐतिहासिक साबित हुआ। इस बार भारत को दो महिला खिलाड़ियों ने पदक दिलाए। सायना नेहवाल ने बैडमिंटन (महिला एकल) में कांस्य पदक जीतकर भारत को इस खेल में पहला ओलंपिक पदक दिलाया। वहीं मेरी कॉम ने मुक्केबाजी में कांस्य पदक जीता। यह मुक्केबाजी में भारत की महिला खिलाड़ियों का पहला ओलंपिक पदक था। यह उपलब्धियां न केवल व्यक्तिगत थीं, बल्कि उन्होंने यह भी दिखा दिया कि भारतीय महिलाएं किसी भी खेल में पीछे नहीं हैं।
साल 1952 में, जब देश में महिलाओं की भूमिका को पारंपरिक सीमाओं में बांध दिया गया था, उसी समय 17 साल की एक लड़की ने इतिहास रचा। नीलिमा घोष ने हेलसिंकी ओलंपिक में दौड़ स्पर्धा में हिस्सा लेकर भारत की पहली महिला ओलंपियन होने का गौरव प्राप्त किया।
साल 1952 से 2021 तक भारत की महिला खिलाड़ियों ने ओलंपिक में कुल 10 पदक जीते हैं। ये पदक विभिन्न खेलों जैसे वेटलिफ्टिंग, बैडमिंटन, मुक्केबाजी, कुश्ती और एथलेटिक्स में आए हैं। इनमें से कुछ प्रमुख उपलब्धियों में साल 2000 में कर्णम मल्लेश्वरी (वेटलिफ्टिंग) में कांस्य, 2012 में सायना नेहवाल (बैडमिंटन) में कांस्य, 2012 में मेरी कॉम (मुक्केबाज़ी) में कांस्य, साल 2016 में पी.वी. सिंधु (बैडमिंटन) में रजत, साल 2016 में साक्षी मलिक (कुश्ती) कांस्य, 2020 (टोक्यो) में पी.वी. सिंधु कांस्य, 2020 (टोक्यो) में लवलीना बोरगोहेन (मुक्केबाज़ी) कांस्य, 2020 (टोक्यो) में मीराबाई चानू (वेटलिफ्टिंग) रजत पदक शामिल हैं। इन पदकों के अलावा कई अन्य महिला खिलाड़ी जैसे दीपा कर्माकर (जिम्नास्टिक) और कामराजीथ कौर (एथलेटिक्स) ने भी अपने शानदार प्रदर्शन से देश का नाम रोशन किया, भले ही वे पदक नहीं जीत सकीं।
महिलाओं की भागीदारी का बढ़ता दायरा
इन सफलताओं के चलते ओलंपिक जैसे बड़े मंच पर भारत की महिला खिलाड़ियों की भागीदारी बढ़ती गई है। 2020 टोक्यो ओलंपिक में भारत की कुल टीम में 47 प्रतिशत खिलाड़ी महिलाएं थीं जो तब तक की सबसे बड़ी भागीदारी रही। यह बदलाव सिर्फ आंकड़ों तक सीमित नहीं थी, बल्कि यह इस बात का संकेत है कि अब महिलाएं खेलों में केवल दर्शक नहीं, बल्कि निर्णायक भूमिका निभा रही हैं। भारत में महिला खिलाड़ियों के लिए ओलंपिक पदक जीतना सिर्फ व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं होती है, बल्कि वह समाज के तमाम बाधाओं, पूर्वाग्रहों और चुनौतियों को पार करने की कहानी भी होती है। हर एक पदक के पीछे वर्षों की मेहनत, मानसिक दबाव, सामाजिक सीमाएं और संस्थागत उपेक्षा की एक लंबी दास्तान छिपी होती है।
साल 1952 से 2021 तक भारत की महिला खिलाड़ियों ने ओलंपिक में कुल 10 पदक जीते हैं। ये पदक विभिन्न खेलों जैसे वेटलिफ्टिंग, बैडमिंटन, मुक्केबाजी, कुश्ती और एथलेटिक्स में आए हैं।
जब सिंधु और साक्षी ने रचा नया इतिहास

2016 में रियो ओलंपिक में दो भारतीय महिला खिलाड़ियों ने अपने प्रदर्शन से देश को गौरवान्वित किया। साक्षी मलिक ने कुश्ती में कांस्य पदक जीतकर भारत की पहली महिला पहलवान के रूप में ओलंपिक पदक जीता। वहीं पी.वी. सिंधु ने बैडमिंटन (महिला एकल) में रजत पदक जीतकर भारत को इस खेल में अब तक का सर्वोच्च सम्मान दिलाया। यह उपलब्धियां सिर्फ खेल जगत में नहीं, पूरे देश के लिए प्रेरणा थीं। लेकिन अगर इन खिलाड़ियों के जीवन की वास्तविकताओं पर नज़र डालें तो साफ होता है कि ओलंपिक के मेडल की चमक के पीछे एक लंबा और थकाऊ संघर्ष छुपा है। कई बार ये खिलाड़ी यौन उत्पीड़न, भेदभाव, और संसाधनों की भारी कमी का शिकार होती हैं। सरकारी संस्थानों की व्यवस्था इतनी कमजोर है कि कई बार खिलाड़ियों को बुनियादी सुविधाएं तक नहीं मिल पातीं। खिलाड़ियों के इंटरव्यूज़ में यह बात बार-बार सामने आती है कि मेडल जीतने के बावजूद उन्हें आर्थिक संघर्ष झेलना पड़ता है। यह उन नीतिगत खामियों की ओर इशारा करता है जो आज भी महिला खिलाड़ियों को समान अवसर नहीं देतीं।
महिलाओं की ऐतिहासिक भागीदारी

साल 2020 में हुआ टोक्यो ओलंपिक, जिसमें भारत की महिलाओं ने तीन पदक जीते। मीराबाई चानू ने भारोत्तोलन (वेटलिफ्टिंग) में रजत पदक जीता, लवलीना बोरगोहेन ने मुक्केबाज़ी में कांस्य पदक हासिल किया और पी.वी. सिंधु ने बैडमिंटन में दूसरी बार ओलंपिक पदक (कांस्य) जीतकर देश को गौरव का अनुभव कराया। महिलाओं ने सामाजिक नियमों और पूर्वाग्रहों को अपनी जीत से जवाब दिया है। चाहे कॉमनवेल्थ गेम्स हो या एशियन गेम्स, महिला खिलाड़ियों की उपस्थिति और सफलता ने हर स्तर पर उनकी क्षमता को सिद्ध किया है। साल 2024 में हुए पेरिस ओलंपिक में भारत की युवा निशानेबाज़ मनु भाकर ने इतिहास रच दिया।
2016 में रियो ओलंपिक में दो भारतीय महिला खिलाड़ियों ने अपने प्रदर्शन से देश को गौरवान्वित किया। साक्षी मलिक ने कुश्ती में कांस्य पदक जीतकर भारत की पहली महिला पहलवान के रूप में ओलंपिक पदक जीता।
उन्होंने एक ही ओलंपिक में दो कांस्य पदक जीतकर एक नया अध्याय लिखा। यह उपलब्धियां केवल व्यक्तिगत नहीं हैं, बल्कि उन हजारों लड़कियों के लिए एक प्रेरणा हैं जो समाजिक दबावों और संसाधनों की कमी के बावजूद खेल के क्षेत्र में आगे बढ़ने का सपना देखती हैं। महिला खिलाड़ियों के लिए आज भी संसाधनों और अवसरों की भारी कमी है, वहीं उन्हें पुरुष खिलाड़ियों की तुलना में कम मानदेय और सम्मान मिलता है। हालांकि एक सकारात्मक बदलाव यह रहा कि 2024 पेरिस ओलंपिक में महिलाओं और पुरुषों की भागीदारी का अनुपात 50:50 रहा।
भारतीय महिला खिलाड़ियों की ओलंपिक यात्रा केवल खेलों की जीत की कहानी नहीं है, बल्कि यह सामाजिक अन्याय, भेदभाव, और उपेक्षा के खिलाफ एक सशक्त संघर्ष की दास्तान भी है। मेरी कॉम, सायना नेहवाल, साक्षी मलिक, पी.वी. सिंधु, मीराबाई चानू, लवलीना बोरगोहेन और मनु भाकर जैसी खिलाड़ियों ने यह साबित किया है कि अगर उन्हें बराबरी का मंच और पर्याप्त संसाधन मिलें, तो वे किसी भी खेल में इतिहास रच सकती हैं। समय है कि सरकार, खेल संस्थान और समाज मिलकर महिला खिलाड़ियों को आवश्यक सहयोग, संरक्षण और सम्मान दें, ताकि भविष्य में ऐसी हजारों खिलाड़ियां ओलंपिक के हर मंच पर अपने परचम को और ऊंचा लहराती रहें।