स्वास्थ्यशारीरिक स्वास्थ्य जानें क्या है रिप्रोडक्टिव कोर्सन और भारतीय कानून में इसके प्रावधान

जानें क्या है रिप्रोडक्टिव कोर्सन और भारतीय कानून में इसके प्रावधान

भारत में अबॉर्शन मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी (MTP) एक्ट के तहत कानूनी रूप से संभव है। फिर भी, रिप्रोडक्टिव कोर्सन पर कोई स्पष्ट कानून नहीं है।

भारत में बहुत लंबे समय से महिलाओं के शरीर और उनके अधिकारों पर उनकी अपनी इच्छा से ज़्यादा समाज का नियंत्रण रहा है। उनकी ज़रूरतों, पसंद और स्वायत्तता पर कम ध्यान दिया गया है। महिलाएं हमेशा से धार्मिक और पितृसत्तात्मक मर्यादाओं के बीच उलझी रही हैं। औपनिवेशिक समय में भी स्थिति अलग नहीं थी। उस दौर में सती प्रथा जैसी अमानवीय परंपरा थी जिसमें विधवा महिला से उम्मीद की जाती थी कि वह अपने पति की जलती चिता पर खुद को भी जला दे। दूसरी ओर, उसी महिला पर यह भी दबाव होता था कि वह अपनी इच्छा के ख़िलाफ़ भी बच्चे को जन्म दे। यानी उसे अपने शरीर पर कोई अधिकार नहीं था। महिलाओं और भ्रूण के अधिकारों पर जब भी चर्चा होती है तो अधिकतर भ्रूण के हित को ही प्राथमिकता दी जाती है। सख़्त कानूनों की वजह से महिलाओं को अबॉर्शन का अधिकार नहीं मिल पाता था।

ऐसे में कई महिलाओं को मजबूरी में गलत तरीकों से अबॉर्शन कराना पड़ता था, जो अक्सर उनके स्वास्थ्य के लिए बेहद ख़तरनाक साबित होता था। हमारे समाज में यह माना गया कि महिला का गर्भ तभी महत्वपूर्ण है जब वह शादी कर ले, क्योंकि शादी का उद्देश्य ही उसे बच्चा पैदा करने वाली के रूप में देखना माना गया। इस सोच ने महिलाओं की भूमिका को केवल प्रजनन तक सीमित कर दिया। इससे उनके जीवन, सपनों और अस्तित्व का दायरा लगातार छोटा होता गया। इतिहास में लाखों महिलाओं ने लगातार गर्भधारण और प्रसव के कारण गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का सामना किया है। सुरक्षित जन्म नियंत्रण के साधन उपलब्ध न होने और असुरक्षित अबॉर्शन की वजह से अनगिनत महिलाओं को चोट, बीमारियों और कई बार मौत का सामना करना पड़ा है। यह सब इसलिए हुआ क्योंकि उनके शरीर पर उनका अधिकार नहीं था, बल्कि समाज का नियंत्रण था।

रिप्रोडक्टिव कोर्सन का मतलब है किसी व्यक्ति पर बच्चे पैदा करने या गर्भनिरोधक न अपनाने के लिए दबाव डालना। रिप्रोडक्टिव कोर्सन ज़्यादातर महिलाओं, लड़कियों और क्वीयर लोगों के साथ होता जो आमतौर पर पार्टनर, माता-पिता या ससुराल वालों द्वारा किया जाता है।

क्या है रिप्रोडक्टिव कोर्सन?

रिप्रोडक्टिव कोर्सन का मतलब है किसी व्यक्ति पर बच्चे पैदा करने या गर्भनिरोधक न अपनाने के लिए दबाव डालना। रिप्रोडक्टिव कोर्सन ज़्यादातर महिलाओं, लड़कियों और क्वीयर लोगों के साथ होता जो आमतौर पर पार्टनर, माता-पिता या ससुराल वालों द्वारा किया जाता है। इसमें कई तरह की हिंसा शामिल हो सकती है। जैसे, किसी महिला की गर्भनिरोधक गोलियों की जगह शुगर की गोलियां रख देना, कंडोम में छेद कर देना या उसे अबॉर्शन न करने देना। यह किसी टीवी शो की कहानी जैसा लगता है, लेकिन बहुत सारी महिलाओं के लिए यह उनकी रोज़मर्रा की सच्चाई है। कई बार यह दबाव सिर्फ़ पार्टनर ही नहीं बल्कि परिवार के लोग भी डालते हैं।

जैसे जल्दी बच्चा पैदा करने के लिए मजबूर करना या गर्भनिरोधक उपायों के उपयोग पर रोक लगाना। यह उसके शरीर और स्वास्थ्य से जुड़ी स्वतंत्रता में दखल है। रिप्रोडक्टिव कोर्सन घरेलू हिंसा और कंट्रोल का एक गंभीर रूप है, जिसे अक्सर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। महिलाओं की प्रजनन से जुड़ी आज़ादी एक बुनियादी मानवाधिकार है। हर व्यक्ति को यह तय करने का अधिकार होना चाहिए कि वह कब और कितने बच्चे चाहता है। उसे गर्भनिरोधक तरीकों की पूरी जानकारी और सुविधा आसानी से मिलनी चाहिए। इस प्रक्रिया में किसी तरह का भेदभाव, दबाव या हिंसा नहीं होनी चाहिए।

अध्ययन के अनुसार हर 8 में से लगभग 1 महिला यानि 12 फीसद ने अपने पति या ससुराल की तरफ़ से ऐसी हिंसा का अनुभव किया है। इनमें से 42 फीसद महिलाओं को यह दबाव सिर्फ़ पति से, 48 फीसद को सिर्फ़ ससुराल वालों से और 10 फीसद को दोनों का सामना करना पड़ता है।

भारत में आज भी कई महिलाएं आधुनिक गर्भनिरोधक अपनाना चाहती हैं, लेकिन पार्टनर या ससुराल की रोक के कारण ऐसा नहीं कर पातीं। इस वजह से अनचाहे गर्भवस्था के मामले बढ़ जाते हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि यह समस्या काफी बड़ी है, लेकिन इसकी सही जानकारी या आंकड़े बहुत कम हैं। यौन और प्रजनन स्वास्थ्य से जुड़े अधिकारों को अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त है। भारत में भी सरकार आधुनिक गर्भनिरोधक साधनों की पहुंच बढ़ाने और लैंगिक समानता को मजबूत करने पर ज़ोर दे रही है। सतत विकास लक्ष्य 2030 में भी महिलाओं की प्रजनन स्वतंत्रता को एक अहम लक्ष्य माना गया है। रिप्रोडक्टिव कोर्सन को पहचानना और रोकना बेहद ज़रूरी है, ताकि हर महिला अपने शरीर और जीवन से जुड़े फैसले खुद ले सके बिना डर, दबाव और हिंसा के।

उत्तर प्रदेश के 49 ज़िलों में 15–49 साल की 1770 विवाहित महिलाओं पर एक अध्ययन किया गया। इसमें ये जानने की कोशिश की गई कि पति या ससुराल वालों द्वारा रिप्रोडक्टिव कोर्सन कितनी आम है और इसका महिलाओं के प्रजनन स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ता है। अध्ययन के अनुसार हर 8 में से लगभग 1 महिला यानि 12 फीसद ने अपने पति या ससुराल की तरफ़ से ऐसी हिंसा का अनुभव किया है। इनमें से 42 फीसद महिलाओं को यह दबाव सिर्फ़ पति से, 48 फीसद को सिर्फ़ ससुराल वालों से और 10 फीसद को दोनों का सामना करना पड़ता है। रिप्रोडक्टिव कोर्सन का सामना करने वाली 36 फीसद महिलाओं ने बताया कि उनकी हाल की प्रेग्नेंसी अनचाही थी। ऐसी महिलाओं में अनचाही प्रेग्नेंसी की संभावना 4–5 गुना अधिक पाई गई और उनके आधुनिक गर्भनिरोधक इस्तेमाल की संभावना 5 गुना कम थी, उन महिलाओं की तुलना में जिन्हें ऐसी हिंसा का सामना नहीं करना पड़ा। अध्ययन बताता है कि पति और ससुराल वालों की ये हिंसा महिलाओं के प्रजनन अधिकारों और सुरक्षित स्वास्थ्य पर गंभीर असर डालती है।

एक सर्वे के अनुसार, हर पाँच में से सिर्फ़ एक महिला ही आधुनिक गर्भनिरोधक का उपयोग कर पाती है। वहीं अधिकांश महिलाएं दो बच्चों के बाद और बच्चे नहीं चाहतीं। पति के विरोध, हिंसा और नियंत्रण के कारण वे गर्भनिरोधक नहीं अपना पातीं।

आईपीवी और रिप्रोडक्टिव कोर्सन में संबंध

भारत में कई विवाहित महिलाएं अपने पति या साथी द्वारा की जाने वाली हिंसा का सामना करती हैं, जिसे इंटरमेट पार्टनर वायलेंस कहा जाता है। यह हिंसा शारीरिक, यौन और भावनात्मक रूप में हो सकती है। एक राष्ट्रीय सर्वे के अनुसार, भारत में हर तीन में से एक महिला ने जीवन में कभी न कभी ऐसी हिंसा का सामना की है। यह हिंसा महिलाओं के प्रजनन स्वास्थ्य पर सीधा असर डालती है। कई बार महिलाएं अपनी इच्छा के बिना गर्भवती हो जाती हैं या गर्भनिरोधक का इस्तेमाल नहीं कर पातीं। यही कारण है कि कई महिलाएं आधुनिक गर्भनिरोधक अपनाने के बावजूद गर्भवती हो जाती हैं क्योंकि पार्टनर गर्भनिरोधक का उपयोग रोक देते हैं या इसे असफल बना देते हैं। उत्तर प्रदेश में यह समस्या और अधिक देखने को मिलती है। एक सर्वे के अनुसार, हर पाँच में से सिर्फ़ एक महिला ही आधुनिक गर्भनिरोधक का उपयोग कर पाती है। वहीं अधिकांश महिलाएं दो बच्चों के बाद और बच्चे नहीं चाहतीं। पति के विरोध, हिंसा और नियंत्रण के कारण वे गर्भनिरोधक नहीं अपना पातीं। IPV और रिप्रोडक्टिव कोर्सन मिलकर महिलाओं के शरीर, निर्णय और सम्मान पर नियंत्रण करने का साधन बन जाते हैं।

पितृसत्ता, संरचनात्मक असमानताएं और मौजूदा कानून

भारत में पितृसत्ता गहरी जड़ें जमाए हुए है। प्रजनन से जुड़े फैसलों में महिलाओं की एजेंसी अक्सर नज़रअंदाज़ की जाती है। यह स्थिति उनकी एजेंसी को सीमित करती है और कई बार हिंसा और दबाव का रूप ले लेती है। महिलाएं केवल महिला होने की वजह से नहीं, बल्कि अपनी जाति, धर्म, वर्ग, और लैंगिक पहचान के कारण भी भेदभाव का सामना करती हैं। भारत में महिलाओं की यौन और प्रजनन स्वास्थ्य से जुड़ी सेवाओं तक पहुँच अब भी आसान नहीं है। कई डॉक्टर और महिलाएं कानूनी डर और सामाजिक दबाव के कारण अबॉर्शन जैसे अधिकारों का इस्तेमाल करने से हिचकती हैं। इससे महिलाओं को असुरक्षित तरीकों का सहारा लेना पड़ता है, जो उनके स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है। भारत में अबॉर्शन मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी (MTP) एक्ट के तहत कानूनी रूप से संभव है। फिर भी, रिप्रोडक्टिव कोर्सन पर कोई स्पष्ट कानून नहीं है।

भारत में अबॉर्शन मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी (MTP) एक्ट के तहत कानूनी रूप से संभव है। फिर भी, रिप्रोडक्टिव कोर्सन पर कोई स्पष्ट कानून नहीं है।

घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम महिलाओं को घरेलू हिंसा से सुरक्षा देता है। इसमें शारीरिक, यौन, भावनात्मक, मौखिक और आर्थिक हिंसा को अपराध माना गया है। अगर किसी महिला को ज़बरदस्ती गर्भवती किया जाता है या उसे अपने प्रजनन स्वास्थ्य पर निर्णय लेने से रोका जाता है, तो यह भी घरेलू हिंसा में आता है। ऐसे मामलों में महिला इस कानून का उपयोग करके न्याय और संरक्षण पा सकती है। अनुच्छेद 21 हर व्यक्ति को जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार देता है। अदालतों ने साफ कहा है कि इसमें प्रजनन से जुड़े फैसलों की स्वतंत्रता भी शामिल है।

वहीं सुचिता श्रीवास्तव और के.एस. पुट्टस्वामी के मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने माना है कि महिला की निजता, सम्मान और शरीर पर उसका अधिकार ही प्रजनन अधिकारों का आधार है। किसी भी तरह का दबाव या ज़बरदस्ती इन अधिकारों का उल्लंघन है। भारत में अक्सर महिलाओं पर बेटे की चाह या परिवार के आकार को लेकर दबाव डाला जाता है। पति या ससुराल वाले महिलाओं को गर्भनिरोधक इस्तेमाल नहीं करने देते या जबरन गर्भधारण कराते हैं। यौन शिक्षा की कमी और सामाजिक मान्यताएं इन समस्याओं को और बढ़ाती हैं। इससे महिलाओं की प्रजनन स्वतंत्रता कम हो जाती है और अनचाहे गर्भधारण की स्थिति बनती है।

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