समाजख़बर एक विवाहित महिला का ‘शादीशुदा दिखना’ क्यों ज़रूरी है?

एक विवाहित महिला का ‘शादीशुदा दिखना’ क्यों ज़रूरी है?

आम तौर पर महिलाओं को आदर्श भी तभी समझा जाता है, जब वे ऐसे रीति-रिवाजों का पालन करती हैं। लेकिन सोचने वाली बात ये हैं कि एक शादीशुदा औरत के लिए ही शादीशुदा दिखना क्यों  ज़रूरी है? वहीं एक मर्द के लिए ऐसी कोई भी परंपरा या रीति-रिवाज नहीं बनाए गए।

हाल ही में मध्य प्रदेश के इंदौर की एक पारिवारिक अदालत ने कहा है कि ‘सिंदूर’ पहनना एक विवाहित हिंदू महिला का धार्मिक कर्तव्य है क्योंकि यह उसकी वैवाहिक स्थिति को दर्शाता है। इंदौर फैमिली कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश एनपी सिंह ने 1 मार्च को पारित एक आदेश में एक महिला को तत्काल प्रभाव से अपने पति के घर लौटने का निर्देश देते हुए यह टिप्पणी की। अक्सर यह देखा जाता है कि शादी और रीति–रिवाजों के नाम पर केवल महिलाओं पर ही पाबंदी लगाई जाती है। शादीशुदा होने का प्रमाण भी केवल महिलाओं से ही मांगा जाता है। त्योहार मानने की जिम्मेदारी भी महिलाओं की होती है, व्रत भी केवल महिलाओं को रखने होते हैं।

इसी तरह पत्नी को पति के खाने के बाद ही खाना खाना चाहिए, हमेशा सिर पर पल्लू रखना चाहिए, कितनी भी गर्मी या असुविधा हो, नई-नवेली दुल्हन को सोलह श्रृंगार करना चाहिए ये बातें हमारा पितृसत्तात्मक समाज महिलाओं को ही कहता है। आम तौर पर महिलाओं को आदर्श भी तभी समझा जाता है, जब वे ऐसे रीति-रिवाजों का पालन करती हैं। लेकिन सोचने वाली बात ये हैं कि एक शादीशुदा औरत के लिए ही शादीशुदा दिखना क्यों  ज़रूरी है? वहीं एक मर्द के लिए ऐसी कोई भी परंपरा या रीति-रिवाज नहीं बनाए गए। हिंदी और उर्दू सामाजिक कथा साहित्य के अग्रणी मुंशी प्रेमचंद कहते हैं कि कोई अन्याय केवल इसलिए मान्य नहीं हो सकता कि लोग उसे परंपरा से सहते आए हैं।

आम तौर पर महिलाओं को आदर्श भी तभी समझा जाता है, जब वे ऐसे रीति-रिवाजों का पालन करती हैं। लेकिन सोचने वाली बात ये हैं कि एक शादीशुदा औरत के लिए ही शादीशुदा दिखना क्यों  ज़रूरी है? वहीं एक मर्द के लिए ऐसी कोई भी परंपरा या रीति-रिवाज नहीं बनाए गए।

औरतों की इच्छा के आगे पितृसत्ता का खेल

कुछ औरतें शादी के बाद सिंदूर, मंगलसूत्र, चूड़ा, बिछिया यह सब पहनती हैं। वहीं कुछ औरतें ऐसी भी होती हैं, जो ये सब पहनना पसंद नहीं करती। क्या पहनना है, क्या नहीं पहनना है, ये पूरी तरह से व्यक्तिगत इच्छा है। समाज का इन सारी चीज़ों से सरोकार न होते हुए भी जो औरतें इन रीति-रिवाजों के खिलाफ जाकर व्यक्तिगत इच्छा को प्रधान मानती हैं, उनका चरित्र हनन बड़ी आसानी से किया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि सब कुछ पहले से ही निर्धारित होता है। किसका जन्म कहां होगा, कब होगा, किसकी मृत्यु कहां होगी, कब होगी, यह सब कुछ पहले से ही लिखा जा चुका है।

तस्वीर साभार: English Jagran

फिर विरोधाभास बात यह आती है कि पत्नी के करवाचौथ व्रत और अपनी मांग में सिंदूर लगाने से क्या उनके पति के पहले से निर्धारित आयु बदल जाएगी? परेशानी यह नहीं है कि सिंदूर क्यों लगा रही है। परेशानी यह है कि जिनकी मर्जी होगी वह लगाएंगे जिनकी नहीं होगी वह नहीं लगाएंगे। लेकिन जो नहीं लगाती है, उनके ऊपर यह सब नहीं थोपा जाना चाहिए। यह भी कहा जाता है कि मंगलसूत्र, सिंदूर, बिछिया, चूड़ा यह सब पत्नियों का अपने पतियों के लिए प्रेम है, जो समर्पण के तौर पर ज़ाहिर होता है। पर जब शादी दो लोगों में होती है तो समर्पण एकतरफा ही क्यों?

परेशानी यह नहीं है कि सिंदूर क्यों लगा रही है। परेशानी यह है कि जिनकी मर्जी होगी वह लगाएंगे जिनकी नहीं होगी वह नहीं लगाएंगे। लेकिन जो नहीं लगाती है, उनके ऊपर यह सब नहीं थोपा जाना चाहिए।

अदृश्य बेड़ियां और बॉलीवुड

यह विचारधारा कि शादीशुदा महिला के लिए मंगलसूत्र, सिंदूर, बिछिया या चूड़ा जरूरी हैं और इनसे उनके जीवनसाथी का जीवन काल जुड़ा है, इसे धार्मिक से ज्यादा भावनात्मक और जिम्मेदारी दिखाने में बॉलीवुड ने भी अहम भूमिका निभाई है। लेकिन यह इन रीति-रिवाजों में छिपी हुई पितृसत्ता है जो महिलाओं को भारतीय समाज में जड़ें जमाकर उनको अपनी इच्छा के बजाय अधीन रहना और उन भूमिकाओं से बांधती है। बॉलीवुड ने सदियों से मूल रूप से सिंदूर और मंगलसूत्र की अहमियत और ताकत दिखाया है जिसका सीधा संबंध पति के जीवनकाल का होता है। हालांकि कुछ एक फिल्में हैं, जहां पितृसत्ता पर ध्यान देने की कोशिश की गई है। जैसा कि बुलबुल फिल्म का एक दृश्य जो हमारी संस्कृति के बारे में बहुत कुछ बताता है।

तस्वीर साभार: My Glam

फिल्म के एक दृश्य में एक मासूम सी लड़की पूछती है कि पांव में बिछिया क्यों पहनते हैं। उसकी मासी जवाब देती है क्योंकि वहां पर एक नस होती है। अगर उसे न दबाओ तो लड़कियां उड़ जाती हैं। बिल्कुल चिड़िया की तरह? नहीं,  वश में रखने के लिए होती है बिछिया। कभी सुंदरता, कभी औरतों का गहना, तो कभी कर्तव्य कहकर औरतों के जिस्म पर कितनी आसानी से बेड़ियों को बांधा गया है। बचपन में ही मेरी दादी ने 1 किलो गेहूं के बदले मेरे नाक और कान छिदवाए थे। बहुत रो रही थी मैं। शायद छोटी थी इसीलिए सहनशीलता भी कम थी। लेकिन भारतीय समाज आज भी ऐसा है कि आज जब किसी लड़के को कान छिदवाने होते हैं, तो उन्हें साफ-साफ मना कर दिया जाता है कि ये सब लड़कियों का काम हैं। महानगरों में कुछ एक उदाहरणों को छोड़कर खासकर गांवों और कस्बों में ऐसे नियम सिर्फ लड़कियों के लिए हैं।

बचपन में ही मेरी दादी ने 1 किलो गेहूं के बदले मेरे नाक और कान छिदवाए थे। बहुत रो रही थी मैं। शायद छोटी थी इसीलिए सहनशीलता भी कम थी। लेकिन भारतीय समाज आज भी ऐसा है कि आज जब किसी लड़के को कान छिदवाने होते हैं, तो उन्हें साफ-साफ मना कर दिया जाता है कि ये सब लड़कियों का काम हैं।

परंपराओं के नाम पर ठगी जाती महिलाएं

हमने अक्सर सुना है महिलाओं को कहा जाता है कि सिंदूर लगाया करो, और सुंदर लगती हो। लेकिन कहावत है कि खूबसूरती देखने वालो की आंखों में होती है। खूबसूरती का झांसा देकर रूढ़िवादी परंपराएं सिर्फ महिलाओं पर ही थोपी गई हैं। हम स्त्रियां सच में ठगी गई हैं। इस विषय पर मैंने जब एक शादीशुदा औरत से पूछा कि वह सिंदूर क्यों लगाती है, तो उनका जवाब था कि अपने सुहाग की लंबी उम्र के लिए वह सिंदूर लगाती है। वह सिंदूर, मंगलसूत्र यह सब एक शादीशुदा औरत के लिए क्यों जरूरी है, यह बताती हैं। लेकिन जब मैंने पूछा कि ये सब पुरुषों के लिए यह क्यों नहीं है? इसपर उनका कहना था कि पुरुष वैसे ही सुंदर लगते हैं।  वह समझाती हैं कि दो शादीशुदा औरतें अगर आमने-सामने खड़े कर दिए जाए, जिसमें से एक सिंदूर और मंगलसूत्र पहनती है और दूसरी नहीं तो उन दोनों में से ज्यादा सुंदर वह औरत लगती है जिसने सिंदूर और मंगलसूत्र लगाया और पहना होगा।

स्त्रियों को गहनों के कारण कम आंकना तो बरसो पुरानी रीति है। समर्पण के नाम पर पितृसत्तात्मक सोच को बढ़ावा देने का काम बड़ी बखूबी निभाया गया है। सबसे जरूरी बात यह है कि किसे क्या कब पहनना है, यह किसी व्यक्ति का व्यक्तिगत सोच और फैसला है। अगर किसी महिला को सिंदूर लगाने और मंगलसूत्र पहनने से समर्पण का भाव आता है, तो वह बेशक यह सब करें। लेकिन जिन महिलाओं को यह सब करना अच्छा नहीं लगता या उनकी पसंद नहीं है, उनकी जिंदगी में इस छोटी सी चीज के लिए लोगों का महिला के चरित्र पर सवाल या उसके प्रेम और निष्ठा पर शक अस्वीकार्य है। कई महिलाएं कहती हैं कि पुरुषों को किसी भी चीज़ की पाबंदी नहीं है। वह जो चाहे करें। जब मैं ने कुछ महिलाओं से पूछा कि वे ऐसा क्यों सोचती हैं, तो उन्होंने कहा कि पता नहीं। बचपन से यही सुनते और देखते आए हैं। वह यह भी कहती है कि यह सब भगवान ने बनाया है। पीरियड्स से लेकर गर्भावस्था, घर के सारे काम, कच्ची उम्र में शादी, पति के नाम का सिंदूर और मंगलसूत्र- यह सब भगवान ने महिलाओं के लिए बनाया है।

स्त्रियों को गहनों के कारण कम आंकना तो बरसो पुरानी रीति है। समर्पण के नाम पर पितृसत्तात्मक सोच को बढ़ावा देने का काम बड़ी बखूबी निभाया गया है। सबसे जरूरी बात यह है कि किसे क्या कब पहनना है, यह किसी व्यक्ति का व्यक्तिगत सोच और फैसला है।

क्यों महिलाओं का शादीशुदा दिखना जरूरी है

बहुत सी महिलाएं शादी के बाद शादीशुदा दिखना जरूरी नहीं समझती। वही कुछ महिलाएं हैं, जो उनके पति के जिंदा ना होने के बाद भी सिंदूर लगाती हैं। बॉलीवुड अभिनेत्री रेखा इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण है। अक्सर जब दो पुरुषों के बीच लड़ाई होती है, तो एक वाक्य आम तौर पर कही जाती है कि मैंने कौन सा हाथों में चूड़ियां पहनी हैं, मैं भी मार सकता हूं। यह वाक्य दर्शाता है कि कैसे चूड़ी को जंज़ीर माना जाता है, जिसे पहन कर महिलाएं अपना बचाव नहीं कर सकती। कैसे चूड़ियों का संबंध कमजोर होने से बताया जाता है। चूंकि मर्द चूड़ियां नहीं पहनते तो वह न सिर्फ एकदम मुक्त हैं बल्कि उन्हें किसी से भी डरने या मदद मांगने की भी ज़रूरत नहीं है।

हालांकि सिंदूर लगाने के पीछे वैज्ञानिक कारण भी बताए जाते हैं। सोचने वाली बात है कि अगर कारण वैज्ञानिक हैं, तो सिर्फ एक जेंडर इसका फायदा क्यों उठाए? सिंदूर के पीछे का वैज्ञानिक कारण पितृसत्ता की सोच को एक चादर प्रदान करता है ताकि उसे नारीवाद के तूफान से बचाया जा सके। मंगलसूत्र, बिछिया, चूड़ियों को सुंदरता और समर्पण का नाम लेकर महिलाओं को बेड़ियों में बांधा गया है और उन्हें पता भी नहीं चलने दिया। हमें यह सवाल जरूर करना चाहिए कि आखिर क्यों महिलाएं सारे प्रमाण देती रहें और त्याग करती रहें लेकिन पुरुषों को इसकी कोई जरूरत नहीं है।

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