हमारे पुरुष प्रधान समाज की रूढ़िवादी मानसिकता महिलाओं को अक्सर आदर्श बेटी और आदर्श महिला वाले खांचे में सीमित करके रखना चाहती है। लेकिन इसके विपरीत अगर कोई महिला समाज के इन दकियानूसी नियमों को न मानते हुए अपने मुताबिक जीने की कोशिश करती है। तो समाज उस महिला को बहिष्कृत करने की कोशिश में लग जाता है। अविवाहित महिलाएं जो तीस की उम्र पार कर चुकी हैं, गांवों और शहरों में उनका जीवन चुनौतीपूर्ण हो जाता है। गौरतलब है कि, एक महिला का अविवाहित रहना उसका निजी फैसला कभी नहीं माना जाता है। वो एक सामूहिक और सामाजिक कथित इज्ज़त का विषय बन जाता है। यहां तक कि इसे एक कमी के रूप में देखा जाता है। महिलाओं या लड़कियों को अक्सर समाज और परिवार की ओर से इतना प्रेशर डाल दिया जाता है कि वो या तो किसी भी लड़के से शादी करने के लिए मजबूर हो जाती हैं या फिर घर से बाहर निकलना बंद कर देती हैं। ताकि लोगों के तानों से बच सकें।
इसका असर उस लड़की या महिला के मानसिक स्वास्थ्य पर ही नहीं पड़ता है, बल्कि सोसायटी का प्रेशर उसके परिवार वालों को भी मानसिक रूप से अस्वस्थ कर देता है। परिवार का यह डर, ‘लोग क्या कहेंगे’ कई बार उसके आत्मविश्वास को तोड़ देता है और धीरे-धीरे वह महिला खुद को समाज की अपेक्षाओं के हिसाब से आंकने लगती है। शायद समाज में रूढ़िवादी मानसिकता रखने वाले लोगों को यह डर रहता है। अगर कोई महिला बिना शादी के अपनी मर्जी से सारी चीजें करेगी तो वो आज़ाद हो जाएगी। इसलिए शायद एक महिला का अविवाहित रहना किसी को अच्छा नहीं लगता है। लेकिन असल में सवाल तो यह है कि क्या एक महिला का मूल्य सिर्फ उसकी उम्र, शादी और मातृत्व से तय होना चाहिए? या शिक्षा और उसकी आज़ादी से तय होना चाहिए?
ज़्यादा दुख तब होता है जब अपने ही नहीं समझते, मेरी भांजी की शादी हो रही है। कुछ दिनों में तो सब बोल रहे हैं कि उसकी शादी से पहले तुम शादी कर लो। अब मैं इतना थक चुकी हूं इन सब बातों से कि अगर कोई सड़क पर चलता लड़का भी मुझे शादी के लिए बोले तो मैं चुपचाप शादी कर लूंगी।
सामाजिक बहिष्कार और ताने
डेक्कन हेराल्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में शादी को आज भी एक महिला की पहचान और सम्मान का केंद्र माना जाता है। साल 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में 7 करोड़ से ज़्यादा महिलाएं ऐसी हैं, जो किसी शादीशुदा रिश्ते में नहीं है। यह संख्या भारत की महिला आबादी का लगभग 12 फीसदी है। गाँवों में गहरी जड़ें जमाए रखने वाली परंपरागत मानसिकता के कारण अविवाहित महिलाओं को लगातार एक ऐसे सामाजिक माहौल से गुजरना पड़ता है। जहां उनकी बढ़ती उम्र, शादी न होना, और आज़ादी तीनों को एक समस्या की तरह देखा जाता है। इस विषय पर कांगड़ा की रहने वाली 32 वर्षीय दीपा( नाम बदल दिया गया है) से बात हुई। इनके अलावा इनकी 7 बहने और भी हैं, जिनमें से इनसे बड़ी 6 बहनों की शादी हो चुकी है। यह अपना अनुभव साझा करते हुए बताती हैं, “ शादी न होने की बजह से हर रोज़ मुझे ताने सुनने पड़ते हैं। यहां तक कि मेरे रिश्तेदार हर तीसरे दिन एक नए लड़के का रिश्ते भेजते रहते हैं। शादी की जितनी टेंशन में खुद नहीं लेती, उससे कहीं ज्यादा मुझे परिवार वालों ने टेंशन लेने के लिए मजबूर कर दिया है। इतनी उम्र हो गई है, अब कौन लड़का मिलेगा तुम्हें, जब हर जगह से ऐसी बातें सुनती हूं। तो मुझे लगने लगता है कि यही सच है। मैं खुद नौकरी करके अपना खर्चा चला रही हूं। लेकिन बिना शादी के मैं किसी लायक नहीं हूं लोगों की नज़रों में। “
आगे वह बताती हैं, “ ज़्यादा दुख तब होता है जब अपने ही नहीं समझते, मेरी भांजी की शादी हो रही है। कुछ दिनों में तो सब बोल रहे हैं कि उसकी शादी से पहले तुम शादी कर लो। अब मैं इतना थक चुकी हूं इन सब बातों से कि अगर कोई सड़क पर चलता लड़का भी मुझे शादी के लिए बोले तो मैं चुपचाप शादी कर लूंगी।” इससे यह साफ तौर पर देखा जा सकता है कि एक महिला जो अपने परिवार के लिए सहारा बनी हुई है, वही समाज की नज़रों में समस्या बन जाती है, सिर्फ इसलिए कि उसने अभी तक शादी का चुनाव नहीं किया। इस विषय पर उत्तराखंड की रहने वाली 31 वर्षीय दया अपना अनुभव साझा करते हुए कहती हैं, “ कई बार ऐसा लगता है, कि मुझे अनदेखा किया जा रहा है। जब कोई बात चल रही हो और मैं अपना सुझाव दूं। तो ऐसा सुनने को मिलता है कि इसे क्या पता होगा इसकी तो शादी ही नहीं हुई है।”
जब मैं 2 साल घर नहीं लौटी तो लोगों ने यह कहना शुरू कर दिया कि या तो मैं बाहर रहकर कोई गलत काम कर रही हूं। या मैंने शादी कर ली है । हालांकि अब मैं घर में रह रही हूं और जॉब भी कर रही हूं । तब भी लोगों का एक ही नजरिया है कि ये बाहर रहकर आई है, फिर भी बिना शादी के कैसे रह रही है। इतनी उम्र हो गई है अब तो शादी कर लेनी चाहिए।
महिलाओं की एजेंसी की बात क्यों नहीं की जाती ?
महिलाओं की एजेंसी यानी अपने फैसले खुद लेने का अधिकार हमारे समाज में अक्सर एक असुविधाजनक विषय रहा है। क्योंकि अक्सर यह समझा जाता है कि महिलाओं को हमेशा मार्गदर्शन की जरूरत होती है, जो कि बिल्कुल भी सही नहीं हैं। जब कोई महिला खुद के निर्णय खुद लेने लगती है जैसे कब और क्यों शादी करनी है?, बच्चे चाहिए या नहीं, किस तरह की नौकरी करनी है आदि। ये सारे फैसले उन रूढ़िवादी नियमों को हिलाते हैं जो सदियों से उन पर जबरदस्ती थोपे गए हैं। समाज में आज़ादी को हमेशा पुरुषों से जोड़कर देखा जाता है। उनकी आज़ादी को व्यक्तिगत तौर देखा जाता है। जबकि महिलाओं की आज़ादी को परिवार और समाज की इज्ज़त से जोड़कर देखा जाता है और तरह – तरह के सवाल पूछे जाते हैं।
यह मेरा खुद का अनुभव है। जब मैंने हिमाचल से बाहर पढ़ाई और नौकरी करने का निर्णय लिया तो मुझे कई तरह के सवालों का सामना करना पढ़ा । जैसे इतनी दूर क्यों जा रही हो ? पढ़ाई यहां भी तो हो सकती है, अकेली रहोगी, या किसी के साथ रहोगी ? जब मैं 2 साल घर नहीं लौटी तो लोगों ने यह कहना शुरू कर दिया कि या तो मैं बाहर रहकर कोई गलत काम कर रही हूं। या मैंने शादी कर ली है । हालांकि अब मैं घर में रह रही हूं और जॉब भी कर रही हूं । तब भी लोगों का एक ही नजरिया है कि ये बाहर रहकर आई है फिर भी बिना शादी के कैसे रह रही है। इतनी उम्र हो गई है अब तो शादी कर लेनी चाहिए। मैं अपने जीवन का हर निर्णय खुद ले रही हूं, शायद इसलिए मैं समाज की नज़रों में एक अच्छी या आदर्श लड़की नहीं हूं।
मेरे माता – पिता कभी मुझे शादी को लेकर कुछ नहीं बोलते। लेकिन हमारे रिश्तेदार मुझे हमेशा कुछ न कुछ बोलते रहते हैं, कि कब तक बोझ बनी रहोगी, टाइम से शादी हो जाती तो तुम्हारे बच्चे भी टाइम से पल जाते। बढ़ती उम्र के साथ बच्चे होने में दिक्क्त होगी।
रिश्तों और मातृत्व का दबाव
परिवार और समाज को लगता है कि महिलाएं अकेले नहीं जी सकतीं, उन्हें किसी पुरुष का सहारा चाहिए। अगर महिलाओं को शुरू से परिवार और समाज का थोड़ा भी समर्थन मिल जाता, तो शायद आज जेंडर के आधार पर समानता के ऊपर इतने सवाल नहीं उठाए जाते। इस विषय पर कांगड़ा की रहने वाली 31 वर्षीय शांति अपना अनुभव साझा करते हुए बताती हैं, “मेरे माता – पिता कभी मुझे शादी को लेकर कुछ नहीं बोलते। लेकिन हमारे रिश्तेदार मुझे हमेशा कुछ न कुछ बोलते रहते हैं, कि कब तक बोझ बनी रहोगी, टाइम से शादी हो जाती तो तुम्हारे बच्चे भी टाइम से पल जाते। बढ़ती उम्र के साथ बच्चे होने में दिक्क्त होगी। ये बातें सुनकर अब मुझे यह लगने लगा है कि जो लोग बोल रहे हैं वो सही है।“
समाज की नज़रों में एक महिला का माँ बनना बहुत ज़रूरी माना जाता है। चाहे वो माँ बनना चाहती हो या नहीं ये कभी मायने नहीं रखा जाता। इसी के चलते मार्केट में आजकल एग फ्रीजिंग का एक नया ट्रेंड उभरकर सामने आया है। जिसको यह कहकर प्रमोट किया जाता है कि अगर कोई महिला अपना करियर बना रही है तो अच्छी बात है। कोई बात नहीं शादी बाद में कर लेना। लेकिन एग फ्रीजिंग करवा लो ताकि शादी के बाद बच्चे पैदा करने में समस्या न हो। यानी चाहे महिला कितनी भी काबिल क्यों न हो जाए बच्चे पैदा करना बहुत ज़रूरी है। हालांकि यह प्रक्रिया काफी महंगी है इसमें 1.5 लाख रुपये या उससे भी ज़्यादा का ख़र्चा भी आ सकता है। फिर भी इसके माध्यम से उपभोक्तावाद को बढ़ावा दिया जा रहा है। हालांकि ग्रामीण इलाकों में इसका चलन नहीं है फिर भी विज्ञापनों आदि के माध्यम से यह एक सामाजिक प्रेशर का रूप ले चुका है महिलाओं के लिए।
अगर मैं किसी शादी या फंक्शन में चली जाऊं तो वहां मेरा डांस और इंजॉय करने का मन होता है। लेकिन मैं नहीं कर पाती क्योंकि हमेशा डर लगा रहता है कि लोग मुझे जज करेंगे। जब मेरी छोटी बहन की शादी की तैयारियां हो रही थीं, तब मेरे मन में एक अलग ही हलचल थी कि अब लोग मेरे पीछे पड़ेंगे। उसकी शादी इंजॉय कम करेंगे और मुझसे सवाल ज़्यादा करेंगे। यह सोचकर ही मुझे बहुत तनाव महसूस हो रहा था।
हिंसा का मौन रूप मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव
तीस की उम्र के बाद अविवाहित महिलाओं पर डाला जाने वाला सामाजिक दबाव अक्सर दिखाई नहीं देता, लेकिन यह हिंसा का एक बेहद खतरनाक और मौन रूप होता है। दया बताती हैं, “अगर मैं किसी शादी या फंक्शन में चली जाऊं तो वहां मेरा डांस और इंजॉय करने का मन होता है। लेकिन मैं नहीं कर पाती क्योंकि हमेशा डर लगा रहता है कि लोग मुझे जज करेंगे। जब मेरी छोटी बहन की शादी की तैयारियां हो रही थीं, तब मेरे मन में एक अलग ही हलचल थी कि अब लोग मेरे पीछे पड़ेंगे। उसकी शादी इंजॉय कम करेंगे और मुझसे सवाल ज़्यादा करेंगे। यह सोचकर ही मुझे बहुत तनाव महसूस हो रहा था।” मुझे ऐसा भी लगता है कि 28 से 30 साल की कोई भी अविवाहित लड़की अपने घर में नहीं रह सकती है। मैं अब घर में रुक कर अपना कोई खुद का काम शुरू करना चाहती हूं। लेकिन यह मेरे लिए बहुत ज़्यादा कठिन है क्योंकि अब मुझमे वो हिम्मत नहीं रही है कि लोगों के सवालों के जवाब दे पाऊं। इस वजह से मैं अपने घर में नहीं रहना चाहती।”
इस विषय पर दिल्ली की रहने वाली 31 वर्षीय काव्या नाम बदल दिया गया है। यह दिल्ली में पीएचडी की पढ़ाई करती हैं। वह बताती हैं, “पहले मुझे लगता था कि मेरे पास एजुकेशन की पावर होगी तो मैं खुद के लिए निर्णय ले पाउंगी। लेकिन, समाज के दबाव का मुझ पर इतना इम्पैक्ट हुआ कि मेरा एक इंडिपेंडेंट महिला होने का सपना कहीं खो सा गया है। अब मेरे लिए शादी करना फर्स्ट प्रायोरिटी बन गया है। अब मुझे ऐसा लगने लगा है कि मैंने इतनी पढ़ाई की ही क्यों।” क्योंकि लोगों के लिए पढ़ाई नहीं लुक्स या आप कैसे दिखते हो वो मेटर करता है।अब ऐसा हो गया है कि मेरे लिए जो भी रिश्ता आता है मैं उसके लिए हां कर देती हूं। चाहे लड़का कैसा भी हो मुझे पता होता है कि वो मेरे लेबल का नहीं है फिर भी। उसके बाद भी उस रिश्ते के लिए मना हो जाता है। अब ऐसा लगता है कि मेरे पास कोई उम्मीद ही नहीं बची है। कभी -कभी आत्महत्या से मौत के ख्याल भी आने लगते हैं। इसकी वहज से मेरी पढ़ाई पर भी असर हो रहा है। मैं किसी चीज पर फोकस नहीं कर पा रही हूं।”
पहले मुझे लगता था कि मेरे पास एजुकेशन की पावर होगी तो मैं खुद के लिए निर्णय ले पाउंगी। लेकिन, समाज के दबाव का मुझ पर इतना इम्पैक्ट हुआ कि मेरा एक इंडिपेंडेंट महिला होने का सपना कहीं खो सा गया है। अब मेरे लिए शादी करना फर्स्ट प्रायोरिटी बन गया है। अब मुझे ऐसा लगने लगा है कि मैंने इतनी पढ़ाई की ही क्यों।
अविवाहित महिलाओं पर तीस की उम्र के बाद बढ़ता सामाजिक दबाव केवल उनके निजी जीवन का मामला नहीं है, बल्कि यह हमारे समाज के पितृसत्तात्मक ढांचे की गहरी जड़ों को सामने लाता है। यह दबाव हर उस महिला को चुपचाप तोड़ देता है जो अपने फैसले खुद लेना चाहती है।चाहे वह करियर हो, शादी हो, मातृत्व हो या अकेले रहने का चुनाव। अक्सर समाज यह भूल जाता है कि एक महिला की पहचान उसकी उम्र, शादी या मातृत्व से नहीं, बल्कि उसकी इच्छाओं, मेहनत और आज़ादी से तय होती है। जरूरी यह है कि परिवार और समाज महिलाओं की एजेंसी को स्वीकार करें और यह समझे कि केवल शादी करना ही एक महिला की ज़िंदगी का आखरी बिकल्प नहीं है।

