संस्कृतिकिताबें नए घर में अम्मा: विधवा महिला के हिम्मत, सम्मान और हक़ की कहानी

नए घर में अम्मा: विधवा महिला के हिम्मत, सम्मान और हक़ की कहानी

यह कहानी इस बात पर भी जोर देती है कि राजनीति और सामाजिक दायरे में ही नहीं ऐसे क्षेत्र में नेतृत्व के पदों पर भी महिलाओं की भागीदारी बहुत ज़रूरी है। हर महिला के जीवन में कोई प्राधानिन जैसी सशक्त महिला की जरूरत हो सकती है, जिनके पास सत्ता की ताकत है।

समकालीन हिंदी कथा साहित्य की प्रसिद्ध लेखिका योगिता यादव की कहानी ‘नए घर में अम्मा’ विधवा महिलाओं के जीवन की कठिनाइयों और असुरक्षा को बेहद संवेदनशील ढंग से प्रस्तुत करती है। योगिता यादव को भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। वे एक जानी-मानी पत्रकार भी हैं। उनकी प्रमुख कहानियों में क्लीन चिट, गाँठे, नेपथ्य में, नागपाश, भेड़िया और साइन बोर्ड शामिल हैं। कहानी ‘नए घर में अम्मा’, जो हंस पत्रिका के मार्च 2021 अंक में प्रकाशित हुई थी, ग्रामीण समाज की उस दुनिया को दिखाती है जहां विधवाओं का जीवन तंग गलियों, असुरक्षा और सामाजिक उपेक्षा से घिरा हुआ है। इस कहानी की मुख्य पात्र ‘प्रधानिन’ और ‘अम्मा’ हैं। अम्मा के माध्यम से लेखिका ने समाज में विधवाओं की व्यथा और उनके अकेलेपन को बड़ी गहराई से उजागर किया है। कहानी में एक प्रसंग है जब अम्मा कुछ खाने जा रही होती हैं, तभी कोई उन पर झपट्टा मारता है और वे ज़मीन पर गिर जाती हैं। बूढ़ी और कमजोर अम्मा में अब इतनी ताकत नहीं बची कि उठ सकें।

लेखिका कहती हैं कि यह बुढ़ापे का बचपना ही है कि अम्मा सोचती हैं कि अब कौन उनका क्या बिगाड़ेगा। लेकिन अम्मा के जीवन का सबसे दर्दनाक दिन तब आता है जब उनका देवर दीवार लांघकर उनके घर में घुसता है और उनके साथ यौन हिंसा करता है। इस घटना से अम्मा का तन ही नहीं, मन भी टूट जाता है। उम्रदराज़, कमजोर देह वाली अम्मा इस अपमान और हिंसा को सह नहीं पातीं और धीरे-धीरे अंदर से खत्म होने लगती हैं। यह प्रसंग पढ़कर पाठक के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। लेकिन यह केवल अम्मा की कहानी नहीं है। यह उन हजारों विधवाओं की सच्चाई है जो समाज में आज भी ऐसी स्थितियों का सामना करती हैं। डर, शर्म और निर्भरता के कारण वे चुप रह जाती हैं और हर रोज़ इस मानसिक और शारीरिक शोषण का सामना करती हैं। लेखिका ने इस कहानी के ज़रिए यह सवाल उठाया है कि आखिर एक विधवा की सुरक्षा, सम्मान और अधिकारों की ज़िम्मेदारी कौन लेगा? समाज कब तक उनके दुख को ‘किस्मत’ कहकर टालता रहेगा?

यह उन हजारों विधवाओं की सच्चाई है जो समाज में आज भी ऐसी स्थितियों का सामना करती हैं। डर, शर्म और निर्भरता के कारण वे चुप रह जाती हैं और हर रोज़ इस मानसिक और शारीरिक शोषण का सामना करती हैं।

विधवा महिलाओं का शोषण और समाज की बेरुखी

अम्मा का जीवन दुख और अपमान से भरा हुआ है। वे बहुत भावुक स्वभाव की हैं। किसी भी बात से वे तुरंत रो पड़ती हैं। इसी वजह से गांव के लोग उन्हें ‘रोवणवारी अम्मा’ कहकर पुकारते हैं। अम्मा का कोई अपना नहीं है; न परिवार, न रिश्तेदार। इस कारण गांव के पुरुष उनके साथ खिलौने जैसा व्यवहार करते हैं। जो बच्चे कभी अम्मा के हाथों से खाना खाते थे, वही बड़े होकर उनके साथ अमानवीय व्यवहार करते हैं। वे अम्मा का शारीरिक शोषण करते हैं, जैसे उनके अंदर इंसानियत या शर्म बाकी ही नहीं रही हो। पहली बार जब अम्मा के साथ यह सब हुआ, तो वह टूट गईं। उसके बाद वे हर बार बस चुपचाप रो पड़ती हैं जैसे कोई बच्चा गिरकर रोता है। गांव के लोग उनके रोने का मज़ाक उड़ाते हैं।

इस पर लेखिका कहती हैं कि अब क्या करे अम्मा, रोए भी न? यहां कौन सी अदालत है जो अम्मा के लिए न्याय करेगी? यह पंक्ति उस समाज की बेरुख़ी और अन्याय को दिखाती है, जहां एक अकेली महिला की पीड़ा का कोई मूल्य नहीं। हम सभी जानते हैं कि किसी भी व्यक्ति के लिए आर्थिक स्थिति का बेहतर होना बहुत ज़रूरी है। लेकिन समाज की रूढ़िवादी और पितृसत्तात्मक सोच के कारण कई महिलाएं आज भी शिक्षा, संपत्ति और आत्मनिर्भरता से वंचित हैं। न तो उन्हें पैतृक संपत्ति में हिस्सा मिलता है, न ही वे अपने दम पर आगे बढ़ पाती हैं। यह व्यवस्था महिलाओं को हमेशा किसी पुरुष जैसे पिता, भाई या पति पर निर्भर रखती है।

समाज की रूढ़िवादी और पितृसत्तात्मक सोच के कारण कई महिलाएं आज भी शिक्षा, संपत्ति और आत्मनिर्भरता से वंचित हैं। न तो उन्हें पैतृक संपत्ति में हिस्सा मिलता है, न ही वे अपने दम पर आगे बढ़ पाती हैं। यह व्यवस्था महिलाओं को हमेशा किसी पुरुष जैसे पिता, भाई या पति पर निर्भर रखती है।

महिलाओं का सम्मान भी तभी तक कायम रहता है, जब तक वे किसी पुरुष के संरक्षण में हों। यह कहना गलत नहीं होगा कि समाज में महिलाओं का सम्मान असल में उनका नहीं, बल्कि उस रिश्ते का सम्मान है जिससे वे जुड़ी होती हैं। अम्मा के पति की मृत्यु के बाद जब उनका कोई सहारा नहीं रहा, तो वे सबकुछ खो बैठीं- घर, खेत, सम्मान और सुरक्षा। उनके पति की जमीन पर खेती करने को तो लोग आगे आए, लेकिन उनकी देखभाल करने कोई नहीं। परिवार की आपसी लड़ाई में खेत खाली रह गया और अम्मा की परेशानियां और बढ़ गईं। अम्मा की कहानी सिर्फ़ एक औरत की नहीं, बल्कि उस पूरे समाज की है जहां एक अकेली स्त्री की इज़्ज़त और अस्तित्व दोनों खतरे में हैं।

अम्मा की झिझक और महिलाओं की सार्वजनिक दायरे में स्थिति

एक दिन अम्मा अपने भतीजे के घर बैठी होती हैं। वहां पंखे की ठंडी हवा उन्हें बहुत भाती है। वह सोचती हैं कि काश, उनके अपने घर में भी पंखा होता। ज़िंदगी कितनी आसान हो जाती। वह अपनी यह इच्छा रेखा से कहती हैं। रेखा उन्हें सुझाव देती है कि वह ‘प्रधानिन’ के पास जाएं और सरकारी आवास योजना से घर बनवाने की बात करें। रेखा कहती है कि प्रधानिन ज़रूर मदद करेंगी। यह वही गांव है, जहां पहली बार कोई महिला प्रधान बनी है। अम्मा प्रधानिन के घर की ओर चल पड़ती हैं। यहां ‘प्रधानिन’ शब्द दिलचस्प लगता है, क्योंकि गांवों में महिलाओं को इतने सीमित दायरे में रखा गया है कि उनके लिए कोई स्वतंत्र सार्वजनिक पहचान का शब्द ही नहीं है।

अम्मा रास्ते में सोचती हैं और डरती हैं कि क्या मर्दों के बीच जाकर ठीक लगेंगी या कैसे बात करेंगी? लेकिन अम्मा वहां तक पहुंच ही नहीं पातीं। उनका आत्मविश्वास बहुत कमजोर है। वे आधे रास्ते से ही लौट आती हैं। वह सोचती हैं कि रेखा के पति से कहेंगी कि वह साथ चलें और प्रधान से बात कर लें। तभी, जब वह घर के बाहर पानी भर रही होती हैं, एक लड़का आता है और उनके कूल्हे पर हाथ फेर देता है। यह घटना उन्हें भीतर तक तोड़ देती है। उन्हें अपराधबोध होता है कि बीच दोपहरी बाहर जाने की क्या ज़रूरत थी?

प्रधानिन जानती हैं कि अम्मा के साथ किस तरह का अत्याचार होता है। खुद अपने सपनों को छोड़कर ब्याह के आई प्रधानिन को अम्मा का दुख अपना लगता है। वह चाहती हैं कि यह अन्याय हमेशा के लिए खत्म हो। प्रधानिन को यह भी एहसास है कि संविधान में समानता के बावजूद, अगर आरक्षण न होता, तो वह कभी प्रधान नहीं बन पातीं।

दुखी और व्यथित अम्मा दोबारा प्रधानिन के घर जाने का फैसला करती हैं। इस बार वह रुकती नहीं। प्रधानिन के घर पहुंचकर वह बहुत देर तक बैठी रहती हैं। आसपास बैठे पुरुषों के लिए वे एक चर्चा का विषय बन जाती हैं। अम्मा सिर झुकाकर बैठी रहती हैं, आत्मग्लानि में डूबी हुई। तभी अंदर से आवाज़ आती है कि अम्मा को अंदर बुलाओ। यह आवाज़ प्रधानिन की होती है। प्रधानिन उन्हें अपने पास बुलाती हैं और वादा करती हैं कि उनका पक्का घर बनवाया जाएगा। प्रधानिन जानती हैं कि अम्मा के साथ किस तरह का अत्याचार होता है। खुद अपने सपनों को छोड़कर ब्याह के आई प्रधानिन को अम्मा का दुख अपना लगता है। वह चाहती हैं कि यह अन्याय हमेशा के लिए खत्म हो। प्रधानिन को यह भी एहसास है कि संविधान में समानता के बावजूद, अगर आरक्षण न होता, तो वह कभी प्रधान नहीं बन पातीं। अपने पति से उनका इस बात पर झगड़ा भी होता है कि वह सरकारी पैसे का पूरा उपयोग अम्मा के घर बनाने में करती हैं।

वह यह भी सुनिश्चित करती हैं कि किसी को अम्मा को परेशान करने का मौका न मिले, इसलिए उनके घर की सुरक्षा की व्यवस्था कराती हैं। अम्मा खुश थीं कि वह अपने नए पक्के घर में सुरक्षित रहेंगी। गाजर बनाने के बाद अम्मा घर में बैठी धूप सेंक रही थीं। तभी गाँव का एक आदमी वहां आता है और उनके साथ यौन हिंसा की कोशिश करता है। लेकिन आज की अम्मा न तो डरती हैं और न ही चुप रहती हैं। वह गुस्से में भर जाती हैं और जोर-जोर से गालियां देने लगती हैं। उनके हाथ में जो भी चीज़ आती है; चिमटा, बेलन, करछी सब उठाकर उस आदमी पर चला देती हैं और उसे घर से बाहर निकाल देती हैं। क्रोध में अम्मा यह भी भूल जाती हैं कि जिस व्यक्ति के लिए वह कुछ देर पहले शोक दिवस मनाने की बात कर रही थीं, वही व्यक्ति उनका पोता है। उस दिन ‘रोवनवारी अम्मा’ ‘जबरजंग अम्मा’ बन जाती हैं। अब वह अपने डर और शोषण से ऊपर उठ चुकी थीं।

लेखिका की खूबसूरती यही है कि उन्होंने केवल समस्या नहीं दिखाई, बल्कि एक सकारात्मक समाधान भी दिया है। यह कहानी बताती है कि जब महिलाएं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनती हैं, तो उनमें शोषण के खिलाफ खड़े होने की ताकत आती है। साथ ही यह कहानी इस बात पर भी जोर देती है कि राजनीति और सामाजिक दायरे में ही नहीं ऐसे क्षेत्र में नेतृत्व के पदों पर भी महिलाओं की भागीदारी बहुत ज़रूरी है। हर महिला के जीवन में कोई प्राधानिन जैसी सशक्त महिला की जरूरत हो सकती है, जिनके पास सत्ता की ताकत है। यह कहानी हमें यह भी सिखाती है कि सशक्तिकरण केवल नीतियों या कानूनों से नहीं आता, बल्कि तब भी आता है जब महिलाएं अपने भीतर की ताकत को पहचानकर अन्याय के खिलाफ़ खड़ी होती हैं। ‘नए घर में अम्मा’ सिर्फ अम्मा की कहानी नहीं, बल्कि हर उस महिला की आवाज़ है जो डर से नहीं, गरिमा के साथ जीना चाहती है।

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