अब्दुल बिस्मिल्लाह देश के प्रसिद्ध हिंदी लेखक और उपन्यासकार हैं। वे खास तौर पर ऐसे साहित्यकार माने जाते हैं जिन्होंने हिन्दू-मुस्लिम ग्रामीण समाज के जीवन को बेहद गहराई और सच्चाई से लिखा है। उनकी रचनाएं गाँव के लोगों के जीवन, उनके संघर्षों, सामाजिक मुद्दों और संस्कृति की बारीकियों को दिखाती है। उनकी भाषा बहुत सरल और सहज है, जिसमें हिंदी, उर्दू और संस्कृत की मिठास झलकती है। अब्दुल बिस्मिल्लाह अपने लेखन के माध्यम से सामाजिक न्याय और अल्पसंख्यक समुदाय विशेष कर मुस्लिम समुदाय की आवाज़ उठाने के लिए जाने जाते हैं। उनका साल 2019 में प्रकाशित उपन्यास ‘कुठाँव’ हिंदी साहित्य की एक महत्वपूर्ण कृति मानी जाती है।
‘कुठाँव’ शब्द शरीर के उस हिस्से को कहा जाता है जहां चोट सबसे ज्यादा महसूस होती है। इसी प्रतीक के ज़रिए लेखक ने मुस्लिम समाज में मौजूद जातिवादी सोच और महिलाओं के संघर्ष को सामने रखा है। इस उपन्यास में उन्होंने बहुत संवेदनशीलता से मुस्लिम समाज के भीतर जातिवाद और भेदभाव की सच्चाई को दिखाया है। मुस्लिम समुदाय में जाति व्यवस्था बाहरी तौर पर इतनी दृश्यमान नहीं है, लेकिन लेखक बताते हैं कि असल में समुदाय और समाज में यह भेदभाव गहराई तक मौजूद है। उन्होंने स्त्री-पुरुष संबंध, प्रेम और वासना, अमीरी-गरीबी, हिन्दू-मुस्लिम रिश्तों और उंच-नीच की सच्चाइयों को ईमानदारी से चित्रित किया है। उनका लेखन मुस्लिम समाज के भीतर फैली संकीर्णताओं, जैसे जाति और जेंडर आधारित भेदभाव को उजागर करता है।
‘कुठाँव’ उपन्यास का केंद्र मिर्जापुर ज़िले के गोपालगंज गाँव की कथित निम्न जाति से लड़की सितारा और कथित ऊंची जाति के अशराफ़ परिवार से आने वाले नईम के रिश्ते पर आधारित है। सितारा की माँ, इद्दन, चाहती है कि उसकी बेटी की शादी नईम से हो जाए।
‘कुठाँव’ न केवल समाज का यथार्थ दिखाता है, बल्कि पाठक को सोचने और आत्मचिंतन करने पर मजबूर करता है। इस उपन्यास का केंद्र मुस्लिम पसमांदा समाज है। यह वह समुदाय है जिसके बारे में साहित्य में बहुत कम लिखा गया है। अब्दुल बिस्मिल्लाह ने द वायर को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि जितनी जातियां हिन्दू समाज में हैं, उतनी ही मुस्लिम समाज में भी हैं। हमारे साहित्यकार मुस्लिम समाज को जानते ही नहीं, तो लिखेंगे क्या? उनकी यह बात इस बात की ओर इशारा करती है कि समाज के हर तबके की कहानियां सामने आना ज़रूरी हैं, ताकि साहित्य समाज को असल में आईना दिखाने का काम और सबका प्रतिनिधित्व कर सके।
कौन हैं पसमांदा मुस्लिम?
‘पसमांदा’ फ़ारसी शब्द है, जिसका मतलब है– जो पीछे रह गए। साधारण शब्दों में, वे मुसलमान जो सामाजिक और आर्थिक रूप से हाशिये हैं, उन्हें पसमांदा कहा जाता है। इनके पीछे रहने की एक बड़ी वजह समाज में मौजूद जाति व्यवस्था मानी जाती है। पहले ‘पसमांदा’ शब्द का प्रयोग वर्ग के लिए होता था, लेकिन अब इसका उपयोग मुस्लिम समुदाय के वंचित वर्गों, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए किया जाता है। मुसलमानों के भीतर जातियों को आमतौर पर तीन वर्गों में बांटा गया है। अशराफ़ जिसमें कथित ऊंचे वर्ग के मुसलमान, जिनमें सैयद, शेख़, पठान, मुग़ल आदि आते हैं। अजलाफ़ वे मुसलमान जो कथित निचली हिंदू जातियों से धर्मांतरण कर आए, जैसे जुलाहा, दर्जी, हज्जाम आदि।
वहीं, अरज़ाल दलित मुसलमान हैं, जिन्होंने इस्लाम अपनाया। बीबीसी की साल 2023 एक रिपोर्ट मुताबिक भारत में लगभग 80–85 फीसद मुसलमान पसमांदा समुदाय से हैं। लेकिन इन्हें सामाजिक और आर्थिक अवसर बहुत कम मिलते हैं। बीबीसी की यह रिपोर्ट बताती है कि मंडल कमीशन ने 82 मुस्लिम समूहों को कथित तौर पर ‘पिछड़ा’ माना था। एनएसएसओ के अनुसार, मुस्लिमों में लगभग 40 फीसद ओबीसी हैं। वहीं सच्चर कमेटी ने बताया कि सरकारी योजनाओं और आरक्षण के लाभ पसमांदा समुदाय तक नहीं पहुंच पाते।
बीबीसी की साल 2023 एक रिपोर्ट मुताबिक भारत में लगभग 80–85 फीसद मुसलमान पसमांदा समुदाय से हैं। लेकिन इन्हें सामाजिक और आर्थिक अवसर बहुत कम मिलते हैं।
जातिवाद की कड़वी सच्चाई और कहानी के पात्र
‘कुठाँव’ उपन्यास का केंद्र मिर्जापुर ज़िले के गोपालगंज गाँव की कथित निम्न जाति से लड़की सितारा और कथित ऊंची जाति के अशराफ़ परिवार से आने वाले नईम के रिश्ते पर आधारित है। सितारा की माँ, इद्दन, चाहती है कि उसकी बेटी की शादी नईम से हो जाए। उसे पता है कि सितारा और नईम के बीच प्रेम संबंध है। इद्दन इस रिश्ते का विरोध नहीं करती, बल्कि चाहती है कि यह रिश्ता शादी में बदल जाए। उसका मानना है कि अगर सितारा की शादी ऊंची जाति के नईम से हो गई, तो उनकी सामाजिक स्थिति बेहतर हो जाएगी और उन्हें जातिगत भेदभाव से मुक्ति मिलेगी। इद्दन अपने वर्ग और जातिगत हीनता से निकलने के लिए अपनी बेटी की शादी को एक रास्ता मानती है।
लेखक ने एक जगह लिखा है, “वह मुसलमान थी। नईम भी मुसलमान था। मगर नईम ख़ां साहब का बेटा था और वह? वह भी ख़ां साहबों में शामिल हो सकती है। माध्यम है सितारा।” लेकिन इद्दन का यह सपना पूरा नहीं होता। जिस रास्ते से वह सम्मान और बराबरी पाना चाहती थी, वही उसे और गहरे दर्द में डाल देता है। समाज की उंच-नीच और पुरुषवादी सोच उसे बार-बार नीचा दिखाती है। लेखक ने बताया है कि कैसे इद्दन का संघर्ष केवल एक माँ का संघर्ष नहीं है, बल्कि वह उन वंचित, गरीब और दलित और हाशिये की मुस्लिम महिलाओं की कहानी है जो अपने अस्तित्व और पहचान के लिए लगातार लड़ रही हैं।
लेखक ने एक जगह लिखा है, “वह मुसलमान थी। नईम भी मुसलमान था। मगर नईम ख़ां साहब का बेटा था और वह? वह भी ख़ां साहबों में शामिल हो सकती है। माध्यम है सितारा।” लेकिन इद्दन का यह सपना पूरा नहीं होता। जिस रास्ते से वह सम्मान और बराबरी पाना चाहती थी, वही उसे और गहरे दर्द में डाल देता है।
आज़ादी के बाद संविधान ने समाज के सभी वंचित समुदायों को शिक्षा का अधिकार दिया, क्योंकि शिक्षा ही वह रास्ता है जो इंसान को शोषण से मुक्त कर सकती है। अब्दुल बिस्मिल्लाह के उपन्यास कुठाँव में हुमा एक शिक्षित और सोचने-समझने वाली युवती है। जब उसे सितारा के साथ हुए अन्याय और बदसलूकी का पता चलता है, तो वह गुस्से और दुख के साथ पूरे पितृसत्तात्मक समाज पर सवाल उठाती है। हुमा कहती है कि सभी धर्मों के पुरुषों ने स्त्रियों को सिर्फ भोग की वस्तु समझा है। वह बताती है कि जाति और पितृसत्ता का प्रभाव सबसे ज़्यादा औरतों को सामना करना पड़ता है। उपन्यास में दिखाया गया है कि जिस तरह हिन्दू समाज में जाति व्यवस्था मौजूद है, उसी तरह मुस्लिम समाज में भी जाति आधारित भेदभाव देखने को मिलता है। इस ढांचे में महिलाओं की स्थिति और भी खराब है।
उदाहरण के तौर पर, कथित ऊंची जाति के असलम मियां जब इद्दन के साथ यौन हिंसा करते हैं, तो उनके लिए उसकी जाति कोई बाधा नहीं बनती। वे बार-बार उसका शोषण करते हैं, और इद्दन कुछ कह भी नहीं पाती। लेकिन जब समाज में बराबरी और सम्मान की बात आती है, तो असलम कहते हैं कि वे कथित निम्न जाति की औरत के हाथ का कुछ नहीं खाएंगे या पियेंगे। यह विरोधाभास दिखाता है कि समाज में दलित, बहुजन, आदिवासी या पसमांदा महिलाएं न सिर्फ श्रम का बल्कि शारीरिक उपभोग का साधन भी बना दी गई हैं। इद्दन जैसी महिलाएं जातिगत और लैंगिक हिंसा का दोहरे तौर पर सामना करती हैं। वे शिक्षा, सम्मान और आत्मनिर्भरता का सपना तो देखती हैं, लेकिन समाज की पितृसत्तात्मक और जातिगत दीवारें उन्हें बार-बार रोकती हैं और अपमानित करती हैं।
कथित ऊंची जाति के असलम मियां जब इद्दन के साथ यौन हिंसा करते हैं, तो उनके लिए उसकी जाति कोई बाधा नहीं बनती। वे बार-बार उसका शोषण करते हैं, और इद्दन कुछ कह भी नहीं पाती। लेकिन जब समाज में बराबरी और सम्मान की बात आती है, तो असलम कहते हैं कि वे कथित निम्न जाति की औरत के हाथ का कुछ नहीं खाएंगे या पियेंगे।
शिक्षा व्यवस्था की कमियों को उजागर करती कहानी
लेखक ने इस उपन्यास में भारतीय शिक्षा व्यवस्था की कमजोरियों को भी दिखाया है। कहानी की पात्र इद्दन अपनी बेटी सितारा को पढ़ाना चाहती है। वह चाहती है कि उसकी बेटी पढ़-लिखकर अच्छा जीवन बनाए। इस सपने को पूरा करने के लिए इद्दन हर संभव कोशिश करने को तैयार है। उपन्यास में एक और पात्र है ठाकुर गजेंद्र सिंह, जो एक ऊंचे पद पर काम करता है। जब इद्दन अपनी बेटी की पढ़ाई को लेकर उससे मिलती है, तो वह सितारा के परीक्षा में पास होने की चिंता जताती है। इस पर गजेंद्र सिंह उससे कहता है कि अगर वह पैसे दे, तो वह उसकी बेटी को परीक्षा में पास करवा सकता है। कहानी में लेखक गजेन्द्र सिंह के माध्यम से कहलवाते हैं “बताया न कि रेट फिक्स है. कोई अगर खुद से नकल करके लिख ले तो अलग रेट, पूरे कमरे को बोर्ड पर लिख-लिखकर नकल कराने का अलग रेट और किसी की जगह कोई और बैठकर लिख दे तो उसका अलग रेट। वह बहुत हाई होता है। मगर चिन्ता मत कीजिये। मैं वही फिक्स करूंगा। सितारा की जगह कोई और लड़की बैठ जाएगी।”
यह बात साफ़ दिखाती है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था अब भी भ्रष्ट और असमान है। यह केवल उन लोगों तक सीमित है जिनके पास साधन और सुविधा हैं। बुनियादी शिक्षा की स्थिति तो और भी खराब है। बड़े-बड़े कॉलेज और यूनिवर्सिटियां बनने के बावजूद जब तक प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर सुधार नहीं होगा, तब तक गरीब और मज़दूर परिवारों के बच्चे शिक्षा से दूर रहेंगे। वे कॉलेज या यूनिवर्सिटी तक पहुंच ही नहीं पाएंगे। इसी वजह से ठाकुर गजेंद्र सिंह जैसे लोग शिक्षा के क्षेत्र में भी भ्रष्टाचार फैलाते रहेंगे। लेखक ने अपने लेखन में हिन्दू और इस्लाम दोनों धर्मों की सामाजिक स्थितियों पर गहरे सवाल उठाए हैं। उन्होंने धर्म के नाम पर फैल रही कट्टरता, कुरीतियों और संकीर्ण सोच की आलोचना की है। उनका दृष्टिकोण हमेशा मानवता और समानता पर आधारित रहा है। उन्होंने धार्मिक विकृति, कुरीति और सामाजिक उन्माद फ़ैलाने वाली सांप्रदायिक और संकीर्ण मानसिकता पर कटाक्ष करते हुए मानवतावादी दृष्टिकोण का समर्थन किया है।
कहानी की खूबी और मजबूत लेखन
किसी भी कहानी को प्रभावशाली बनाने में भाषा और शैली की बड़ी भूमिका होती है। अब्दुल बिस्मिल्लाह की भाषा बहुत सरल, सहज और प्रवाहमय है। उनके लेखन में जगह-जगह शेर-ओ-शायरी देखने को मिलती है, जो कहानी को और खूबसूरत बना देती है और पाठक को उससे जोड़े रखती है। उनकी रचनाओं में उर्दू के शब्दों का प्रयोग कहानी को और प्रभावशाली बनाता है। साथ ही, वे लोकभाषा और लोकमुहावरों का भी खूब इस्तेमाल करते हैं, जिससे उनके पात्र और स्थितियां बहुत जीवंत लगती हैं। ‘कुठाँव’ उपन्यास में लेखक ने स्थानीय भाषा, संस्कृति और परंपराओं को बहुत ही संवेदनशील और सजीव रूप में दिखाया है। उन्होंने मुस्लिम समाज में जाति के आधार पर होने वाले शोषण की सच्चाई को दिखाया है और इसे तोड़ने का प्रयास किया है। साथ ही मानवीय भावनाओं, रिश्तों और सामाजिक मुद्दों को चित्रित किया है। यह पाठक को समाज और इंसान के रिश्तों को नए नजरिये से देखने के लिए प्रेरित करता है। ‘कुठाँव’ न सिर्फ एक साहित्यिक कृति है, बल्कि सोचने और समझने की एक यात्रा भी है।

