यौन हिंसा किसी के लिए सिर्फ एक बुरा पल नहीं, बल्कि आजीवन याद रहने वाली घटना भी हो सकती है। यौन हिंसा की घटना कितनी भी छोटी क्यों न हो, इसका भावनात्मक, शारीरिक या मानसिक असर कितने दिन या साल होगा, ये हर किसी के लिए अलग हो सकता है। जहां यौन हिंसा क्यों होते हैं, इसके जवाब में कई सामाजिक या मनोवैज्ञानिक कारण हैं, वहीं यौन हिंसा होने पर व्यक्ति विशेष कर कोई महिला का इसे रिपोर्ट न कर पाने के भी कई सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षिक और मनोवैज्ञानिक कारण होते हैं। यौन हिंसा का सामना करने के बाद कानूनी कार्रवाई न करने का विकल्प चुनना किसी महिला के लिए आसान नहीं होता। आज भी बहुत-सी महिलाएं कानून का दरवाज़ा खटखटाने से बचती हैं। इसमें पढ़ी-लिखी और अशिक्षित दोनों तरह की महिलाएं शामिल हैं।
इस विषय को और समझने और जानने के लिए फेमिनिज़म इन इंडिया ने कुछ महिलाओं से बातचीत की। लखनऊ की रहने वाली अंशिका (बदला हुआ नाम) के साथ उनके अपने घर में उनके एक नज़दीकी रिश्तेदार ने उनके साथ यौन हिंसा किया। वो बताती हैं, “उस व्यक्ति का हमारे घर अक्सर आना-जाना होता था। उसकी नज़रें तो मुझे शुरू से ही अजीब-सी लगती थीं, लेकिन वह इस हद तक गिर सकता है यह मैंने नहीं सोचा था। एक दिन वह हमारे घर आया। सर्दियों का महीना था और घर के बाकी लोग दूसरी मंज़िल पर थे। उसने मुझे आवाज़ देकर किसी बहाने से बुलाया।”
सर्दियों का महीना था और घर के बाकी लोग दूसरी मंज़िल पर थे। उसने मुझे आवाज़ देकर किसी बहाने से बुलाया। वह बेड पर कंबल ओढ़कर लेता था। कमरे की लाइट थोड़ी डिम थी। मैं उससे थोड़ी दूरी पर सोफ़े पर बैठी थी और वह मुझसे बातचीत कर रहा था। अचानक मेरा ध्यान गया कि वह असल में मुझे देखकर मास्टरबेट कर रहा था।
वह आगे बताती हैं, “वह बेड पर कंबल ओढ़कर लेता था। कमरे की लाइट थोड़ी डिम थी। मैं उससे थोड़ी दूरी पर सोफ़े पर बैठी थी और वह मुझसे बातचीत कर रहा था। अचानक मेरा ध्यान गया कि वह असल में मुझे देखकर मास्टरबेट कर रहा था। मैं बहुत असहज हो गई और जल्दी से ऊपर के कमरे में जाकर अपनी बहन को यह बात बताई। फिर मैंने अपनी माँ को भी यह बात बताई। उसके बाद से माँ ने उसका हमारे घर में आना-जाना बंद करवा दिया। हालांकि उन्होंने इस घटना के लिए उस व्यक्ति से कोई बातचीत नहीं की और यह बात पिता और भाई तक भी नहीं पहुंची।”
महिलाओं पर सामाजिक इज़्ज़त का दबाव
अंशिका कहती हैं कि इतना ही कर पाना उनके हाथ में था, कानूनी कार्रवाई का तो उन्होंने सोचा भी नहीं। वह कहती हैं कि उनके पास अपने अनुभव के अलावा कोई पुख्ता सबूत भी नहीं था कि वह अपनी बात साबित कर सके। हालांकि उन्हें इस बात का अफसोस है कि यह व्यक्ति खुले में घूम रहा है। यौन हिंसा का सामना कर चुके लोगों विशेषकर महिलाओं के लिए एक चिंता काम करती है कि कोई उनकी बात पर यकीन करेगा या नहीं। आए दिन हमारा ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक समाज यौन हिंसा का सामना कर चुकी महिलाओं के साथ विक्टिम ब्लेमिंग करता है। यौन हिंसा का अनुभव साझा करते हुए बैंगलोर की सुमित्रा (बदला हुआ नाम) बताती हैं कि उन्होंने भी चुप रहने का विकल्प चुना था।
मैं बहुत असहज हो गई और जल्दी से ऊपर के कमरे में जाकर अपनी बहन को यह बात बताई। फिर मैंने अपनी माँ को भी यह बात बताई। उसके बाद से माँ ने उसका हमारे घर में आना-जाना बंद करवा दिया। हालांकि उन्होंने इस घटना के लिए उस व्यक्ति से कोई बातचीत नहीं की और यह बात पिता और भाई तक भी नहीं पहुंची।
सुमित्रा बताती हैं, “मेरे टीम के लीडर ने एक पार्टी के दौरान मेरे निजी अंगों को गलत ढंग से छुआ। इस घटना का मुझपर इतना गहरा असर पड़ा कि मैंने वह जगह और वह नौकरी दोनों छोड़ दी।” लेकिन ऐसा क्या है कि महिलाएं अमूमन ऐसी घटनाओं को रिपोर्ट नहीं कर पाती? इस विषय पर वह कहती हैं, “मैं सदमे में चली गई थी। मुझे लंबे समय तक थेरेपी लेनी पड़ी तब जाकर मैं इस इस घटना को स्वीकार कर पाई और इससे बाहर आ पाई। मैंने खुद की सुरक्षा और हीलिंग को महत्व दी। वह संस्था बहुत बड़ी है और वहां मेरे कई जानने वाले काम करते हैं। मैं नहीं चाहती थी कि मेरी आगे की ज़िन्दगी में मेरी पहचान यौन हिंसा की सर्वाइवर होने तक सिमटकर रह जाए।”
यह साफ है कि कई बार महिलाओं को यह डर होता है कि उनकी समूची पहचान हिंसा या दुर्व्यवहार की सर्वाइवर होने तक सिमटकर रह जाएगी, इसीलिए वे ऐसी घटनाओं के बारे में कानूनी शिकायत करने से घबराती हैं। भारत में गैर-वैवाहिक यौन हिंसा की स्थिति को समझने के लिए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 के आंकड़ों का विश्लेषण किया गया। इस शोध के अनुसार, बीते एक साल में 15-49 साल की लगभग 14 लाख महिलाओं ने गैर-वैवाहिक यौन हिंसा का अनुभव किया। इनमें से 4.4 लाख किशोरियां 15–19 साल वर्ष थीं। शोध के मुताबिक कई महिलाएं और किशोरियां यौन हिंसा को बताने से भी डरती हैं। शोध अनुसार, 42 फीसद महिलाएं और 35 फीसद किशोरियां न तो किसी से मदद लेती हैं और न ही हिंसा के बारे में बताती हैं। पुलिस तक मामला पहुंचने की स्थिति और भी खराब है।
मैं सदमे में चली गई थी। मुझे लंबे समय तक थेरेपी लेनी पड़ी तब जाकर मैं इस इस घटना को स्वीकार कर पाई और इससे बाहर आ पाई। मैंने खुद की सुरक्षा और हीलिंग को महत्व दी। वह संस्था बहुत बड़ी है और वहां मेरे कई जानने वाले काम करते हैं।
सिर्फ 1.9 फीसद महिलाएं और 0.1 फीसद किशोरियां ही घटना की शिकायत पुलिस में दर्ज कराती हैं। शोध के अनुसार ज्यादातर मामलों में हिंसा करने वाले वही लोग थे जिन्हें सर्वाइवर जानती थीं। महाराष्ट्र की रहनेवाली डॉक्टर प्रतिमा (बदला हुआ नाम) यौन हिंसा का अपना अनुभव बताते हुए कहती हैं, “मेरे साथ यह घटना घर पर हुई। कुंडली देखने आए एक ब्राह्मण, जिसे मेरे घरवालों ने ही बुलाया था, मुझे कमरे में ले जाकर मेरे साथ यौन हिंसा की। उस वक्त मैं 24-25 साल के आसपास थी। मैं डॉक्टरी की पढ़ाई कर रही थी। जो कुछ हुआ वह गलत था इससे वाकिफ भी थी, लेकिन इस सबके बावजूद इस घटना के लिए मैं खुद को ही दोष देने लगी थी कि मुझे उस व्यक्ति के साथ कमरे में नहीं जाना चाहिए था।”
वह आगे बताती हैं कि उन्हें उस समय यह हिम्मत ही नहीं हुई कि वे इसके बारे में अपने घरवालों को बता सकें। बाद में जब उन्होंने कुछ सालों बाद इस बारे में घर में बताया तो घरवालों की यही प्रतिक्रिया थी कि किसी को मत बताना। प्रतिमा का अनुभव सिर्फ उनका नहीं है। यह दिखाता है कि किस तरह से समाज और परिवार ऐसी घटनाओं के बारे में चुप रहने को कहते हैं और इसकी शिकायत को इज़्ज़त खराब होने से जोड़ते हैं। सच तो यह है कि कोई महिला यौन हिंसा की प्रतिक्रिया में कानूनी कार्रवाई कर सके, इसके लिए उसे परिवार ही नहीं समाज की तरफ से काफी समर्थन और हिम्मत की ज़रूरत होती है। लेकिन अक्सर उन्हें ये समर्थन न मिलने पर चुप रहने का विकल्प चुनना पड़ता है।
भारत में गैर-वैवाहिक यौन हिंसा की स्थिति को समझने के लिए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 के आंकड़ों का विश्लेषण किया गया। शोध अनुसार, 42 फीसद महिलाएं और 35 फीसद किशोरियां न तो किसी से मदद लेती हैं और न ही हिंसा के बारे में बताती हैं। पुलिस तक मामला पहुंचने की स्थिति और भी खराब है।
यौन हिंसा पर फ्रीज़ हो जाना एक प्रतिक्रिया है
बीते कुछ सालों में मीटू मूवमेंट में महिलाओं ने अपने साथ हुए यौन हिंसा की सालों पुरानी घटनाओं को सोशल मीडिया पर साझा किया था। इसमें कई बड़ी हस्तियों के नाम भी बाहर आए थे। उस दौरान अपने अनुभव साझा करने वाली महिलाओं की बात को खारिज करने की मंशा से कई लोगों ने उनपर यह सवाल उठाया था कि उन्होंने आखिर यह बात कहने में इतने साल क्यों लगाए? यौन हिंसा का सामना करने वाले व्यक्ति विशेषकर महिलाओं का उस वक्त ऐसी घटना को प्रोसेस करने में समय लगना, उनका चुप हो जाना या फ्रीज़ हो जाना भी मनोवैज्ञानिक तौर पर एक प्रतिक्रिया ही है। पहलेपहल तो यह सब होने के लिए खुद को ही दोष देने लगती है। चूंकि यौन हिंसा का सारा दोष महिलाओं पर मढ़ दिया जाता है और यौन हिंसा को इज़्ज़त से जोड़ दिया जाता है, ऐसे में महिलाओं के लिए घटना के तुरंत बाद सामना आकर उसकी शिकायत कर पाना बहुत ही मुश्किल हो जाता है। यौन हिंसा को न सिर्फ महिला, बल्कि एक पूरे परिवार की अस्मिता से जोड़कर देखा जाता है।
कानूनी कार्रवाई में भी रास्ता मुश्किल और खर्चीला होता है जिस कारण शिकायत दर्ज करना काफी मुश्किल हो जाता है। इसके अलावा कई तरह के हिंसा होते हैं जिसमें स्टॉक करने जैसे मामूली समझे जाने वाले अपराध से लेकर बलात्कार जैसे गंभीर अपराध तक शामिल होते हैं। इनमें से कुछ अपराध जैसे ईव टीज़िंग तो समाज में इतने सामान्यीकृत हैं कि महिलाएं खुद भी उन्हें मामूली समझकर नज़रअन्दाज़ कर देती हैं। यौन हिंसा पर महिलाओं की चुप्पी की एक बड़ी वजह यह भी है कि बोलने की उनको भारी कीमत चुकानी पड़ती है। उन्हें बार-बार अपने अनुभवों को दोहराना पड़ता है। साथ ही, समाज उनको इस नज़र से देखता है कि उन्होंने अपना सब कुछ खो दिया। पूरा तंत्र ही ऐसा नहीं है जो महिलाओं को इस बाबत आने की दिशा में सपोर्ट कर सके। जब तक समाज यौन हिंसा के सर्वाइवर को दोष देने की मानसिकता से बाहर नहीं आता, यौन हिंसा की शिकायत का समूचा तंत्र संवेदनशील नहीं बन जाता, तब तक ऐसी उम्मीद करना बेमानी ही होगा कि महिलाएं अपने साथ हुए यौन हिंसा की रिपोर्ट कर पाएंगी या खुलकर बात कर पाएंगी।

