संस्कृतिसिनेमा ‘ह्यूमंस इन द लूप’: एआई के दौर में आदिवासी महिलाओं के संघर्ष की कहानी 

‘ह्यूमंस इन द लूप’: एआई के दौर में आदिवासी महिलाओं के संघर्ष की कहानी 

फिल्म निर्माता अरण्य सहाय ने अपनी फ़िल्म ‘ह्यूमंस इन द लूप’ में एआई को एक नवजात बच्चे की तरह दिखाकर। इस विषय पर एक नया दृष्टिकोण पेश किया है। इसमें एआई के साथ ही कास्ट, क्लास और जेंडर के सवालों को बहुत सहजता से उठाया गया है।

कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) के बढ़ते दायरे और उससे जुड़े ख़तरों पर चल रही चर्चाओं के बीच, फिल्म निर्माता अरण्य सहाय ने अपनी फ़िल्म ‘ह्यूमंस इन द लूप’ में एआई को एक नवजात बच्चे की तरह दिखाकर। इस विषय पर एक नया दृष्टिकोण पेश किया है। इसमें एआई के साथ ही कास्ट, क्लास और जेंडर के सवालों को बहुत सहजता से उठाया गया है। फ़िल्म पहली नज़र में आदिवासी समुदाय की ढुकु परंपरा से जुड़ी हुई, एक महिला के संघर्ष की आम कहानी लगती है, लेकिन यह इससे कहीं आगे जाकर, एआई की बढ़ती ज़रूरत और तकनीकी विकास में, हाशिए पर रह रही महिलाओं की भूमिका पर बात करती है। इसके साथ ही यह परिवारिक रिश्ते, जेंडर, क्लास और समाजिक रूढ़ियों पर नज़र डालती है। फिल्म का प्रीमियर साल 2024 में मुंबई एकेडमी ऑफ द मूविंग इमेज (एमएएमआई) में हुआ था। इसके बाद साल 2025 में यह फिल्म इंडियन थिएटर्स में रिलीज हुई। यह एक डॉक्यूमेंट्री स्टाइल ड्रामा फ़िल्म है, जो एक आदिवासी महिला की कहानी के माध्यम से समाज से कई सवाल करती है।

एक सिंपल सी कहानी के माध्यम से यह फिल्म काफ़ी कुछ कह जाती है। झारखंड की एक आदिवासी महिला नेहमा, जो ढुकू शादी के रिश्ते से अलग हुई है, हालांकि यह कोई शादी नहीं है। ये एक तरह की उरांव जनजातीय परंपरा है। जहां एक आदिवासी महिला किसी गैर-आदिवासी पुरुष के साथ बिना किसी शादी या रीति-रिवाज को पूरा किए एक रिश्ते में रहती है। ये एक तरह का लिव इन रिलेशन जैसा रिश्ता है। नेहमा शहर में अपने पार्टनर के साथ रह रही थी। लेकिन गांव और जंगल नेहमा को बार-बार अपनी ओर खींचते हैं। वो अपने दो बच्चों के साथ वापस अपने गांव आ जाती है। बच्चों की कस्टडी के लिए वो एक एआई सेंटर में डेटा लेबलिंग या लेबरर की नौकरी करती है। जहां उसको एआई को बच्चे की तरह सिखाने और समझाने का काम मिलता है। कहानी सुनने में जीतनी साधारण लग रही है,असल में उतनी है नहीं। 

फिल्म निर्माता अरण्य सहाय ने अपनी फ़िल्म ‘ह्यूमंस इन द लूप’ में एआई को एक नवजात बच्चे की तरह दिखाकर। इस विषय पर एक नया दृष्टिकोण पेश किया है। इसमें एआई के साथ ही कास्ट, क्लास और जेंडर के सवालों को बहुत सहजता से उठाया गया है।

ढुकू परंपरा के खिलाफ एक महिला का संघर्ष

फ़िल्म के शुरुआती दृश्यों से समझ आता है कि वह ढुकू परंपरा को चुनौती देती है। इस परंपरा में गैर आदिवासी पुरुष रिश्ते में रहते हुए भी किसी और महिला से शादी कर सकता है। इसलिए वह अपने पार्टनर को छोड़कर गांव आ जाती है। हालांकि मर्दों के लिए शादी से बाहर निकलना आसान है, जबकि महिलाएं दोहरी जिम्मेदारियों के बोझ तले दबी जाती हैं। उनके लिए नई ज़िन्दगी भी एक कीमत पर आती है। यानी कि कामकाज़ी महिलाओं के लिए अपने बच्चों की देखभाल करना दोहरी जिम्मेदारी बन जाती है। साथ ही दूसरी ओर नौकरी और पार्टनर को छोड़कर आने के कारण नेहमा का उसकी बेटी धानु के साथ रिश्ता भी बिगड़ता चला जाता है। 

हालांकि धानु शहर में रहती थी, लेकिन जैसे ही वह गांव आती है, उसकी पूरी ज़िंदगी बदल जाती है। शायद इसी कारण वह अपनी मां से भी नाराज़ रहती है। वह  गांव छोड़कर अपने छोटे भाई के साथ घने जंगल से होकर, शहर अपने पापा के पास जाने तक की कोशिश करती है। जहां वो तकनीक के सहारे जंगल से शहर की ओर जाती है। लेकिन जंगल में भटक जाने के बाद वह एक साही की मदद से जंगल में रास्ता खोजती है। ये पूरा सीन दर्शकों को समझा देता है कि वो तकनीक पर कितना निर्भर हो सकते हैं। वहीं धानु को अपने पिता की शादी से कोई समस्या नहीं है क्योंकि ये तो एक सामाजिक परंपरा है। लेकिन वहीं अपनी मां को उसके बचपन के दोस्त के साथ अकेले देखकर वो नाराज़ हो जाती है। 

मैनेजर अल्का जब नेहमा की एक एआई जेनरेटेड फ़ोटो बनाना चाहती है, तो एआई  वेस्टर्न ब्यूटी स्टैण्डर्ड्स के हिसाब से, बार-बार किसी विदेशी आदिवासी महिला की फ़ोटो जेनरेट करके देता है। ऐसा इसलिए क्योंकि वे अब तक उसी तरह के फ़ेशियल फ़ीचर्स एआई को फ़ीड कर रहे होते हैं।

नई तकनीक और  पुरानी असमानताएं 

फ़िल्म दर्शकों को यह समझाने के लिए पूरा वक़्त लेती है, कि कैसे पक्षपात इंसानों से होकर तकनीक तक पहुंचता है। मैनेजर अल्का (गीता गुहा) जब नेहमा की एक एआई जेनरेटेड फ़ोटो बनाना चाहती है, तो एआई  वेस्टर्न ब्यूटी स्टैण्डर्ड्स के हिसाब से, बार-बार किसी विदेशी आदिवासी महिला की फ़ोटो जेनरेट करके देता है। ऐसा इसलिए क्योंकि वे अब तक उसी तरह के फ़ेशियल फ़ीचर्स एआई को फ़ीड कर रहे होते हैं। ऐसे में जब वह अपने तरह के असली लोगों को डेटा एआई को फ़ीड करती है । तो कुछ हद तक उसकी तरह का रिज़ल्ट मिलता है। फिर भी वो काफ़ी बॉयस्ड ही होता है। तब भी एआई को ये मानने में दिक्कत होती है कि भारत के आदिवासी भी आम कपड़े पहनकर, बिल्कुल सामान्य जीवन जीने वाले इंसान हो सकते हैं। फ़िल्म बहुत ही बारीकी से पावर डायनैमिक्स को दिखाती है। वेस्टर्न और यूरोपीय देश नई तकनीकों को ओन करते हैं। जबकि इसकी असली कीमत भारत जैसे देशों के सस्ते मज़दूर चुकाते हैं, ख़ासकर महिलाएं। यही वह ग़रीबी है, जहां दुनिया का सबसे ज़रूरी काम, सबसे कम दाम पर करवाया जाता है।

इस काम में महिलाएं एआई को असली दुनिया से परिचित कराती हैं, ठीक वैसे ही जैसे एक मां अपने नवजात बच्चे को दुनिया दिखाती है। डेटा लेबलिंग का यह काम उसी देखभाल और मेहनत जैसा है, जो महिलाएं अपने बच्चों को बड़ा करते समय करती हैं। फ़िल्म में एआई को बच्चा कहा गया है, जहां अरण्य एक सीन में नेहमा के बच्चे को पहली बार चलते हुए दिखाती हैं, तो वहीं दूसरे सीन में वो एआई को डेटा फ़ीड करने के बाद एक बच्चे की तरह चलते हुए दिखाती हैं। जो दर्शकों के लिए ‘एआई बच्चे की तरह है, उसको गलत सिखाएंगे, तो वो गलत सीख जाएगा’ वाली बात को अच्छे से स्थापित करता है। पूरे कमरे में केवल महिलाएं ही डेटा लेबलिंग का काम करती दिखाई गई हैं।

स्क्रीन पर चुपचाप काम करती महिलाओं की सांसें, क्लिक की आवाज़ और पंखे की आवाज़, ये सब मिलकर एक टेंशन वाला माहौल बनाते हैं। जो सीन्स को और ज़्यादा प्रभावी बनाते हैं। फ़िल्म साथ ही तकनीकी विकास में काफ़ी पीछे छूट चुके लोगों की भूमिका पर बात करती है।

जबकि पुरुष केवल ऑर्डर देते हुए सुनाई देते हैं। ये दिखाता है कि कैसे पेरेंटिंग का सारा बोझ महिलाओं पर मढ़ दिया जाता है। यहां डेटा लेबलिंग पेरेंटिंग का एक रूप है। स्क्रीन पर चुपचाप काम करती महिलाओं की सांसें, क्लिक की आवाज़ और पंखे की आवाज़, ये सब मिलकर एक टेंशन वाला माहौल बनाते हैं। जो सीन्स को और ज़्यादा प्रभावी बनाते हैं। फ़िल्म साथ ही तकनीकी विकास में काफ़ी पीछे छूट चुके लोगों की भूमिका पर बात करती है, जो दरअसल इस नई तकनीक के विकास में अहम भूमिका निभाते हैं। वे इस नई तकनीक को सफल बनाने में जी तोड़ मेहनत तो करते हैं। लेकिन इसका इस्तेमाल नहीं कर पाते हैं। साथ ही इस प्रक्रिया में उनके अपने ज्ञान का कोई महत्व नहीं रह जाता है।

स्क्रीन की दुनिया और असली ज़िन्दगी का अंतर

फ़िल्म में कंट्रास्ट (विरोधाभास) बहुत ख़ूबसूरती से चित्रित हुए हैं, लेकिन वो एक आम आदमी के तौर पर आपको बेहद परेशान कर सकते हैं। शहर, जहां अनजान लोगों के बीच भी हर वक़्त आप निगरानी (सर्विलांस) में हैं। वहीं इसके विपरीत गांव में सबसे परिचित होकर भी एक तरह की आज़ादी है। लेकिन स्क्रीन में सिमटी दुनिया बहुत छोटी हो जाती है, जबकि असल में दुनिया बहुत बड़ी है। स्क्रीन पर दिख रहा पेड़ जिसकी पहचान सिर्फ़ ट्री शब्द में सिमटकर रह जाती है। जबकि असली दुनिया में उसके कई नाम और कई अलग पहचानें हैं। फ़िल्म यह भी दिखाती है कि जीवन कोई छोटे-छोटे खानों या डिब्बों में बंद दुनिया नहीं है, असली ज़िन्दगी तो इससे कहीं ज़्यादा बड़ी और आज़ाद है।

पूरे कमरे में केवल महिलाएं ही डेटा लेबलिंग का काम करती दिखाई गई हैं।जबकि पुरुष केवल ऑर्डर देते हुए सुनाई देते हैं। ये दिखाता है कि कैसे पेरेंटिंग का सारा बोझ महिलाओं पर मढ़ दिया जाता है। यहां डेटा लेबलिंग पेरेंटिंग का एक रूप है।

किसी सपोर्टिंग कैरेक्टर की तरह इसमें जंगल बार-बार नज़र आता है। वो इस कहानी का अहम हिस्सा है, जिसके बारे में आप फ़िल्म के दौरान नेहमा से काफ़ी कुछ जानेंगे। उसका मानना है कि अगर पत्थरों में भी कान लगाकर सुनोगे तो उसकी भी धड़कनें सुनाई देंगी। फ़िल्म में सभी ने बहुत बेहतरीन काम किया है। सोनल ने किरदार को जीया है। धानु के किरदार में रिद्धिमा सिंह ने भी अच्छा काम किया है। एक शहर में पली-बढ़ी लड़की जिसे ग्रामीण परिवेश में मर्ज़ी के ख़िलाफ़ लाया गया है। यह फिल्म उसके मनोभावों को अच्छे से दिखाती है। कम किरदार वाली ये फ़िल्म बहुत बड़ी आबादी की कहानी को बयां करती है। इसमें नेहमा को एक सच्ची प्रकृति प्रेमी के रूप में  दिखाया गया है। जंगल के सबसे शर्मीले जानवर साही का नेहमा के पास आना इसका सबूत है कि जंगल से उसका अटूट रिश्ता है। जो अपनापन और सुकून वो जंगल के क़रीब होकर पाती है, वही सब अपनी बेटी को भी महसूस करवाने की चाहत रखती है। इसमें ग्रामीण झारखंड का प्राकृतिक सौंदर्य बहुत ही खूबसूरती से पेश किया गया है। 

फिल्म ह्यूमंस इन द लूप केवल एक आदिवासी महिला की कहानी नहीं है, बल्कि यह तकनीक, जेंडर, क्लास और सामाजिक असमानताओं के बीच छुपे पावर डायनामिक्स को भी दिखाती है। इसमें यह भी दिखाया गया है कि किस तरह पूर्वजों की समझ, प्रकृति और उनके अनुभवों की सूझ -बूझ को नजरअंदाज करके हम बाहरी नजरियों को अपनाते हैं। लेकिन फिर भी वो हमारे लिए उपयोगी साबित नहीं हो पाते हैं। नेहमा की यात्रा, जंगल और शहर के बीच का विरोधाभास, और डेटा लेबलिंग के काम के माध्यम से एआई को ट्रेन करने या सिखाने की प्रक्रिया, दर्शकों को यह सोचने पर मजबूर करती है कि असली आज़ादी और समझ केवल तकनीक या शहर में नहीं, बल्कि अपनी जड़ों, अपनी संस्कृति और अपने अनुभवों में छिपी है। यह फ़िल्म हमें याद दिलाती है कि तकनीकी और सामाजिक बदलावों के बीच भी इंसानियत, संवेदनशीलता और पारंपरिक ज्ञान की अहमियत कभी कम नहीं हो सकती है।

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