इतिहास डॉ. जेरूषा झिराड भारत की पहली महिला स्त्री रोग विशेषज्ञ| #IndianWomenInHistory

डॉ. जेरूषा झिराड भारत की पहली महिला स्त्री रोग विशेषज्ञ| #IndianWomenInHistory

डॉ. जेरूषा झिराड, जिन्होंने न केवल  गाइनेकोलॉजी जैसा चुनौतीपूर्ण क्षेत्र चुना, बल्कि भारत की पहली महिला स्त्री रोग विशेषज्ञ बनकर इतिहास में अमिट छाप छोड़ी।

हमारे रूढ़िवादी पितृसतात्मक समाज में महिलाओं को अक्सर घर की चारदीवारी में सीमित करके रखा गया है। भारत में महिलाओं को शिक्षा का अधिकार तक नहीं था। यहां तक कि चिकित्सा जैसे पेशे में महिलाओं की भूमिका लगभग न के बराबर मानी जाती थी। उस समय कुछ महिलाएं ऐसी रही हैं जिन्होंने न केवल रूढ़िवादी नियमों को तोड़ा, बल्कि शिक्षा के माध्यम से अपने सपनों को एक नई उड़ान दी। उन्हीं में से एक थीं डॉ. जेरूषा झिराड, जिन्होंने न केवल  गाइनेकोलॉजी जैसा चुनौतीपूर्ण क्षेत्र चुना, बल्कि भारत की पहली महिला स्त्री रोग विशेषज्ञ बनकर इतिहास में अमिट छाप छोड़ी। वह बहुत सी महिलाओं के लिए प्रेरणा बनी। क्योंकि उन्होंने उस समय महिलाओं के लिए नई शुरुआत की, जब समाज उन्हें पढ़ने, काम करने या अपनी शारीरिक स्वास्थ्य पर खुलकर बात करने की अनुमति तक नहीं देता था। 

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा 

 डॉ. जेरूषा झिराड का जन्म 21 मार्च 1891 को कर्नाटक में हुआ था। वह वह बेने इज़राइल यहूदी समुदाय की सदस्य थीं। जेरूषा एक प्रगतिशील परिवार से थीं, और उनके परिजन उन्हें पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते थे। उन्होंने अपनी स्कूली पढ़ाई पुणे हाई स्कूल से पूरी की। वे महिला स्वास्थ्य के लिए बहुत संवेदनशील थीं। उस समय, उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा मेरिट स्कॉलरशिप के ज़रिए आत्मनिर्भर होकर पूरी की, और बॉम्बे के ग्रांट मेडिकल कॉलेज में पढ़ाई की। बचपन से ही वह पढ़ाई में बहुत तेज़ और आत्मविश्वास से भरपूर थीं। उन्होंने महज़ 11 साल की उम्र में चिकित्सा की पढ़ाई करने का निर्णय लिया।

डॉ. जेरूषा झिराड, जिन्होंने न केवल  गाइनेकोलॉजी जैसा चुनौतीपूर्ण क्षेत्र चुना, बल्कि भारत की पहली महिला स्त्री रोग विशेषज्ञ बनकर इतिहास में अमिट छाप छोड़ी। वह बहुत सी महिलाओं के लिए प्रेरणा बनी।

 क्योंकि वह अपनी बड़ी बहन की गंभीर बीमारी से स्वस्थ होने के कारण कामा अस्पताल की डॉ. बेन्सन से काफ़ी प्रेरित हुईं थीं, जिन्होंने उनकी जान बचाई। साल 1912 में स्नातक होने के बाद,  उन्होंने बंबई में सामान्य चिकित्सा में निजी प्रैक्टिस शुरू की। जहां उनकी पहली मरीज़ ‘अरब’ महिलाएं थीं, जो व्यापारियों की पत्नियां थीं। ये सामान्य चिकित्सा अस्पतालों से अलग थीं, और साथी महिलाओं के भरोसे के कारण, वे निपुण होती गईं, और घर पर ही प्रसव कराने लगीं। इसी के साथ उन्होंने विदेश जाने के लिए टाटा लोन स्कॉलरशिप के लिए आवेदन किया। उनके उद्देश्य को देखते हुए सरकार ने पहली बार महिला छात्रवृत्ति शुरू की, वह पहली महिला थीं जिन्हें भारत सरकार ने विदेश में पढ़ाई करने के लिए छात्रवृत्ति दी थी।

ब्रिटेन जाने से लेकर भारत वापसी तक का सफर 

साल 1914 में वह लंदन पहुंचीं, लेकिन उसी समय प्रथम विश्व युद्ध शुरू हो गया, जो उनके लिए अच्छा साबित हुआ। पुरुषों के भर्ती होने के कारण उन्हें, पहली महिला चिकित्सक के स्थापित एलिजाबेथ गैरेट एंडरसन अस्पताल में नियुक्त कराया गया। उन्होंने वहां 2 साल तक काम किया। वहां उनका अनुभव अच्छा रहा और उनकी प्रशंसा भी की गई। इसके बाद उन्हें एमडी के लिए आवेदन करने का अवसर मिला, जिसे उन्होंने साल 1919 में स्वीकार किया, जिसने उनके सपने को एक नई उड़ान दी। अपनी प्रतिष्ठा, प्रतिभा और आत्मविश्वास के ज़रिए उन्होंने ब्रिटेन में गायनोकोलॉजी में एमडी की डिग्री  हासिल की। यह उपलब्धि केवल उनके लिए ही नहीं, बल्कि पूरे भारत के लिए ऐतिहासिक थी, क्योंकि वे इस क्षेत्र में एमडी प्राप्त करने वाली देश की पहली महिला बनीं।

साल 1912 में स्नातक होने के बाद,  उन्होंने बंबई में सामान्य चिकित्सा में निजी प्रैक्टिस शुरू की। जहां उनकी पहली मरीज़ ‘अरब’ महिलाएं थीं, जो व्यापारियों की पत्नियां थीं। ये सामान्य चिकित्सा अस्पतालों से अलग थीं, और साथी महिलाओं के भरोसे के कारण, वे निपुण होती गईं, और घर पर ही प्रसव कराने लगीं।

साल 1920 में वह भारत लौट आईं और उनकी उपलब्धियों के लिए बेने-इज़राइल महिलाओं के एक समूह ने उन्हें सम्मानित किया। वापस आने के बाद उन्होंने मुंबई में अपना काम शुरू किया। हालांकि, मुंबई के कामा अस्पताल में कोई खाली जगह मौजूद नहीं थीं। मुंबई में कुछ समय के बाद वह नई दिल्ली के लेडी हार्डिंग अस्पताल में एक स्थानीय चिकित्सक के रूप में काम करने लगीं। साल 1925 में मुंबई लौटने के बाद उन्हें कामा अस्पताल में मानद सर्जन  के पद पर नियुक्त किया गया। इसके बाद साल 1928 में उन्हें चिकित्सा अधिकारी के पद पर नियुक्त किया गया, जिससे उनका सपना साकार हो गया। हालांकि पहले यह उपलब्धि केवल ब्रिटिश महिलाओं के पास थी।

 संस्थान निर्माण में डॉ. झिराड की अग्रणी भूमिका

वह बॉम्बे ऑब्सटेट्रिक एंड गायनोकोलॉजिकल सोसाइटी की संस्थापक सदस्य और अध्यक्ष थीं। अपने काम के दौरान उन्होंने बॉम्बे सोसाइटी और फेडरेशन ऑफ ऑब्सटेट्रिक एंड गायनोकोलॉजिकल सोसाइटीज ऑफ इंडिया (एफओजीएसआई) के डॉक्टरों के साथ मिलकर संस्था की पढ़ाई और कामकाज का स्तर अच्छा बनाए रखने में सहायता की। साल 1950 में, मद्रास में छठा ऑल इंडिया स्त्री-रोग और प्रसूति विज्ञान सम्मेलन हुआ। वह इस सम्मेलन की अध्यक्ष थीं। इसी बैठक में यह तय किया गया कि एफओजीएसआई नाम की नई संस्था बनाई जाएगी और साथ ही भारत में जर्नल ऑफ ऑब्स्टेट्रिक्स एंड गायनेकोलॉजी ऑफ इंडिया (जेओजीआई) नाम की मेडिकल पत्रिका शुरू की जाएगी। इसके बाद उन्हें एफओजीएसआई की पहली अध्यक्ष चुना गया और साथ ही उन्हें इस पत्रिका की पहली संपादक भी बनाया गया। वे साल 1968 में संपादक के पद से रिटायर हुईं।

साल 1964 में द जर्नल ऑफ द एएमडब्ल्यूआई में लिखते हुए उन्होंने जनसंख्या नियंत्रण में अबॉर्शन की भूमिका पर टिप्पणी की। वह अबॉर्शन को वैध बनाने के पक्ष में नहीं थीं, लेकिन वह महिलाओं और पुरुषों के विकास के लिए इसके पक्ष में थीं। इसी के साथ वह बच्चों को यौन शिक्षा और जागरूक करने के लिए बहुत आगे थीं।

कामा अस्पताल में गर्भावस्था से पहले की जांच, डिलीवरी के बाद की देखभाल और बच्चों की स्वास्थ्य सेवाओं को विकसित किया गया। स्टेरिलिटी से जुड़े मामलों की जांच का काम भी एक नियमित तरीके से शुरू किया गया। इसके साथ ही अस्पताल में मानद पदों की संख्या बढ़ाई गई, जिनमें डॉक्टरों को पूरा प्रैक्टिकल काम संभालना पड़ता था। उन्होंने माँ और बच्चे की सुरक्षा के लिए पारंपरिक दाइयों को आधुनिक चिकित्सा का प्रशिक्षण देने की वकालत की। ये महिलाएं ग्रामीण इलाकों में एक धरोहर थीं। जहां चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध नहीं थीं। वे पश्चिमी चिकित्सा पद्धतियों का अनुसरण करने के विरुद्ध थीं और उनका मानना ​​था कि भारतीय तरीकों से ही चिकित्सा पद्धतियों का विकास किया जाना चाहिए। उन्होंने एक युवा महिला मेडिकल छात्रा के दैनिक अनुभवों को देखा था, इसलिए उन्होंने उनके लिए छात्रावास सुविधाओं को बेहतर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। स्नातकोत्तर शिक्षा को इस तरह से विकसित किया गया कि प्रसूति और स्त्री-रोग में प्रैक्टिकल अनुभव मिल सके। इस उद्देश्य से पोस्टग्रेजुएट छात्रों के लिए एक हॉस्टल भी खोला गया, जो उस समय मुंबई का पहला ऐसा हॉस्टल था। इससे पूरे भारत से महिला चिकित्सक यहां आकर अपनी पढ़ाई पूरी कर सकीं।

परीक्षकीय सफ़र और सम्मान 

डॉ. झिराड कई सालों  तक मद्रास, बॉम्बे और पूना विश्वविद्यालयों में एमडी परीक्षा की परीक्षक रहीं। वह बॉम्बे और पूना विश्वविद्यालय की सीनेट की सदस्य भी रहीं और उन्होंने बॉम्बे विश्वविद्यालय की सिंडिकेट में भी काम किया। मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया ने उन्हें पूर्वी पंजाब और कलकत्ता के विश्वविद्यालयों में स्त्री-रोग और प्रसूति की ट्रेनिंग सुविधाओं की जांच करने के लिए आमंत्रित किया था। वह कुछ सालों तक आईआरएफए या आईसीएमआर की मातृ और शिशु कल्याण समिति की भी अध्यक्ष थीं। साल 1937 से 1938 में उन्होंने आईआरएफए के तहत मुंबई में मातृ-मृत्यु दर से जुड़ा हुआ एक अध्ययन किया। इसके साथ ही उन्हें बॉम्बे, बड़ौदा और कलकत्ता में विशेष भाषण देने के लिए भी बुलाया गया था।

साल 1964 में द जर्नल ऑफ द एएमडब्ल्यूआई में लिखते हुए उन्होंने जनसंख्या नियंत्रण में अबॉर्शन की भूमिका पर टिप्पणी की। वह अबॉर्शन को वैध बनाने के पक्ष में नहीं थीं, लेकिन वह महिलाओं और पुरुषों के विकास के लिए इसके पक्ष में थीं। इसी के साथ वह बच्चों को यौन शिक्षा और जागरूक करने के लिए बहुत आगे थीं। उन्होंने ‘सेक्स’ के प्रति रूढ़िवादी धारणा को भी चुनौती दी, और सही दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित किया। भारतीय चिकित्सा में अहम योगदान, और महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए उनके सभी काम बहुत महत्वपूर्ण रहे हैं। स्त्री-स्वास्थ्य के क्षेत्र में उनके अद्वितीय योगदान के लिए भारतीय सरकार ने साल 1966 में उन्हें तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया। वह अपने जीवन में चिकित्सा के क्षेत्र में काम करती रही और साल 1984 में 93 साल की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई, लेकिन उनके सराहनीय योगदान के कारण आगे कई महिलाओं को चिकित्सीय क्षेत्र में अवसर मिले, और समाज में महिला स्वास्थ्य और शिक्षा को लेकर जागरूकता भी आई। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि एक महिला, चाहे समय कितना भी चुनौतीपूर्ण क्यों न हो, अपने साहस और समर्पण से इतिहास बदल सकती है।

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