एडिटर्स नोट : यह लेख फेमिनिस्ट अप्रोच टू टेक्नॉलजी के प्रशिक्षण कार्यक्रम से जुड़ी लड़कियों द्वारा लिखे गए लेखों में से एक है। इन लेखों के ज़रिये बिहार और झारखंड के अलग-अलग इलाकों में रहने वाली लड़कियों ने कोविड-19 के दौरान अपने अनुभवों को दर्शाया है। फेमिनिज़म इन इंडिया और फेमिनिस्ट अप्रोच टू टेक्नॉलजी साथ मिलकर इन लेखों को आपसे सामने लेकर आए हैं अपने अभियान #LockdownKeKisse के तहत। इस अभियान के अंतर्गत यह लेख बिहार के बक्सर ज़िले की पूनम ने लिखा जिसमें वह बता रही हैं सुधा की कहानी।
सुधा का बचपन से ही पढ़ने में बहुत मन लगता था। जब वह पांचवी कक्षा में थी तब खूब देर देर तक पढ़ती थी लेकिन उसी समय से उस पर काम का बोझ पड़ने लगा था। घर में खाना बनाना, बर्तन धोना और घर के लोगों की देखभाल करने की ज़िम्मेदारी छोटी उम्र में ही उसके ऊपर डाल दी गई थी। जल्दी ही सुधा की पढ़ाई से दूरियां बनने लगी। उसके पापा अक्सर बीमार रहते थे। उनकी बीमारी के कारण घर में आर्थिक तंगी रहती थी। इसलिए सुधा अपनी बड़ी बहन के साथ दूसरे के खेतों में भी काम करती थी। उसका गांव ओराप छोटा सा है और यह बिहार के बक्सर जिले में पड़ता है। एक दिन की बात है, सुधा की मां को ओराप के प्राथमिक उच्च विद्यालय में खाना बनाने के काम के लिए चुना गया। उसकी मां स्कूल में बच्चों का खाना बनाने लगीं। इस वजह से दोनों बहनें अपने आसपास रहनेवाली औरतों के साथ बड़े लोगों के खेतों में काम करने जाने लगी। जब मां खाना बनाने के काम में लग गई तो उन्हें एक दिन के 50 रुपये मिलने लगे था और तब मां के दिल में एक उम्मीद जग गई कि उनकी बेटियां भी पढ़ेंगी। अपने उसी स्कूल में सुधा की मां ने अपनी दोनों बेटियों का नाम लिखवा दिया।
धान रोपना, काटना, निराई करना और गेहूं या सरसों काटना आदि समय-समय पर होता है। हर वक्त नहीं होता है। उसमें भी नकद पैसा केवल धान रोपने का ही मिलता है बाकी काम के बदले अनाज ही मिलता है। सुधा और उसकी बहन खेतों का काम और घर का काम आपस में मिलकर करने लगी। साथ ही वे पढ़ने के लिए स्कूल भी जाती रही। समय बीतता गया दोनों बहनों की दुनियादारी की समझ भी बढ़ती गई क्योंकि वे बड़ों के साथ काम करती थी। काम के साथ-साथ उनकी पढ़ाई भी जारी थी। जब दसवीं कक्षा में सुधा पहुंची तो उसका स्कूल बहुत दूर था। उसकी कक्षा में उपस्थिति कम होने लगी। उसके पास इतना पैसा नहीं होता था कि वह अलग से ट्यूशन कर सके। उसके गांव में ट्यूशन में सारे विषय अच्छे से पढ़ाए जाते थे मगर सुधा के लिए इस ट्यूशन की फस देना मुमकिन नहीं था। वह घर पर ही खुद से अपनी दसवीं की परीक्षा की तैयारी कर रही थी। वह अपनी सहेलियों से किताबें मांगकर पढ़ती थी, इसके पहले तो स्कूल से मुफ्त में किताब मिल जाती थी, लेकिन हाईस्कूल में मुफ्त में किताब नहीं मिलती है। खैर, सुधा ने परीक्षा देने के लिए रात-दिन मेहनत की। वह बहुत ही उम्मीद के साथ पढ़ रही थी फिर भी उसका रिजल्ट अच्छा नहीं हुआ। वह असफल हो गई, इससे वह बिल्कुल टूट गई।
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तब सुधा के पापा ने उसे समझाया कि बेटी, हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। वह एक पढ़े-लिखे व्यक्ति हैं, उनकी बात से सुधा हिम्मत मिली। उसने अपनी मां की मदद से फिर से दसवीं की परीक्षा दी लेकिन वह फिर से फेल हो गई। उसे लगने लगा कि अब क्या होगा, अब तो वह दो बार फेल हो चुकी है। रोशनी की किरण सुधा को दिखी अपनी मां की तनख्वाह में जब उसमें बढ़ोतरी हुई। उसकी मां को पिछले साल से एक महीने का एक हज़ार मिलने लगा था। सुधा और उसकी बहन को भी खेत पर काम का एक दिन के 100 रुपये मिलने लगे थे। उस गरीब परिवार के लिए यह बड़ा सहारा था। सुधा अपनी सहेलियों से पढ़ाई में पीछे रह गई थी क्योंकि वह दसवीं में दो बार फेल हो चुकी थी लेकिन सुधा ने हिम्मत नहीं हारी थी। उसने अपने माता-पिता से कहा कि वह ट्यूशन पढ़ना चाहती है, इसके लिए उसकी मां ने झट से उसे पैसे दे दिए।
सुधा के गांव में एक शिक्षक ट्यूशन पढ़ाते थे। सुधा ने उनसे बात की और वह राजी हो गए उसे पढ़ाने के लिए। सुधा ने उनके पास तीन महीने तक अपनी परीक्षा की तैयारी की। हालांकि वह ट्यूशन की फीस बस दो महीने की ही दे पाई। साल 2019 में सुधा ने थर्ड डिविज़न के साथ आखिरकार दसवीं की परीक्षा पास कर ली। उसे बहुत ही खुशी महसूस हुई। उसका इच्छा थी कि वह आगे पढ़ाई करे। उस फैसले में उसकी मां हर कदम पर उसके साथ थी। मां ने आगे पढ़ने के लिए इंटरमीडिएट कॉलेज में उसका नाम लिखवाने का फैसला किया। उसी समय कोरोना महामारी का हल्ला हुआ और संक्रमण को रोकने के लिए पूरे देश में लॉकडाउन लागू कर दिया गया। लॉकडाउन के समय सुधा की मां का स्कूल भी बंद हो गया था। नतीजतन घर में पैसे आने बंद हो गए। घर में खाने के लिए राशन का बंदोबस्त करना मुश्किल हो रहा था। थोड़ा बहुत घर पर दाल-चावल था भी तो नहाने के लिए साबुन जैसी बुनियादी चीज़ें भी मौजूद नहीं थी। लॉकडाउन में सभी की परेशानियां बढ़ गई।
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कोरोना वायरस से बचने के लिए साफ-सफ़ाई रखने की हिदायत दी जाती। लेकिन सुधा सोचती कि जहां राशन तक नसीब नहीं हो रहा वहां साफ़-सफाई कैसे रखे। लॉकडाउन के बाद किसी तरह एक महीने तक अपनी मजदूरी के पैसे से उसने घर चलाया। इसके बाद उसने घर के राशन में से चावल या गेहूं ही बेचकर सर्फ़-साबुन खरीदा। उसी बीच उसके पापा की तबीयत भी खराब हो गई। उसका एक कारण पैसे की कमी था तो दूसरा कारण था कि लॉकडाउन के कारण उनकी दवाई नहीं मिल पा रही थी। जब फसल की कटाई होने लगी तो कुछ गेहूं बेचकर सुधा ने अपने पापा की दवाई के लिए पैसा इकट्ठा किया। इसी बीच सुधा के भाई के फेफड़े में पानी जमा हो गया। तबीयत बहुत ज़्यादा खराब हो गई थी। उसके इलाज के लिए पैसा बहुत ही कम पड़ गया, अब सुधा की हिम्मत जवाब दे गई। लॉकडाउन के कारण उसकी पढ़ाई रुक गई है। पैसे की कमी के वजह से जहां भाई का अच्छा इलाज नहीं हो पा रहा, वहां पढ़ाई कैसे होगी। ग्यारवीं कक्षा के लिए सरकारी इंटरमीडिएट कॉलेज में सुधा का नाम नहीं लिखा पाया, उसने किसी तरह एक प्राइवेट कॉलेज में दाखिला लिया। सरकार ने कॉलेज की फीस माफ की है, लेकिन सुधा के कॉलेज के प्राइवेट होने के कारण उसको लाभ नहीं मिला है। प्राइवेट कॉलेज में एक फार्म 100 रुपये का मिलता है जबकि सरकारी कॉलेज में मुफ्त मिलता है। कोरोना महामारी इस तरह फैल चुकी है कि मुश्किल हो गई।
इस लॉकडाउन के दौरान किसी तरह का खेती का काम भी नहीं हो रहा है लेकिन सुधा के परिवार में उसकी मां का वेतन भी बंद हो गया है। सरकार का कहना है नौकरी वाले को आधा वेतन दिया जाएगा। लेकिन असलियत यह है उन्हें वह भी नहीं मिल रहा है। पैसे के लिए आवाज़ किसी ने नहीं उठाई और कई परिवार सुधा जैसे होंगे जिनकी हालत खराब है। लेकिन सुधा की दुनिया ही बिखर रही है। वह बड़ी हिम्मत के साथ अपनी पढ़ाई की दुनिया को आगे लाई थी। इंटरमीडिएट कॉलेज में 11वीं से 12वीं में जाने के लिए कोई परीक्षा नहीं हुई है क्योंकि इसके लिए भी पैसे लगेंगे और अभी तो सुधा के पास एकदम पैसे नहीं है। यह कैसा लॉकडाउन है?
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तस्वीर: फेमिनिज़म इन इंडिया