श्रृंगार और महिला शब्द को हमेशा से ही ऐसे प्रस्तुत किया जाता है, जैसे कि ये दोनों एक-दूसरे के लिए ही बने हो और ये बात सिर्फ़ शब्द तक सीमित नहीं है, बल्कि ये इस शब्द के पीछे के विचार, हमारे व्यवहार और समाज के चरित्र को भी दिखाती है। इसबात को हम अपने बचपन के संदर्भ में अच्छे से समझ सकते हैं, जब लड़के को मज़बूत बनाने और लड़की को सुंदर बनाने के लिए तमाम, रस्म-रिवाज और उपाय किए जाते हैं। ध्यान रहे कि सुंदर बनाने के उपाय सिर्फ़ उपाय नहीं होते, बल्कि ये लड़की के सामाजीकरण और उसके व्यक्तिव को दिशा देने में भी अहम भूमिका अदा करते हैं।
आज अपने लेख के माध्यम से मैं उन्हीं श्रृंगारों की चर्चा करने जा रही हूँ,जो न केवल महिला के व्यक्तित्व व अस्तित्व को बल्कि समाज में उसकी भूमिका और प्रस्थिति को भी बनाने और लगातार प्रभावित करने का काम करती है क्योंकि ये श्रृंगार है पितृसत्ता का –
महिला-शरीर में पितृसत्ता का श्रृंगार
‘एक अच्छी औरत।’ ये वाक्य सुनते ही हमारे मन में एक महिला की छवि उभरती है। उस महिला की छवि में वो बातें जो उसे अच्छी बनाती है वो कुछ इस तरह होंगीं – गोरा रंग, छरहरा बदन, लंबे बाल, ढके हुए कपड़े, दबी हुई आवाज़, सब सुनने-सहने और बिना अपने विचार दिए सबकी बात मानना और अच्छे गहनों से लदी हुई वग़ैरह-वग़ैरह।
सोचने वाली बात है कि आख़िर ऐसी छवि हमारे मन में आती कहाँ से है। स्वाभाविक है उस माहौल से जिसमें हम जीते आए हैं और जिसमें हम जी रहे हैं। वो माहौल जो पितृसत्ता के बनाए अच्छी महिला के ढाँचें में लड़की को बचपन से ही ढालने में अपनी पूरी ताक़त झोंक देता है। ये प्रक्रिया ऐसी है जो महिलाओं को बचपन से उन्हें सुंदरता के मानक में सिमटे रहने पर ज़ोर देती है।
ज़रूरी नहीं कि सभी का शरीर एक जैसा और समाज के बनाए मानकों के अनुसार परफ़ेक्ट हो। पर उसे परफ़ेक्ट बनाने की जद्दोजहद में अपनी ज़िंदगी गुज़ारना ये भी अपने आपमें एक जटिल प्रक्रिया का हिस्सा है। अब रंगत गोरी नहीं तो उसे गोरा करने की मेहनत, बाल छोटे है तो उसे लंबे किए जाने पर ज़ोर, वज़न ज़्यादा और लंबाई कम होतों उसे दुरुस्त करने पर काम और भी न जाने क्या-क्या। ध्यान रहे कि इसमें महिला की सहमति और इच्छा को एकदम दरकिनार करके काम किया जाता है। अगर महिला के सुर सत्ता के अनुसार है तो ठीक वरना ‘चार लोग क्या कहेंगें’ ये कहकर उसे मन मुताबिक़ आकार दिया जाता है।
पितृसत्ता के बनाए अच्छी महिला के ढाँचें में लड़की को बचपन से ही ढालने में अपनी पूरी ताक़त झोंक देता है।
शाही शादी और दहेज वाला पितृसत्ता का सम्मान
यों तो दहेज के विरुद्ध हमारे देश में क़ानून सालों पहले बन चुका है। पर अभी ये ज़मीनी सरोकार से कोसों दूर है। बेशक अब लड़के वाले के पक्ष से पैसों की डिमांड खुलेतौर पर नहीं की जाती है पर शादी रस्म-रिवाज-समाज-परंपरा के नामपर लाखों करोड़ों रुपए ख़र्च करना आज भी शान-वैभव का मुद्दा है।
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बदलते समय के साथ दहेज और महँगी शादी का चलन इस क़दर बढ़ा है कि इसने बेहद बारीकी से महिला के जीवन को भी अपनी चपेट में लिया है। फिर वो महँगे लहंगे की माँग हो या कई तोले सोने के ज़ेवर की बात हो। अच्छी दुल्हन बनने के विचार से महिलाएँ इस क़दर प्रभावित हो रही हैं कि परफ़ेक्ट बनने के नामपर आज ब्राइडल मेकअप, महँगें लहंगें, महँगा मैरिज लॉन और हनीमून का बड़ा पैकेज वग़ैरह-वग़ैरह। हो सकता है आप ये कहें कि हर शादी में ऐसा नहीं होता है, पर आप इसबात से इंकार नहीं कर सकते हैं कि वैभवपूर्ण शादी करने के दबाव में हर शादी होती है। यहाँ हमें ये भी नहीं भूलना चाहिए कि जब हम महँगी शादी की बात करते हैं तो ये सीधेतौर पर महिला के जीवन और उनके विकास के अवसरों को प्रभावित करता है, जिसके तहत लोग लड़की की पढ़ाई और बिज़नेस पर ख़र्च करने की बजाय उसकी शादी के नामपर पैसे बचत को अहमियत दी जाती है।
महिला के लिए पितृसत्ता की नीति हमेशा से फूट डालो राज करो की रही है।
‘पुत्रवती भव:’ के आशीर्वाद वाला पितृसत्ता का कटीला सरताज़
पितृसत्ता ने अपनी सामाजिक व्यवस्था में महिला को इंसान की बजाय सिर्फ़ भूमिकाओं में समेटा है। यही वजह है कि महिला की पहचान उसके बेटी, बहु, माँ और पत्नी जैसी तमाम भूमिकाओं से होती है। जिस तरह हमारे समाज में शादी को महिमामंडित कर महिला जीवन पर थोपा गया है, ठीक उसी तरह शादी के बाद बच्चे पैदा करना उनकी सार्थकता का परिचायक बन जाता है। ध्यान रहे बच्चे में सिर्फ़ और सिर्फ़ ‘लड़का’ पैदा करना। लड़का पैदा करना पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं के दमन-शोषण का आधार बनता है। वहीं दूसरे पक्ष में ये महिलाओं को ऐसे विशेषाधिकार से लैस कर देता है कि वे पितृसत्ता की मज़बूत एजेंट का काम करने लगती है और सीधेतौर पर पितृसत्ता की व्यवस्था बनाए रखने का काम करती है।
पितृसत्तात्मक समाज में महिला के लिए ख़ास तैयार किए गये ये कुछ ऐसे श्रृंगार है जो महिला के दमन या विशेषाधिकार का आधार बनते है। हम जब भी पितृसत्ता की बात करते है तो लोग ये समझने लगते है कि इसमें पुरुष की भूमिका सिर्फ़ और सिर्फ़ एक शोषक की होती है। लेकिन आपको बता दें पितृसत्ता एक विचारधारा है जो महिला-पुरुष दोनों की हो सकती है। चूँकि इस व्यवस्था ने दमन के सारे क़िस्से महिला को केंद्र में रखकर तैयार किए हैं इसीलिए इस दमन के ठीक विपरीत जो भी महिला इस विचारधारा में ख़ुद को रचना-बसना चुनती है वो पितृसत्ता के विशेषाधिकारों से लैस हो जाती है। उस वक़्त वो एक सत्ताधारी की भूमिका में होती है। इसबात को सरल भाषा में इस तरह समझा जा सकता है कि पितृसत्ता के बताए सुंदरता के मानकों के अनुसार जो महिला ख़ूबसूरत होती है उसके पास अपने आपमें एक विशेषाधिकार होता है। वहीं दूसरी तरफ एक कुँवारी लड़की की तुलना में एक शादीशुदा महिला (जिसने पितृसत्ता के नियमानुसार शादी की हो) को बेहद सम्मानित नज़रिए से देखा जाता है।
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पितृसत्ता के अनुसार अच्छी महिला के लिए बताए-बनाए गये ये वो श्रृंगार है जिसे समझना बेहद ज़रूरी है। क्योंकि स्त्री द्वेष जैसी समस्याओं का ये प्रमुख आधार होता है, जिसके अनुसार हम आपस में महिलाओं को बाँटने की कोशिश करती हैं। ऐसे में अगर हम महिला संगठन या महिला आंदोलन की बात करते हैं तो ज़रूरी है कि महिला एकता में फूट का काम करने वाले इन कारकों की राजनीति को समझा जाए, नहीं तो महिला के लिए पितृसत्ता की नीति हमेशा से फूट डालो राज करो की रही है। कभी इस सता का श्रृंगार करने वाली महिला के विशेषाधिकार के नामपर तो कभी इस श्रृंगार से इनकार करने वाली महिला के नामपर।
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तस्वीर साभार : bbc
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