धनञ्जय मंगलमुखी
पंजाब विश्वविद्यालय का घटनाक्रम – लेखिका की नज़र में (अप्रैल 2017 में लिखित) मैं धनञ्जय मंगलमुखी पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ़ की प्रथम ट्रांसजेंडर स्टूडेंट हूँ। मैं 45 साल तक अपनी असली पहचान के लिए संघर्ष करती रही। सारी दुनिया के लोग हैरान परेशान हैं कि ऐसे कैसे हो सकता है कि जो इंसान बहुत साल तक अपने आप को ‘गे’ (समलैंगिक) समझता रहा हो वो अचानक से कैसे एक ट्रांसजेंडर हो सकता है? चूँकि मैं इसी शहर में जन्मी-पली-बढ़ी हूँ और मेरा सारा जीवन तक़रीबन पंजाब विश्वविद्यालय में बीता है। दरअसल मेरे पिताजी इसी विश्वविद्यालय में कर्मचारी थे। इसलिए मुझे यहाँ जानने वाले ढ़ेरों लोग हैं जिसकी वजह से मुझे अपने जेंडर को बदलने के बाद अपनी पहचान को स्थापित करने में काफी परेशानी आयी।
ज्यादातर ट्रांसजेंडर एक शहर से दूसरे शहर में चले जाते हैं जहाँ उनको उनकी पिछली जिंदगी के बारे में जानने वाले कम होते हैं। लेकिन मैंने इस शहर को नहीं छोड़ा। लेकिन यह सच है कि मैं अपने आप को हमेशा एक औरत ही मानती रही हूँ। चूँकि हमारे देश में अभी भी जेंडर, सेक्स और सेक्सुअलिटी पर खुलकर बात नहीं होती है| ऐसे में मेरा जेंडर भ्रमित होना निश्चित है। मुझे यह समझ नहीं आता था कि एक मर्द कैसे मर्द के शरीर में एक औरत हो सकता है? लेकिन काफी सालों तक खोजबीन और दुनियाभर के लोगों से बात करने के बाद पता चला कि जो अपने आप को औरत मानता है और यह सोचता हो कि ‘वह मर्द नहीं एक औरत है और एक गलतशरीर में जन्म ले लिया है’ वही तो ट्रांस औरत है।
ट्रांसजेंडर का कौन?
जब मैंने पंजाब विश्वविद्यालय में एडमिशन लिया तो मेरे साथ सबसे पहले यही परेशानी आयी कि लोग मुझे ट्रांसजेंडर मानने में आना-कानी कर रहे थे। लेकिन मैंने बड़ी दृढ़ता से हर किसी को समझाया। मेरे ट्रांसजेंडर बनने के साथ ही मेरा घर-बार, यार-दोस्त सब छूट गए। फिर न कोई घर रहा और न परिवार। सिर्फ एक दरवाजा था, वो था – ‘किन्नर डेरा’, जहाँ मुझे पनाह मिली। मेरे गुरु काजल मंगलमुखी ने मेरा हर कदम पर साथ दिया। मुझे पढ़ने के लिए प्रोहत्साहित करती रही। चूँकि पैसे की कमी थी तो मेरी कुछ फीस मेरी गुरु भरती रही। हाल ही के कुछ दिनों पहले पंजाब विश्वविद्यालय ने हर पाठ्यक्रम की फीस कई गुना बढ़ा दी, जिससे एक गरीब क्या एक मध्यमवर्ग घर से ताल्लुक रखने वाले स्टूडेंट को भी फीस देना बहुत मुश्किल होती। ऐसे में जब आम इंसान को मुश्किल आने वाली है तो ट्रांसजेंडर स्टूडेंट इससे कैसे अछूते रह सकते हैं?
आम लोगों का तो कोई न कोई सहारा है चाहे वो एक गरीब बच्चा ही क्यों न हो। लेकिन एक ट्रांसजेंडर का कौन है? एकतरफ तो सरकार ट्रांसजेंडर्स को समाज की मुख्यधारा में जोड़ने की बात करती है पर दूसरी तरफ इस तरह के काम करती हैं, जिससे ट्रांसजेंडर्स को पढ़ाई से ही रोका जा रहा है। जबकि पढ़ाई से ही एक किन्नर मुख्यधारा में आ सकता है। पहले तो सरकार ट्रांसजेंडर की कुल फीस ही माफ़ कर देनी चाहिए। उल्टा विश्वविद्यालय फीस कई गुना बढ़ा रही है, जिससे थोड़ा-बहुत ट्रांसजेंडर का मन पढ़ाई के लिए बनने लगा था वो भी फीस कारण कम होने लगा है। मेरे किन्नर डेरे के लोग भी कितना मदद करेंगे? क्यूंकि मैं उनके साथ टोली बधाई पर नहीं जा सकती क्यूंकि मुझे दिन में पढ़ाई करनी होती है। मैंने तो इसबार सोच लिया था कि अगर कोई भी चारा न बचा तो मैं देह व्यापार करुँगी। ताकि मैं अपनी पढ़ाई की फीस दे पाऊं।
मैं अपने आप को हमेशा एक औरत ही मानती रही हूँ।
और मैं बन गयी छात्र-राजनीति का केंद्र
फीस बढ़ने की खबर से विश्वविद्यालय की छात्र-राजनीति भी ज़ोर पकड़ने लगी थी। पिछले दस-बारह दिन से स्टूडेंट्स ने कई आंदोलन किये, जो कि शांतिपूर्ण रहे जिसमें मैं भी पूरी तरह से शामिल रही। अकेली ट्रांसजेंडर होने के नाते मेरे कन्धों पर पूरे ट्रांसजेंडर समाज का दायित्व था और सब छात्र-राजनितिक संगठन मुझे अपने में मिलाने की कोशिश में रहते हैं लेकिन मैं एक अलग रणनीति से काम करती हुई सब के साथ रह कर काम करती रही। मौजूदा समय में मैं विश्वविद्यालय छात्र-राजनीति का एक केंद्र बिंदु बन गयी हूँ। मेरी भूमिका अहम् मानी जाने लगी है। क्यूंकि विश्वविद्यालय में मेरे फॉलोवर्स सैकड़ों में हैं जो कि राजनैतिक दलों को अच्छी तरह पता है। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का केंद्र बिंदु भी मैं हूँ। और पढ़ें : सफ़र ‘अवध गौरव यात्रा’ का: जब मेरी आँखों में सुकून के आंसू थे
मुश्किलों के बावजूद कायम रहा पढ़ने का जज्बा
लेकिन ग्यारह अप्रैल तारीक की घटना से दिल दहल गया। सब लोग सुबह से ही उप-कुलपति के दफ्तर के बाहर जमा थे और नारेबाजी कर रहे थे। चप्पे-चप्पे पर पुलिस का पहरा था। विश्वविद्यालय के सारे गेट बंद थे। छात्र खूब नारेबाजी कर रहे थे। लेकिन अचानक पुलिस और छात्र के बीच झड़प हो गयी जो कि हिंसक रूप धारण कर गयी। मैं और मेरे साथ के बीस-पच्चीस छात्र और छात्राएं वहां से लाठीचार्ज से बचकर अपने विभाग की तरफ निकल आये। क्यूंकि हम लोग मार-पीट के पक्ष में नहीं थे। उप-कुलपति के दफ्तर के साथ लगे बैरिकेट तोड़कर छात्र दफ्तर में घुस गए और तोड़-फोड़ शुरू हो गई।पुलिस छात्रों को खदेड़-खदेड़ के मार रही थी। पुलिस की तरफ से आंसू गैस, वाटर केनन और पानी की बौछार हो रही थी और छात्रों की तरफ से पत्थर की बौछारें हो रही थी। बहुत छात्र जख्मी हो रहे थे जिनको उनके साथी उठाकर के सुरक्षित जगह ले जा रहे थे। लेकिन पुलिस उनको पकड़कर घसीटकर अपने साथ ले जा रही थी। पुलिस के जवान भी जख्मी हुए। यह भी सुनने में आया की एक महिला पुलिस जो कि गर्भवती थी काफी जख्मी हुई और उसके गर्भ को नुक्सान पहुंचा। मैं हैरान थी कि ऐसी हालत में पुलिस ने उसको ड्यूटी पर क्यों भेजा? कई जगह पुलिस प्रशासन नाकारा-निकम्मा नजर आ रहा था।
हमारे देश में अभी भी जेंडर, सेक्स और सेक्सुअलिटी पर खुलकर बात नहीं होती है|
जख्मी छात्रों और पुलिस वालों को अस्पताल ले जाया जा रहा था। साथ ही छात्रों को दौड़ा-दौड़ा कर मारा जा रहा था। ऐसे में जब मैं भगदड़ से बचने के लिए ईमारत में आ रही थी तो पुलिस मेरे आगे पीछे भागने वालों को मार रही थी। लेकिन मेरे ऊपर हाथ डालने में हिचका रहे थे। पुलिस वाले मुझे देखकर हैरान थे कि ये क्या चीज है? औरत भी नहीं और न ही मर्द है। पहले तो उनको समझ ही नहीं आ रहा था कि ये भी विद्यार्थी होगी। मैंने सोचा कि अगर मैं भागूँगी तो यह मेरे साथ गलत भाषा का इस्तेमाल या मार पिटाई कर सकते हैं। हो सकता था कि मुझे भी गिरफ्तार कर लें… लेकिन ऐसा नहीं हुआ। मैंने जान-बूझकर पुलिस वालों को बोला कि मुझे भी पकड़ो। वो बोले कि तुम यहाँ से निकल लो, नहीं तो तुमपर गोली या आंसूं गैस गिर सकती है। फिर मैं ईमारत में छुप गयी। दो घंटों के बाद मैं और मेरी साथी वहाँ से निकले और अपना स्कूटर लेके विश्वविद्यालय से निकलने लगे। लेकिन विश्वविद्यालय के सारे गेट सील थे। हम बाहर न जा सके और हम फिर से अपने विभाग में वापस आ गए और गेट खुलने का इंतज़ार करने लगे। स्टूडेंट्स को खोजा जा रहा था। अंत में छात्रों को आत्मसमर्पण करना पड़ा। पूरे घटनाक्रम में कई स्टूडेंट और पुलिस वाले गंभीर रूप से जख्मी हुए और तकरीबन साठ-सत्तर गिरफ्तार हुए। देर रात तक पुलिस काफी छात्रों पर देशद्रोह के साथ-साथ तमाम सख्त धाराएं लगवा रही थी। लेकिन यूनिवर्सिटी प्रशासन और कुछ कारणों से देशद्रोह जैसे गंभीर धाराएं हटा दी गयी जिनको लगाने का कोई कारण भी नहीं था।
यह तो एक हक़ की लड़ाई थी जो कि हिंसा का रूप धारण कर गयी। और पढ़ें : ‘वो लेस्बियन थी’ इसलिए बीएचयू हास्टल से निकाली गयी अब तक की ज़िन्दगी में मैंने इस तरह का हुजूम और भारी हिंसा कभी नहीं देखी। इस तमाम घटनाक्रम के बाद केंद्र सरकार और न्यायालय द्वारा विश्वविद्यालय प्रशासन से विस्तृत रिपोर्ट तलब की गयी है। ट्रांसजेंडर्स बड़ी मुश्किल से पढ़ने के लिए आगे आने की कोशिश कर रहे थे लेकिन ऐसी घटनाओं से मन में गहरा असर पड़ता है। सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि हम ट्रांसजेंडर्स का इन शैक्षणिक संस्थाओं में क्या भविष्य होगा? जहाँ हिंसा अपनी जड़ें बनाने में लगी हुई हों। मीडिया मेरे साथ पूरी तरह जुडी हुई है। वह जानने की कोशिश कर रहे हैं की हम ट्रांसजेंडर्स की क्या सोच है? लेकिन मेरी सभी ट्रांसजेंडर लोगों से अपील है कि वह इन घटनाओं से विचलित न हों। पढ़ना फिर भी जरूरी है| हम जैसे दबे कुचले लोगों का पढ़ना बहुत जरूरी है, क्योंकि यही हमें समाज की मुख्यधारा से जोड़ने का अहम पुल साबित होगा|
ये लेख पहले गेलेक्सी मैगजीन में प्रकाशित हो चुका है| इस लेख को धनंजय मंगल्मुखी ने लिखा है|