सांकल, सपने और सवाल लेखिका सुधा अरोड़ा की लिखी हुई किताब है। इसमें अलग-अलग रचनात्मक और वैज्ञानिक लेख शामिल हैं, जो स्त्री-विमर्श को नए और आधुनिक तरीके से प्रस्तुत करते हैं। यह रचनाएं कई सालों से अलग-अलग पत्र-पत्रिकाओं में छपती रही हैं और साल 2018 में इनका पूरा संग्रह एक किताब के रूप में प्रकाशित हुआ। सुधा अरोड़ा लेखिका, कवयित्री, चिंतक होने के साथ -साथ एक काउंसलर और एक्टिविस्ट भी हैं। काउंसलिंग के दौरान वह जिन भी महिलाओं से मिली उनकी समस्याओं को जाना और उन्हें मानसिक स्वास्थ्य समस्या से बाहर निकलने में मदद की। साथ ही उनमें से कुछ कहानियों का विश्लेषण भी किया है। इस किताब में ऐसी तमाम घटनाओं का वर्णन है, जो इस सामाजिक संरचना पर सवालिया निशान खड़ा करते हैं। उनका लेखन उद्देश्य उन लोगों को जागरूक करना है। जो अपने ही अधिकारों से मुंह मोड़ हुए हैं और सामाजिक बेड़ियों में फंस कर अपना पूरा जीवन पितृसत्ता को भेंट कर देते हैं।
वह चाहती हैं, आने वाली पीढ़ी इस समाज को कटघरे में खड़ा करे और अपने लिए न्याय की मांग करे और अपने मानवाधिकारों की रक्षा करते हुए अपना स्थान कायम करे। यह किताब स्त्री विमर्श के लिए उपयोगी इसलिए भी साबित होती है। क्योंकि यह जमीनी हकीकत की कहानियों का संकलन है। जो सच्चाई से परिचय कराती है और पाठकों को अपनी तरफ आकर्षित करती है। भूमिका में लेखिका लिखती हैं कि उनके साथी लोग कहते हैं कि ‘नारीवादी लेखन पुराना हो गया है किसी एक ही विषय पर कितना और क्या लिखना’ उन्हें यह जानना होगा कोई विचार प्रयोग करके फेंकने के लिए नहीं होता। हमें अपनी अवसरवादिता से आगे बढ़ कर सामाजिक सरोकार के लिए काम करना चाहिए। नारीवादी लेखन पर प्रकाश देरी से आया परंतु इसे जिंदा रखना हम सबकी जिम्मेदारी है।
भूमिका में लेखिका लिखती हैं कि उनके साथी लोग कहते हैं कि ‘नारीवादी लेखन पुराना हो गया है किसी एक ही विषय पर कितना और क्या लिखना’ उन्हें यह जानना होगा कोई विचार प्रयोग करके फेंकने के लिए नहीं होता। हमें अपनी अवसरवादिता से आगे बढ़ कर सामाजिक सरोकार के लिए काम करना चाहिए।
धार्मिक प्रतिबंधों से लेकर घरेलू बोझ तक महिलाओं का जीवन
लेखिका अपनी किताब में वर्णन करती हैं, कि धर्मग्रंथों से लेकर सामाजिक व्यवस्था तक महिलाओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार होता है। चाहे वह किसी भी धर्म से संबंध रखती हों। वह मानवता की सीढ़ी पर पुरुष के समान पायदान पर खड़ी नहीं हो पाती है। उसी का परिणाम है कि कई धार्मिक स्थलों में महिलाओं का प्रवेश वर्जित है। यह विडम्बना बड़ी हास्यास्पद है कि जहां महिलाओं के बिना यज्ञ पूरा नहीं होता, किसी तीर्थ का कोई मतलब नहीं होता। वहीं महिलाओं को मंदिरों में प्रवेश करने से वर्जित कर दिया जाता है।
किताब के पहले भाग ‘आर्थिक आत्मनिर्भरता के बाद भी स्त्री मुक्ति एक स्वप्न’ में वह कहती हैं, कि जब महिलाएं घर के बाहर काम कर रहीं हैं। तो उन पर काम का दोहरा बोझ हो गया है सारे घरेलू कामों को करना उनकी नैतिक जिम्मेदारी मानी जाती है। साथ ही अर्जित धन को सास या पति के हाथों में दे देना होता है। आर्थिक आत्मनिर्भरता तब संभव है जब उसे निर्णय लेने दिया जाए। लेकिन बाहर काम करना महिलाओं को केवल मशीन बना रहा है। शादी के बाद अगर किसी कारणवश लड़की ससुराल वापस जाने से मना करे तो उसको शिक्षा और नौकरी के नाम का ताना दिया जाता है। उसे वापस भेज दिया जाता है, फिर चाहे उसकी बुनियादी जरूरतें भी पूरी हो रही हो या नहीं।
धर्मग्रंथों से लेकर सामाजिक व्यवस्था तक महिलाओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार होता है। चाहे वह किसी भी धर्म से संबंध रखती हों। वह मानवता की सीढ़ी पर पुरुष के समान पायदान पर खड़ी नहीं हो पाती है। उसी का परिणाम है कि कई धार्मिक स्थलों में महिलाओं का प्रवेश वर्जित है।
लड़कियों के लिए ‘एक दरवाज़ा’ क्यों ज़रूरी है?
लड़कियों की कथित आत्महत्या से मौत की घटनाओं को ध्यान में रखते हुए वह एक अध्याय लिखती हैं, ‘कम से कम एक दरवाज़ा’ जिसमें उन तमाम आत्महत्या से हुई मौतों का जिक्र है। जो लड़कियां अपनी पसंद से शादी करती हैं, जो कि उनके परिवार को पसंद नहीं होता। वहीं पितृसत्तात्मक समाज में पनपता पुरुष,पुरुषत्व के अहम से भरा अपनी पत्नी की आज़ादी के भाव को स्वीकार नहीं कर पाता है, और वह उसके साथ मानसिक और शारीरिक हिंसा शुरू कर देता है। इन लड़कियों के पास पीछे कोई रास्ता नहीं रह जाता जिससे वे आत्महत्या से मौत के लिए विवश हो जाती हैं। लेखिका की कहानियों ने उन्हें जीविका चलाने के लिए आय अर्जित करने का रास्ता दिखा दिया। लेकिन हम उन्हें जीवन जीने की कला, विपरीत परिस्थितियों का सामना करने का तरीका और अपने लिए एक दरवाजा खुला रखने के बारे में नहीं सिखा पाए। शायद यहां पर हम महिलाओं को भावनात्मक रूप से मजबूत बना पाने में असफल हैं।
सब कुछ होने के बाद भी ये महिलाएं पुरुषों की आत्मनिर्भरता को खुद से ज्यादा महत्व देती हैं। यही नहीं उन्हें अपने आप को समझने और जानने में जीवन के अमूल्य पल बीत जाते हैं और फिर देर हो चुकी होती है। लेखिका इस बदलाव के लिए दृश्य मीडिया को ज्यादा असरदार मानती हैं। टी वी चैनलों पर चल रहे धारावाहिकों में अक्सर किसी महिला को देवी के रूप में दिखाया जाता है, उन्हें बंद कर देना चाहिए। वह कहती हैं कि इन अप्रिय घटनाओं से बचने के कई रास्ते हैं जैसे शैक्षिक संस्थाओं में सलाहकारों की नियुक्ति, महिलाओं को यह संदेश देना कि वह जिन चार लोगों के लोक -लाज से अपना जीवन महत्वहीन बना देती हैं। वह चार लोग पुरुषों के लिए भी हैं। घर परिवार की जोड़-तोड़ में केवल महिलाओं को ही अपनी आहुति नहीं देनी होती है। उन्हें यह बताना होगा कि उनमें इतनी योग्यता है कि वे अपने दम से खुशहाल और सुखद जीवन व्यतीत कर सकती हैं। कम से कम एक दरवाजा शीर्षक कविता से वह अभिभावकों को संदेश देती हैं, कि अपनी बेटियों के लिए अपने दरवाजे सदैव खुले रखें ताकि वह अपने जीवन को किसी भी सूरत में खत्म करने के बारे में न सोचें।
लड़कियों की कथित आत्महत्या से मौत की घटनाओं को ध्यान में रखते हुए वह एक अध्याय लिखती हैं, ‘कम से कम एक दरवाज़ा’ जिसमें उन तमाम आत्महत्या से हुई मौतों का जिक्र है। जो लड़कियां अपनी पसंद से शादी करती हैं, जो कि उनके परिवार को पसंद नहीं होता।
स्त्री और पुरुष प्रेम की अवधारणा
प्रेम में बंधन नहीं होता वह आजाद करता है। किसी को दबाकर उसे अपने मन मुताबिक चलाकर प्रेम की उद्द–घोषणा करने वाली आजकल की युवा पीढ़ी ने प्रेम को सुविधा पाने का एक माध्यम मान लिया है। जहां पुरुष प्रेम को सहजता से स्वीकार कर लिया जाता है। वहीं महिला को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। इसलिए लेखिका सवाल करती हैं कि अगर प्रेम महिला विरोधी है तो वह पुरुष समर्थक कैसे हो जाती है? आजकल बदलते समय के साथ प्रेमी और प्रेमिका बदल जाते हैं तो यह किस तरह के समर्पण को दिखाता है?
सिमोन द बोउवा की प्रचलित पंक्ति है कि ‘औरत पैदा नहीं होती बल्कि बनाई जाती है’ उसी प्रकार पुरुष भी पैदा नहीं होता बल्कि समाज उसे निर्मित करता है। इस पितृसत्तात्मकता के खेमें में महिलाओं के साथ इतना अन्याय और शोषण हुआ है कि पुरुषों के साथ हुई ज्यादतियां धूमिल हो जाती हैं। समय के साथ-साथ कुछ ऐसी घटनाओं में बढ़ोत्तरी हुई है, जिसमें पुरुषों का शोषण हुआ जिससे हड़कंप मच गया। इससे उन सभी महिलाओं को एक सीख लेनी चाहिए, कि अपने साथ हो रही हिंसा के खिलाफ बोलने से उनकी घर की इज्जत नहीं जाती है और ना ही परिवार के मान सम्मान को बनाए रखने के लिए हिंसा को सहना उनका दायित्व है। लेखिका कहती हैं कि पुरुष विमर्श भी होना चाहिए लेकिन एक तय किए हुए मानक के आधार पर। उन्हें जानना चाहिए कि उनके साथ हो रहे शोषण का मनोविज्ञान क्या है, आखिर ऐसा क्यों हो रहा है?
सिमोन द बोउवा की प्रचलित पंक्ति है कि ‘औरत पैदा नहीं होती बल्कि बनाई जाती है’ उसी प्रकार पुरुष भी पैदा नहीं होता बल्कि समाज उसे निर्मित करता है। इस पितृसत्तात्मकता के खेमें में महिलाओं के साथ इतना अन्याय और शोषण हुआ है कि पुरुषों के साथ हुई ज्यादतियां धूमिल हो जाती हैं।
स्त्री विमर्श और महिला रचनाकार
महिलाओं के बाहरी क्षेत्र में प्रवेश करने से सामाजिक स्थिति में कुछ बदलाव आया है। पहले उनकी पहचान महज रिश्तों तक सीमित थी। लेकिन यह बदलाव बहुत कम मात्रा में है और इससे संपूर्ण महिलाओं के जीवन को एक बदलती तस्वीर के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। आज भी छोटे- छोटे कस्बों और शहरों में जिस तरह से महिलाओं का शोषण होता है। उस बर्बरता को दरकिनार नहीं किया जाना चाहिए। आज के समय में महिला रचनाकारों को पढ़ा जा रहा है और उनकी सराहना की जाती है। वह प्रमुखता से स्त्री विमर्श को लिखती हैं और उनकी समस्याओं को उजागर करती हैं। लेकिन कुछ नारीवादी विरोधक इस बात का विरोध करते हैं। उनका तर्क है कि जब महिलाएं अपनी पहचान बना रही हैं तो इसकी क्या जरूरत है? हमें इस बात का ख्याल रखना होगा कि कुछ महिलाओं के जागरूक होने से बात नहीं बनेगी। जबकि आज के समय में स्त्री मुक्ति देह मुक्ति को मान लिया गया है। वह इसका विरोध करती हैं महिलाओं की आज़ादी तभी संभव है। जब महिलाओं को इस घिसी- पिटी सामाजिक संरचना से मुक्ति मिलेगी।
इस तरह लेखिका सुधा अरोड़ा ने समाज में उपस्थित सभी समस्याओं पर अपना ध्यान आकर्षित किया है। चाहे मीडिया हो या धर्म की आड में महिलाओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार, फिल्मों में दिखाए जाने वाली भ्रांतियां जो महिलाओं को पीछे धकेलती हैं। अपनी किताब में वह शहरी और ग्रामीण महिलाओं की समस्याओं और प्राकृतिक स्पेस को उजागर कर पाने में सफल होती हैं, उन्होंने महिलाओं के भोगवादी नजरिए के खिलाफ अपना हस्तक्षेप दर्ज कराया है। वह महिला विरोधी रचनाकारों को खुलेआम चुनौती देती हैं। इसके साथ ही यह किताब अपने शीर्षक को सार्थक करते हुए बताती है कि सामाजिक पृष्ठभूमि और सदियों से चली आ रही रूढ़िवादिता जिसके जंजाल में महिलाएं फंसी हुई हैं। लेकिन फिर भी कई प्रश्न उठाती हैं। इसलिए भी यह किताब स्त्री विमर्श में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

