इंटरसेक्शनलLGBTQIA+ क्वीयर समुदाय के लिए आखिर कितनी सुरक्षित है डिजिटल दुनिया?

क्वीयर समुदाय के लिए आखिर कितनी सुरक्षित है डिजिटल दुनिया?

डिजिटल हैरसमेंट की वजह से कई क्वीयर लोग सोशल मीडिया पर चुप रहना चुन लेते हैं। इसे ‘ज़ीरो पोस्टिंग’ कहा जाता है। ऐसे लोग अपनी बातें, भावनाएं और पहचान खुलकर साझा नहीं कर पाते। वे खुद को अभिव्यक्त करने से डरने लगते हैं।

डिजिटल दुनिया लोगों को अपनी पहचान जताने, बोलने और अपने जैसे लोगों से जुड़ने की आज़ादी देती है। लेकिन यही दुनिया कई बार बेहद ख़तरनाक भी साबित होती है। क्वीयर समुदाय के लिए यह एक दोधारी तलवार की तरह है। भारत में एलजीबीटीक्यू+ लोग सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म्स के ज़रिए अपनी पहचान के साथ जीने और अपनी बात कहने का मौका पाते हैं। लेकिन इसी के साथ उन्हें ट्रोलिंग, आउटिंग, डॉक्सिंग, ब्लैकमेलिंग, डीपफ़ेक और ऑनलाइन हैरासमेंट जैसे ख़तरों का सामना भी करना पड़ता है। जब परिवार और समाज उन्हें स्वीकार नहीं करता, तब डिजिटल स्पेस उन्हें खुद को ज़ाहिर करने की जगह देता है। लेकिन, इस आज़ादी की क़ीमत भी भारी होती है। मानसिक तनाव, सामाजिक दबाव, आर्थिक नुकसान और कई बार जान का ख़तरा तक पैदा हो जाता है।

इसी डर की वजह से कई क्वीयर लोग चुप हो जाते हैं या दोहरी ज़िंदगी जीने को मजबूर होते हैं। डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म्स क्वीयर लोगों के लिए कई मायनों में मददगार हैं। सोशल मीडिया और डेटिंग ऐप्स उन्हें साथी ढूंढने, दोस्त बनाने और सपोर्ट सिस्टम पाने में मदद करते हैं। खासकर छोटे शहरों और दूर-दराज़ के इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए यह अकेलेपन से निकलने का ज़रिया बनते हैं। लेकिन ऑनलाइन दुनिया भी भेदभाव से मुक्त नहीं है। यहां भी ट्रोलिंग, गाली-गलौज, धमकियां और उत्पीड़न आम हैं। कई लोग झूठी पहचान बनाकर क्वीयर समुदाय को नुकसान पहुंचाते हैं। एलजीबीटीक्यू+ कंटेंट क्रिएटर्स, खासकर नॉन-बाइनरी लोग, अक्सर बेहद हिंसक भाषा और धमकियों का सामना करते हैं। डिजिटल दुनिया क्वीयर समुदाय के लिए उम्मीद भी है और ख़तरा भी।

एलजीबीटीक्यू+ लोग सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म्स के ज़रिए अपनी पहचान के साथ जीने और अपनी बात कहने का मौका पाते हैं। लेकिन इसी के साथ उन्हें ट्रोलिंग, आउटिंग, डॉक्सिंग, ब्लैकमेलिंग, डीपफ़ेक और ऑनलाइन हैरासमेंट जैसे ख़तरों का सामना भी करना पड़ता है।

ज़रूरत इस बात की है कि ऑनलाइन स्पेस को ज़्यादा सुरक्षित, संवेदनशील और समावेशी बनाया जाए। इस बारे में द हिंदू में प्रकाशित एक ख़बर में एलजीबीटीक्यू+ एडवोकेसी समूह, ‘यस! वी एक्जिस्ट’ के संस्थापक जीत कहते हैं कि भारत में एलजीबीटीक्यू+ कंटेंट क्रिएटर्स को ऑनलाइन, ख़ासकर इंस्टाग्राम पर, बहुत ज़्यादा बुरा व्यवहार का सामना करना पड़ता है। इसमें उनके ख़िलाफ़ ग़लत शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है, बलात्कार और जान से मारने जैसी धमकियां भी मिलती हैं, और तरह-तरह से परेशान किया जाता है।

कैसा है क्वीयर समुदाय का डिजिटल दुनिया अनुभव

क्वीयर समुदाय से ताल्लुक रखने वाली उत्तर प्रदेश की 26 साल की कंटेंट क्रिएटर लकी (बदला हुआ नाम) ने इस बारे में बताते हैं, “मैं पिछले 5-6 सालों से सोशल मीडिया पर एक्टिव हूं। मेरे टॉमबॉय लुक की वजह से कई बार लोग सीधे मुझे मेरा जेंडर पूछ लेते हैं तो कई बार कमेंट में उल्टी सीधी बातें लिखते हैं, जैसे कि तुम्हें तो एक मर्द की ज़रूरत है। शुरू में तो बहुत अजीब लगता था, बहुत बार मैंने अपनी आईडी महीनों महीनों तक डीएक्टिवेट करके रखी। लेकिन अब लोगों को उन्हीं की भाषा में जवाब देना सीख चुकी हूं। एक डेटिंग ऐप पर भी मेरा अनुभव काफ़ी तकलीफदेह रहा, जब एक सिस हेट्रो मैन ने लड़की की फर्ज़ी आईडी बनाकर मुझसे रोमांटिक बातचीत की और ब्लैकमेल की कोशिश की। परिवार, समाज के साथ ही पुलिस प्रशासन भी हमारे साथ डिस्क्रिमिनेशन करता है।” देश में एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के खिलाफ ऑनलाइन हिंसा और उत्पीड़न लगातार नए रूप ले रहे हैं। डिजिटल मीडिया पर ट्रोलिंग, घोस्टिंग और साइबर बुलीइंग आम होती जा रही है। इनका सीधा असर लोगों की मानसिक सेहत पर पड़ता है।

एक डेटिंग ऐप पर भी मेरा अनुभव काफ़ी तकलीफदेह रहा, जब एक सिस हेट्रो मैन ने लड़की की फर्ज़ी आईडी बनाकर मुझसे रोमांटिक बातचीत की और ब्लैकमेल की कोशिश की। परिवार, समाज के साथ ही पुलिस प्रशासन भी हमारे साथ डिस्क्रिमिनेशन करता है।

क्वीयर समुदाय और डॉक्सिंग  

क्वीयर समुदाय के लिए डॉक्सिंग और आउटिंग सबसे खतरनाक रूप बन चुके हैं। डॉक्सिंग का मतलब है बिना अनुमति किसी की निजी जानकारी, जैसे पता या फोन नंबर, सार्वजनिक करना। वहीं आउटिंग में किसी व्यक्ति की जेंडर पहचान या सेक्शुअल ओरिएंटेशन उसकी मर्जी के बिना उजागर कर दी जाती है। चूंकि हमारा समाज अभी भी एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लिए पूरी तरह सुरक्षित और समावेशी नहीं है, इसलिए कई लोग परिवार और समाज के सामने अपनी पहचान छिपाने को मजबूर होते हैं। ऐसे में फेक अकाउंट बनाकर बदनाम करने की धमकी देना और ब्लैकमेल करना बेहद गंभीर समस्या बन जाती है। अब एआई से बने डीपफेक वीडियो और मोर्फ्ड तस्वीरों के जरिए ब्लैकमेलिंग भी बढ़ गई है। इसके कारण क्वीयर लोग ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर भी खुद को सुरक्षित महसूस नहीं कर पाते। इसके अलावा ऑनलाइन स्टॉकिंग और डेटा लीक जैसी समस्याएं भी बढ़ रही हैं। कई ऐप्स और प्लेटफॉर्म यूजर्स की निजी जानकारी बिना स्पष्ट सहमति के थर्ड पार्टी के साथ साझा कर देते हैं।

दिल्ली के रहने वाले मीडिया प्रोफेशनल और लेखक इमरान खान नजफी कहते हैं, “मेरा एक निजी अनुभव बेहद कड़वा है, जिसने डिजिटल दुनिया पर मेरा भरोसा कमज़ोर कर दिया। ग्रिंडर के जरिए बनी पहचान धीरे-धीरे भरोसे में बदली, लेकिन पहली मुलाक़ात के बाद वही व्यक्ति मेरे घर से कीमती सामान चुरा कर भाग गया। पुलिस में शिकायत दर्ज़ कराना और भी ज़्यादा ट्रॉमैटिक साबित हुआ क्योंकि मदद के बजाय मेरी निजी पहचान और सेक्शुअल ओरिएंटेशन पर सवाल उठाए गए। इस घटना के बाद ऑनलाइन स्पेस कभी पहले जैसा सुरक्षित महसूस नहीं हुआ। अब मैं बेहद सतर्क रहता हूं। निजी जानकारी साझा नहीं करता, प्रोफाइल की सच्चाई जांचता हूं और ज़रा-सी शंका होने पर बातचीत रोक देता हूं। लेकिन, फोटो या पहचान साझा करने में डर बना रहता है। मुश्किल समय में मैं भरोसेमंद दोस्तों और कम्युनिटी के लोगों से मदद लेता हूं।” इमरान आगे कहते हैं कि “सेफ डिजिटल स्पेस का मतलब है संवेदनशील क़ानून व्यवस्था, जवाबदेह एलजीबीटीक्यू+ फ्रेंडली प्लेटफ़ॉर्म्स और ऐसी तकनीक जो क्वीयर लोगों की गरिमा सुनिश्चित करे। पुलिस को जेंडर सेंसिटिविटी ट्रेनिंग की बेहद ज़रूरत है। लोगों में एलजीबीटीक्यू+ समुदाय को लेकर अवेयरनेस लाने की भी ज़रूरत है।”  

ग्रिंडर के जरिए बनी पहचान धीरे-धीरे भरोसे में बदली, लेकिन पहली मुलाक़ात के बाद वही व्यक्ति मेरे घर से कीमती सामान चुरा कर भाग गया। पुलिस में शिकायत दर्ज़ कराना और भी ज़्यादा ट्रॉमैटिक साबित हुआ क्योंकि मदद के बजाय मेरी निजी पहचान और सेक्शुअल ओरिएंटेशन पर सवाल उठाए गए।

डिजिटल हिंसा की गंभीरता

साल 2023 में 16 साल के कंटेंट क्रिएटर और इनफ्लुएंसर प्रियांशु यादव की ऑनलाइन ट्रोलिंग और हैरसमेंट से परेशान होकर आत्महत्या से मौत हो गई थी। ऐसी घटनाएं अब बार-बार सामने आ रही हैं और यह डिजिटल हिंसा की गंभीरता को दिखाती है। डिजिटल हैरसमेंट की वजह से कई क्वीयर लोग सोशल मीडिया पर चुप रहना चुन लेते हैं। इसे ‘ज़ीरो पोस्टिंग’ कहा जाता है। ऐसे लोग अपनी बातें, भावनाएं और पहचान खुलकर साझा नहीं कर पाते। वे खुद को अभिव्यक्त करने से डरने लगते हैं। कई क्वीयर लोग अपनी प्रोफाइल लॉक कर लेते हैं या अपनी तस्वीरें पोस्ट करना बंद कर देते हैं। कुछ लोग अपने रिश्तों के बारे में कुछ भी साझा नहीं करते। धीरे-धीरे वे खुद को सेंसर करने लगते हैं, ताकि किसी तरह की ट्रोलिंग या हिंसा से बच सकें। कई बार यह असुरक्षा इतनी बढ़ जाती है कि लोग सोशल मीडिया या डेटिंग ऐप्स पूरी तरह छोड़ देते हैं। इसका असर उनके सामाजिक जीवन पर पड़ता है।

अकेलापन बढ़ता है और तनाव, चिंता और डिप्रेशन जैसी मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं गहरी हो जाती हैं। एक रिसर्च के अनुसार, डिजिटल हिंसा क्वीयर समुदाय के मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान पहुंचाती है। इससे अकेलापन, घबराहट और खुद को नुकसान पहुंचाने का खतरा बढ़ जाता है। खासकर सोशल मीडिया पर नॉन-बाइनरी लोगों का उनके रूप, कपड़ों और हाव-भाव के लिए मज़ाक उड़ाया जाता है। इस भेदभाव की वजह से कई लोगों को अपनी पहचान पर शक होने लगता है। उनका आत्मविश्वास और आत्मसम्मान कमजोर पड़ता है। डॉक्सिंग और आउटिंग के डर से वे अपनी पहचान छुपाने लगते हैं और लोगों से जुड़ने से भी कतराने लगते हैं।

मैं पिछले 5-6 सालों से सोशल मीडिया पर एक्टिव हूं। मेरे टॉमबॉय लुक की वजह से कई बार लोग सीधे मुझे मेरा जेंडर पूछ लेते हैं तो कई बार कमेंट में उल्टी सीधी बातें लिखते हैं, जैसे कि तुम्हें तो एक मर्द की ज़रूरत है। शुरू में तो बहुत अजीब लगता था, बहुत बार मैंने अपनी आईडी महीनों महीनों तक डीएक्टिवेट करके रखी।

इस बारे में मनमानस रिहैबिलिटेशन फाउंडेशन एंड ट्रस्ट की फाउंडर और क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉली सिंह कहती हैं, “डिजिटल वॉयलेंस का एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लोगों में बहुत गहरा असर पड़ता है। कई लोग लगातार डर, बेचैनी और हाइपर-विजिलेंस में जीने लगते हैं। इससे एंग्ज़ायटी डिसऑर्डर, डिप्रेशन, पैनिक अटैक्स और नींद की समस्याएं बढ़ती हैं। लगातार हैरासमेंट से इनमें अपराधबोध और अकेलेपन की भावना गहरी हो जाती है, जो कई बार सेल्फ-आइज़ोलेशन और सोशल विदड्रॉल में बदल जाती है। लगातार ट्रोलिंग, बुलीइंग और हेटफुल कंटेंट के संपर्क में रहने से इंटर्नलाइज्ड स्टिग्मा का जोख़िम भी बढ़ जाता है। सही समय पर मेंटल हेल्थ फैसिलिटी और सपोर्ट सिस्टम नहीं मिलने पर व्यक्ति में सेल्फ हार्म का ख़तरा भी पैदा हो जाता है। यह केवल ऑनलाइन समस्या नहीं, बल्कि गंभीर मानसिक स्वास्थ्य का मुद्दा है।”

क़ानून, तकनीक और प्लेटफ़ॉर्म की कमियां

भारत में डिजिटल स्पेस को सुरक्षित रखने के लिए आईटी एक्ट 2000 लागू है। इसकी धारा 66C पहचान की चोरी से जुड़ी है। धारा 66D ऑनलाइन धोखाधड़ी से संबंधित है। वहीं धारा 67 अश्लील और नुकसानदेह कंटेंट पर कार्रवाई की बात करती है। डिजिटल अपराध के मामलों में भारतीय न्याय संहिता (BNS) 2023 की कुछ धाराओं के तहत भी केस दर्ज किए जाते हैं। लेकिन समय के साथ डिजिटल हिंसा के नए रूप सामने आए हैं। इसी वजह से 2023 में डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन एक्ट लाया गया। यह कानून पर्सनल डेटा की सुरक्षा पर केंद्रित है। लेकिन, इसमें डिजिटल हिंसा रोकने के लिए ठोस प्रावधान नहीं हैं। इसमें बच्चों और विकलांग लोगों के लिए कुछ विशेष प्रावधान हैं, लेकिन एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लिए अलग से कोई व्यवस्था नहीं है। भारत के मौजूदा साइबर कानून क्वीयर समुदाय की जरूरतों को पूरी तरह नहीं समझते। डेटिंग ऐप्स पर डेटा लीक होना आम है, लेकिन इसके लिए साफ गाइडलाइन नहीं हैं।

डिजिटल हैरसमेंट की वजह से कई क्वीयर लोग सोशल मीडिया पर चुप रहना चुन लेते हैं। इसे ‘ज़ीरो पोस्टिंग’ कहा जाता है। ऐसे लोग अपनी बातें, भावनाएं और पहचान खुलकर साझा नहीं कर पाते। वे खुद को अभिव्यक्त करने से डरने लगते हैं। कई क्वीयर लोग अपनी प्रोफाइल लॉक कर लेते हैं या अपनी तस्वीरें पोस्ट करना बंद कर देते हैं।

एआई और कंटेंट मॉडरेशन में मौजूद पक्षपात के कारण क्वीयर लोगों की शिकायतें अक्सर अनसुनी रह जाती हैं। पुलिस में भी संवेदनशीलता की कमी के चलते रिपोर्टिंग कम होती है। आने वाले दिनों में डिजिटल दुनिया सुरक्षित हो, इसके लिए ऑनलाइन स्पेस को क्वीयर फ्रेंडली और समावेशी बनाने की जरूरत है। इसके लिए एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लिए विशेष कानून जरूरी हैं। सरकार को डिजिटल प्लेटफॉर्म्स की जवाबदेही तय करनी चाहिए। डीपफेक और फेक प्रोफाइल रोकने के लिए बेहतर तकनीक अपनानी होगी। प्रशासन को भी क्वीयर समुदाय के प्रति संवेदनशील और जागरूक करना होगा। साथ ही, कम्युनिटी सपोर्ट और मेंटल हेल्थ सेवाएं मजबूत करना भी जरूरी है। डिजिटल स्पेस तभी सुरक्षित होगा जब सरकार, तकनीक, कानून और समाज मिलकर काम करें।

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