संस्कृतिसिनेमा स्वेटर: नारीवाद की ऊन से बुनी एक साधारण लड़की की असाधारण कहानी

स्वेटर: नारीवाद की ऊन से बुनी एक साधारण लड़की की असाधारण कहानी

कहानी एक साधारण लड़की टुकू के आस-पास घूमती है, जो अपने माता-पिता के लिए एक चिंता का विषय बन गई है। उनके लिए टुकू  का कोई खास गुण न होना और उसकी शादी न होना चिंता का कारण है। इसके उलट, उसकी बहन एक होशियार और प्रतिभाशाली लड़की है, जिससे परिवार की उम्मीदें और भी बढ़ जाती हैं।

शीलादित्य मौलिक की फिल्म स्वेटर साल 2019 की एक गहन आत्मविश्लेषणात्मक बंगाली नाटक है जो पारंपरिक लैंगिक मानदंडों और महिलाओं की सामाजिक अपेक्षाओं को चुनौती देती है, खासकर मध्यवर्गीय भारतीय समाज में। हालांकि फिल्म खुद को एक साधारण पारिवारिक नाटक के रूप में प्रस्तुत करती है, लेकिन इसके नारीवादी विषय इस फिल्म को बेहतर बनाते हैं। फिल्म का नाम ‘स्वेटर’ परिवर्तन का एक शक्तिशाली रूपक है। जब फिल्म की नायिका टुकू  को भावी दूल्हे के परिवार के सामने अपनी योग्यता ‘साबित’ करने के लिए बुनाई सीखने के लिए भेजा जाता है, तो स्वेटर बनाने का काम उसकी आत्मखोज का प्रतीक बन जाता है। केवल अपने वैलीडेशन के लिए बुनाई करने के बजाय, वह खुद में आत्मविश्वास पैदा करना सीखती है। परिप्रेक्ष्य में यह बदलाव एक महत्वपूर्ण नारीवादी कथन है। यह विचार कि महिलाओं को सामाजिक मान्यता प्राप्त करने के लिए खुद को ‘प्रदर्शन’ या ‘साबित’ नहीं करना चाहिए।

कहानी एक साधारण लड़की टुकू के आस-पास घूमती है, जो अपने माता-पिता के लिए एक चिंता का विषय बन गई है। उनके लिए टुकू  का कोई खास गुण न होना और उसकी शादी न होना चिंता का कारण है। इसके उलट, उसकी बहन एक होशियार और प्रतिभाशाली लड़की है, जिससे परिवार की उम्मीदें और भी बढ़ जाती हैं। टुकू के शादी के लिए कई परिवार आते हैं, लेकिन हर बार उसे अस्वीकार कर दिया जाता है। इस बीच, उसका एक रॉक स्टार पाब्लो के साथ एक रिलेशनशिप चल रहा है, जो अभी शादी के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं है। उसकी बहन भी आकाश नाम के लड़के के साथ रिश्ते में है, जो उसे नियमित रूप से उपहार देता है। लेकिन वह उसे बताने में हिचकिचाती है कि उसे उसमें रुचि है ताकि वह उसे और अधिक आकर्षित कर सके।

कहानी एक साधारण लड़की टुकू के आस-पास घूमती है, जो अपने माता-पिता के लिए एक चिंता का विषय बन गई है। उनके लिए टुकू  का कोई खास गुण न होना और उसकी शादी न होना चिंता का कारण है।

फिल्म में एक मोड़ तब आता है जब एक परिवार टुकू से मिलने आता है। उस परिवार की होने वाली सास उससे एक शर्त रखती है। उसे बुनाई में माहिर होना होगा। इस शर्त को मानते हुए, टुकू अपनी मौसी के घर जाती है, जहां उसकी मुलाकात शामयो नामक एक वायलिन वादक से होती है। शामयो, जो कैंसर से पीड़ित है, अपनी आशावादिता से टुकू को प्रेरित करता है। उसकी सकारात्मकता टुकू को आत्मविश्वास से भर देता है और उसे एक नया रूप देता है। वहीं, आकाश टुकू के घर आमंत्रित होता है, लेकिन जब उसे यह एहसास होता है कि टुकू की बहन ने उसे केवल एक लेन-देन के रिश्ते के लिए इस्तेमाल किया है, तो वह शादी से मना कर देता है। जब टुकू अपने घर लौटती है, तो वह शादी प्रस्ताव को अस्वीकार कर देती है और पाब्लो को उन कटलेट्स के लिए भी भुगतान करती है, जो उसने उसे दो साल तक खिलाए थे।


निर्देशन, छायांकन और फिल्म का संगीत

तस्वीर साभार: The Statesman

खूबसूरत हिल स्टेशन पर फिल्माई गई यह फिल्म इंद्रियों को आनंदित करती है। सिनेमैटोग्राफर ने पहाड़ियों में रहने वाले परिवार की स्थानीय बारीकियों को पकड़ने में वाकई सराहनीय काम किया है। कैमरा सही समय पर सही जगह फोकस करता है। ऐसा लगता है कि इस फिल्म को हिल स्टेशन पर सेट करना जानबूझकर किया गया फैसला है क्योंकि इससे कहानी में एक खास किरदार जुड़ जाता है। ऐसा लगता है कि टुकू की तरह ही पहाड़ियों में भी गर्मजोशी नहीं है। निर्देशक शिलादित्य अपने हुनर के उस्ताद हैं और यह उनकी फिल्म में झलकता है। निर्देशक ने हमें एक भरोसेमंद नायक दिया है। टुकू का किरदार दर्शक को समानता का अनुभव देता हैं, जो अपनी क्षमताओं के बारे में अनिश्चित हैं और उन्हें हमेशा बाहरी मान्यता की आवश्यकता होती है। फिल्म पितृसत्तात्मक परिवार में बेटियों की दबी हुई भावनाओं को आसानी से पकड़ने में कामयाब रही है।

संगीत इस फिल्म का सबसे अच्छा हिस्सा है। ‘प्रेमे पोरा बारोन’ लगभग एक क्लासिक बन चुका है। इसके अलावा, ‘एरा सुखेर लागी’ भी एक सुखद एहसास देता है। स्वेटर पूरी तरह से भावनाओं पर आधारित है और संगीत कभी भी कहानी में बाधा नहीं बनता बल्कि फिल्म को एक माध्यम प्रदान करता हैं। ईशा साहा ने अपने किरदार टुकू की कमज़ोरी और ताकत को शालीनता के साथ पेश करते हुए एक उल्लेखनीय प्रदर्शन किया है। कलाकारों के बीच की केमिस्ट्री स्पष्ट है, और स्तरित चित्रण उनके रिश्तों में गहराई जोड़ते हैं। श्रीलेखा मित्रा टीकू की मौसी के रूप में प्रेरणादायक हैं जो टुकू के लिए एक मजबूत स्तंभ के रूप में काम करती है, जबकि जून मालिया और खराज मुखर्जी अपने पात्रों में गर्मजोशी लाते हैं, पूरी कहानी में हार्दिक क्षणों को बढ़ाते हैं।

शामयो, जो कैंसर से पीड़ित है, अपनी आशावादिता से टुकू को प्रेरित करता है। उसकी सकारात्मकता टुकू को आत्मविश्वास से भर देता है और उसे एक नया रूप देता है। वहीं, आकाश टुकू के घर आमंत्रित होता है, लेकिन जब उसे यह एहसास होता है कि टुकू की बहन ने उसे केवल एक लेन-देन के रिश्ते के लिए इस्तेमाल किया है, तो वह शादी से मना कर देता है।

फिल्म का नारीवादी संदेश

तस्वीर साभार: ABP

यह फिल्म नारीवाद और महिला संघर्ष की गहराई से पड़ताल करती है, जहां टुकू अपने आत्मसम्मान और पहचान की खोज में जुटी है। यह कहानी न केवल एक लड़की की व्यक्तिगत यात्रा है, बल्कि यह उस सामाजिक दबाव को भी दिखाती है, जो महिलाओं पर शादी और पारिवारिक मानदंडों को लेकर होता है। ‘स्वेटर’ एक ऐसी कहानी है, जो हमें सिखाती है कि अपनी पहचान को खोजने और नारीवादी दृष्टिकोण के साथ खड़े होने की क्या ताकत है। अपनी खूबियों के बावजूद, ‘स्वेटर’ कभी-कभी धीमी पड़ती है। खासकर इसके दूसरे भाग में जिससे पहले बनी तीव्रता कम हो जाती है। हालांकि इसके नारीवादी पहलू सराहनीय हैं, लेकिन यह फिल्म विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि में महिलाओं द्वारा सामना किए जाने वाले विविध संघर्षों को और बेहतर ढंग से उजागर करते हुए अंतर्संबंधों को गहराई से उजागर कर सकती थी।

‘स्वेटर’ एक भावनात्मक रूप से आकर्षक फिल्म है जो सामाजिक अपेक्षाओं के उलट अपने लिए जगह बनाने की कोशिश करने वाले किसी भी व्यक्ति के साथ गहराई से जुड़ती है। यह फ़िल्म महज़ एक कहानी से कहीं ज़्यादा है। यह फिल्म हमें याद दिलाता है कि एकता और खुद को अपनाने में बहुत ताकत होती है। ये कहानियां उन औरतों की हैं जो एक-दूसरे का साथ देकर मुश्किल हालात से गुज़री हैं, जिनकी सच्चाई भरे अनुभव हमारे समाज को बहुत कुछ सिखा सकते हैं। यदि आप एक ऐसी फिल्म की तलाश में हैं जिसमें व्यंग्य और नाटक को चतुराई से बुनते हुए नारीवादी मूल्य हो, तो ‘स्वेटर’ एक देखने लायक फिल्म है।

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