समाजकैंपस नई शिक्षा नीति सीखने की प्रक्रिया में सुधार या विद्यार्थियों पर अतिरिक्त बोझ?

नई शिक्षा नीति सीखने की प्रक्रिया में सुधार या विद्यार्थियों पर अतिरिक्त बोझ?

साल  2020 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति भारतीय शिक्षा प्रणाली में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन रहा है। इस नीति का उद्देश्य साल 2030 तक भारत की शिक्षा प्रणाली को पूरी तरह से बदलना,और शिक्षा को ज़्यादा उपयोगी और लचीला बनाना है।

भारत में शिक्षा व्यवस्था पर समय-समय पर कई नीतियां बनाई गई हैं और इसमें परिवर्तन होते आए हैं। इसी तरह साल  2020 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) भी भारतीय शिक्षा प्रणाली में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन रहा है। ख़ास तौर पर यह साल 2023-24 के शैक्षणिक वर्ष से राज्यों में लागू हो चुका था। इस नीति का उद्देश्य साल 2030 तक भारत की शिक्षा प्रणाली को पूरी तरह से बदलना,और शिक्षा को ज़्यादा उपयोगी और लचीला बनाना है। इसका लक्ष्य था कि हर विद्यार्थी तक अच्छी और समान गुणवत्ता वाली शिक्षा पहुंचे। खास तौर पर यह नीति वंचित और कमजोर वर्गों के बच्चों के लिए सीखने के अवसर बढ़ाने के लिए बनाई गई थी। इसके तहत शिक्षा की संरचना में बदलाव किया गया है, जिसमें 5+3+3+4 पैटर्न को अपनाया गया है, जिसमें 12 साल की स्कूल शिक्षा और 3 साल की पूर्व-स्कूल शिक्षा शामिल है। इसमें पांचवी कक्षा तक शिक्षा को मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा में देने की बात की गई है, जिससे बच्चों की उनकी मातृभाषा में पकड़ अच्छी रहे। 

हालांकि इसे लागू हुए पांच साल हो चुके हैं, शुरुआती उत्साह और बड़े वादों के बाद आज भी इसकी लागू प्रक्रिया, चुनौतियों और प्रभावों को लेकर देशभर में नई बहसें सामने आ रही हैं। कई राज्य अभी भी इसे आंशिक रूप से ही लागू कर पाए हैं। इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट के मुताबिक, कई सरकारी स्कूल शिक्षकों का कहना है कि उन्हें पर्याप्त समर्थन के बिना ही नया पाठ्यक्रम सौंप दिया गया है। ओडिशा और झारखंड के आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षकों को स्थानीय बोलियों में पढ़ाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है, क्योंकि उनके पास द्विभाषी पाठ्यपुस्तकों और प्रशिक्षित प्रशिक्षकों का अभाव है। हालांकि एनईपी का उद्देश्य विद्यार्थियों पर दबाव कम करना और उन्हें अधिक विकल्प देना था, लेकिन कई जगहों पर इससे उलझन भी बढ़ी है।

इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट के मुताबिक, कई सरकारी स्कूल शिक्षकों का कहना है कि उन्हें पर्याप्त समर्थन के बिना ही नया पाठ्यक्रम सौंप दिया गया है। ओडिशा और झारखंड के आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षकों को स्थानीय बोलियों में पढ़ाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है, क्योंकि उनके पास द्विभाषी पाठ्यपुस्तकों और प्रशिक्षित प्रशिक्षकों का अभाव है।

 क्या है एफवाईयूपी?

स्कूली शिक्षा से लेकर हायर एजुकेशन तक एनईपी के अंदर कई बदलाव देखने को मिलते हैं। यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन (यूजीसी) का फोर ईयर अंडर ग्रेजुएट प्रोग्राम (एफवाईयूपी) भी उसका ही एक हिस्सा है। टाइम्स ऑफ इंडिया के मुताबिक, इसे दिल्ली विश्वविद्यालय में साल 2013 में लागू किया गया था, जिसे विद्यार्थियों  के विरोध के बाद एक साल के बाद ही वापस लेना पड़ा था। लेकिन अब फ़िर से डीयू ने इसे लागू कर दिया है। पहले डीयू में ग्रैजुएशन का पाठ्यक्रम 10+2+3 फॉर्मेट का था, जिसके अनुसार पहले जो कोर्स तीन साल का हुआ करता था । अब उसे चार साल के हिसाब से तैयार किया गया है। द प्रिन्ट की एक रिपोर्ट के मुताबिक, एफवाईयूपी विद्यार्थियों को प्रवेश और निकास के कई विकल्प भी देता है। अगर वे तीन साल से पहले पढ़ाई छोड़ देते हैं, तो उन्हें तीन साल के भीतर फिर से शामिल होने की अनुमति होगी और उन्हें सात साल की निर्धारित अवधि के भीतर अपनी डिग्री पूरी करनी होगी। इसमें विद्यार्थियों को विभिन्न प्रकार के प्रमाण पत्र प्राप्त करने के लिए विभिन्न अवधि के विकल्प दिए जाते हैं, जैसे कि एक साल के अध्ययन के बाद अगर कोई पढ़ाई छोड़ देता है। तो उसे प्रमाणपत्र दिया जायेगा, दो साल के बाद डिप्लोमा, और तीन साल के कार्यक्रम के बाद स्नातक की डिग्री। 

इसके अलावा चार साल के इस प्रोग्राम में विद्यार्थियों को मेजर सब्जेक्ट्स, माइनर सब्जेक्ट्स, फाउंडेशन कोर्स और अप्लाइड सब्जेक्ट्स में विषय चुनने होते हैं, जैसे कि एबिलिटी एन्हांसमेंट कोर्सेज (एईसी), स्किल एन्हांसमेंट (एसईसी), वैल्यू एडिशन (वीएसी)। एईसी में भाषा और साहित्य, और पर्यावरण विज्ञान के बारे में पढाया जाता है। वीएसी में व्यक्तित्व निर्माण, नैतिक, सांस्कृतिक और संविधानिक मूल्यों को समाहित करने, आलोचनात्मक सोच, भारतीय ज्ञान प्रणाली, वैज्ञानिक मानसिकता, संचार कौशल, रचनात्मक लेखन, प्रस्तुति कौशल, खेल और शारीरिक शिक्षा, और टीमवर्क को बढ़ावा देने के जैसे विषय शामिल होते हैं। अगर किसी का मेजर सब्जेक्ट  इतिहास है और उसने माइनर में भूगोल लिया और चार साल तक माइनर में भूगोल ही पढ़ता रहे। तो उसे इतिहास में मेजर के साथ भूगोल में माइनर की डिग्री भी प्रदान की जाएगी । एफवाईयूपी विद्यार्थियों  को अधिक लचीलापन और विकल्प प्रदान करता है ताकि वे अपनी रुचि और करियर के लक्ष्यों के अनुसार शिक्षा प्राप्त कर सकें।

कभी-कभी मुझे लगता है कि मैं अपनी डिग्री के मुख्य विषय को छोड़कर एसईसी और वीएसी  जैसे विषय पढ़ने आई हूं, जिनमें स्वच्छ भारत, फिट इंडिया, रचनात्मक लेखन, भारतीय भक्ति-परंपरा और मानव मूल्य जैसे विषय शामिल हैं, जिनका मेरे मेजर सब्जेक्ट से कोई संबंध नहीं है। इससे सिर्फ मेरा बोझ बढ़ा है और इसका असर मेरे मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ा है।

विद्यार्थियों पर नई शिक्षा नीति का असर

नई शिक्षा नीति ने हमारी पढ़ाई के क्षेत्र में काफी बदलाव किए हैं। लेकिन ये बदलाव हर किसी के लिए आसान नहीं रहे हैं। इससे उनके मानसिक स्वास्थ्य पर भी असर हो रहा है। द वीक पत्रिका के मुताबिक, भारत में नौ राज्यों के 30 विश्वविद्यालयों में 8,542 विद्यार्थियों पर किए गए, एक बड़े सर्वेक्षण से पता चला है, कि कॉलेज के बहुत से छात्र मानसिक तनाव और परेशानियों का सामना कर रहे हैं।अध्ययन में यह सामने आया कि करीब 18.8 फीसदी विद्यार्थियों ने अपने जीवन में कभी-न-कभी आत्महत्या से मौत  के बारे में सोचा था। एक-तिहाई यानी 33.6 फीसदी विद्यार्थियों ने बताया कि उन्हें मध्यम से लेकर गंभीर अवसाद के लक्षण हैं। इसके अलावा लगभग 23.2 फीसदी  विद्यार्थियों ने बताया कि उनको मध्यम से गंभीर चिंता रहती है।दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली दूसरे वर्ष की छात्रा निधी का कहना है, “डीयू में मेरा पहला बैच था जिस पर एफवाईयूपी लगाई गई थी। कोरोना के चलते मुझे स्कूल में दो बार बोर्ड देना पड़ा, और उसके बाद ही हमारे बैच ने पहली बार सीयूईटी की परीक्षा दी। इन सब वजहों से मेरा सत्र दिल्ली विश्वविद्यालय में नवंबर में शुरू हुआ। जब मैं कॉलेज आई, तो मैंने देखा कि हमारे ऊपर एफवाईयूपी लागू किया गया है।”

आगे वह बताती हैं, “जहां पहले ऑनर्स डिग्री के लिए चार विषय पढ़ने पड़ते थे, अब मुझे सात विषय पढ़ने पड़े जिसमें एसईसी, वीएसी जैसे विषय शामिल थे । इन विषयों की संख्या बढ़ने से मुझे तनाव महसूस हुआ, क्योंकि मुझे लगता है कि स्किल एन्हांसमेंट कोर्सेज और वैल्यू एडिशन कोर्सेज से मुझे अब तक कुछ सीखने को नहीं मिला है। बल्कि इसने सिर्फ मेरा बोझ बढ़ाया और मेरे मेजर सब्जेक्ट, जिस पर मैं ऑनर्स डिग्री के लिए आई थी, उससे मेरा ध्यान भटक गया। इतने सारे सब्जेक्ट जोड़ने से मेरे ऊपर असाइनमेंट भी बढ़ गए हैं, और इस वजह से मेरे पास अपने मुख्य विषय पर ध्यान देने का समय नहीं बचता है। कभी-कभी मुझे लगता है कि मैं अपनी डिग्री के मुख्य विषय को छोड़कर एसईसी और वीएसी  जैसे विषय पढ़ने आई हूं, जिनमें स्वच्छ भारत, फिट इंडिया, रचनात्मक लेखन, भारतीय भक्ति-परंपरा और मानव मूल्य जैसे विषय शामिल हैं, जिनका मेरे मेजर सब्जेक्ट से कोई संबंध नहीं है। इसे जोड़ने का उद्देश्य था कि विद्यार्थियों  में तर्क के साथ सवाल करने की सोच पैदा हो, लेकिन मेरे अनुभव में इससे सिर्फ मेरा बोझ बढ़ा है और इसका असर मेरे मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ा है।”

ऐसा लगता है जैसे सरकार ड्रॉप आउट जैसी समस्या से मोहित हो रही है। पहले जहां लोग पढाई बीच में छोड़ने से पहले एक बार सोचते थे । वहीं अब उन्हें प्रमाणपत्र और डिप्लोमा जैसी चीजें पढाई छोड़ने के लिए रिझा सकती हैं। इसका सीधा असर हाशिये पर बैठे लोगों और महिलाओं पर पड़ेगा।

ड्रॉपआउट मॉडल अवसर है या जोखिम?

डीयू में ही पढ़ने वाली दूसरे वर्ष की छात्रा रनिया का कहना है, “ एनईपी और एफवाईयूपी के तहत लोगों को एक से अधिक प्रवेश और निकास के अवसर दिये गए हैं, जिससे अगर कोई एक साल पूरा करके ही। पढाई छोड़ना चाहे तो उसे प्रमाणपत्र दिया जायेगा, दो साल पढ़ाई  करके छोड़ने वाले को डिप्लोमा। इससे ऐसा लगता है जैसे सरकार ड्रॉप आउट जैसी समस्या से मोहित हो रही है। पहले जहां लोग पढाई बीच में छोड़ने से पहले एक बार सोचते थे । वहीं अब उन्हें प्रमाणपत्र और डिप्लोमा जैसी चीजें पढाई छोड़ने के लिए रिझा सकती हैं। इसका सीधा असर हाशिये पर बैठे लोगों और महिलाओं पर पड़ेगा। एक तो महिलाओं की शिक्षा को वैसे ही समाज और परिवार गंभीरता से नहीं लेते हैं ।”

आगे वह कहती हैं, “ऊपर से दिल्ली में रहने का खर्चा जुटाना हर किसी के लिए आसान बात नहीं है, उसपे एक से अधिक प्रवेश और निकास के अवसर प्रदान करना उन लोगों का उच्च शिक्षा से बाहर होने की वजह बन सकता है। अगर इसका दूसरा पहलू भी देखें तो जब वो लोग आगे जाकर नए अवसरों के लिये संघर्ष करेंगे । तो एक साल का प्रमाणपत्र और दो साल का डिप्लोमा लिए लोगों का मुकाबला सीधा तीन या चार साल पूरे किए लोगों से होगा, जिनके आगे उन्हें नज़रअंदाज़ ही होना पड़ेगा। सरकार को उनके लिए ज्यादा से ज्यादा छात्रवृत्ति लानी चाहिए, उन्हें कम से कम फीस में अच्छे छात्रावास प्रदान करने चाहिए ना कि ड्रॉप आउट जैसी चीजों को प्रमाणपत्र और डिप्लोमा दिखाके आकर्षित बनाना चाहिए।” 

इससे यह साफ तौर पर देखा जा सकता है कि इस नई शिक्षा नीति में योजना की कमी देखने को मिलती है, जिसे जल्दबाज़ी में लागू कर दिया गया हो, विद्यार्थियों और शिक्षकों को नए प्रावधानों के बारे में जागरूक किए बिना। इन चुनौतियों के अलावा शिक्षा संस्थानों को एनईपी और एफवाईयूपी के अनुसार अपने पाठ्यक्रमों और शिक्षण पद्धतियों को अपडेट करने में समय लग रहा है, जिसको जल्द से जल्द सही और बेहतर ढंग से लाने की जरूरत है। एनईपी के अनुसार, शिक्षा संस्थानों को अधिक संसाधनों की आवश्यकता है, जैसे कि शिक्षक, कक्षाएं, प्रयोगशालाएं, और पुस्तकालय जो कि कई कॉलेजों में उपलब्ध नहीं हैं। विश्वविद्यालयों को एनईपी को लागू करने के लिए अधिक धन की जरूरत है, क्योंकि कई बार छात्रों को कुछ विषय पढ़ने के लिए दूसरे कॉलेज जाना पड़ता है, शिक्षक की कमी होने की वजह से उनका कॉलेज वो विषय प्रदान नहीं कर रहा होता है। इन्हीं सब चीजों को ध्यान में रखते हुए नई शिक्षा नीति को सही ढंग से लागू करने की आवश्यकता है जो छात्रों को नए अवसर प्रदान करने के साथ-साथ उनके मानसिक स्वास्थ्य का भी ध्यान रखे। ताकि शिक्षा असल  में सभी के लिए सुलभ और उपयोगी बन सके।

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